देश के पिछड़े लोगों के लिए सेना की नौकरी एक अच्छा कैरियर होती है. बंधीबंधाई तनख्वाह, खानापीना, रहने की सुविधा, पेंशन आदि इन पिछड़ों के लिए एक सपना होती है जिन के पास न जमीन खेती के लायक है और न कोई व्यापार चलाने के लिए हुनर न पैसा. पर सरकार इंडिया गेट पर सैनिक सम्मान स्मारक बना देती है पर उन के जीते या शहीद हो जाने के बाद कोई खास ख्याल नहीं रख रही है.

सैनिकों में आज भी हुक्म मानने की उतनी आदत है कि नौकरी के बाद भी वे खुल कर सरकार के बारे में नहीं बोल पा रहे. नौकरी के दिनों में खाना बदोश ङ्क्षजदगी जीने को मजबूर ये लोग कभी बर्फ में ठिठुरते हैं, कभी पानी में पैर गलाते हैं, कभी झुलसा देने वाली धूप में रहते हैं. सरकारें इन का इस्तेमाल अपने मतलब के लिए करती हैं और उन्हें भूल जाती हैं, स्मारक बचने या उन्हें उन की याद में गाना गाने से सैनिक का पेट नहीं भरता, उस की विधवा को छत नहीं मिलती.

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वन रैक वन पेंशन का मुद्दा वर्षों से लटका है और सरकार पैसे की कमी का रोना रोती रहती है जबकि उसी सरकार के पास सैंकड़ों करोड़ मंदिरों के लिए हैं, उन स्कूलकालेजों के लिए हैं जहां धर्म और पाखंड की पढ़ाई कराई जा रही है. जितने पैसे ये सैनिक पेंशन में मांग रहे हैं उस से ज्यादा देश को चूना लगा कर ऊंची जातियों के व्यापारी अफसर हर साल विदेश ले कर भाग जाते है. नरेंद्र मोदी ने बाहर गए इसी काले धन को वापिस ला कर हर नागरिका को 15 लाख रुपए देने की बात कह कर 2014 का चुनाव जीता था.

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