बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आया राम गया राम साबित हो रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद की घोषणा के बाद उन को समर्थन दे कर उन्होंने पाला बदल लिया है और एक बार फिर भाजपा की गोद में बैठने की तैयारी शुरू कर दी है.
नीतीश कुमार की छवि सभ्य, सौम्य नेता की है पर मुख्यमंत्री पद पर रह कर उन्होंने बिहार का लंबाचौड़ा उद्धार किया हो, ऐसा लगता नहीं. वे पहले से भारतीय जनता पार्टी के साथ हैं और मूलतया समाजवादी विचारधारा के हैं. 1996 में उन्होंने जब देखा कि लालू यादव के सामने उन की दाल न गलेगी तो वे अटल बिहारी वाजपेयी की गोद में जा बैठे और जोड़तोड़ कर मुख्यमंत्री पद पा लिया.
जब नरेंद्र मोदी का उदय हुआ तो उन्हें लगा कि बिहार के मुसलिम वोट तो भारतीय जनता पार्टी समर्थक को नहीं मिलेंगे तो वे नरेंद्र मोदी के खिलाफ खड़े हो गए. इस तरह जोड़तोड़ से वे लगातार मुख्यमंत्री बने हुए हैं. अब जब भाजपा की धौंस कुछ ज्यादा ही चल रही है तो वे उस की ओर खिसकने लगे हैं और उन्होंने बिहार के गवर्नर रहे रामनाथ कोविंद के सहारे अपनी निष्ठा स्पष्ट कर दी है.
नीतीश कुमार भी पिछड़ों के वैसे ही नेता साबित हुए हैं जैसे देश के दलितों व पिछड़ों के आम नेता रहे हैं. शूद्रों और दलितों का सदियों से जो दमन होता रहा है उस का कारण यह रहा है कि यहां के चतुर सवर्ण इन सताएदबाए वर्णों के नेताओं को खरीद लेते हैं. फटेहाल अपने समाज के लिए कुछ करने में असमर्थ ये नेता ऊंची जमातों में बैठने का अवसर खोना नहीं चाहते. आज कितने ही दलित व पिछड़े नेता भारतीय जनता पार्टी में ही नहीं, कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टी आदि में दूसरे दरजे की घुटनभरी बस में सवारी करते हुए दूसरे नंगे पैर चल रहे अपने वर्ग के दूसरी पार्टियों के नेताओं से अपने को श्रेष्ठ मान कर खुश हो रहे हैं.