सरकार जीएसटी यानी गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स, जो बहुत से केंद्रीय व राज्यों के टैक्सों को समाप्त कर देगा, में ई-कौमर्स कंपनियों को काफी छूट दे रही है क्योंकि वे कहां से क्या खरीदती हैं और किस राज्य में बेचती हैं, इस का आकलन सरल नहीं है. पिछले सालों में कंप्यूटरों, मोबाइलों और क्रैडिट कार्डों की वजह से ई-कौमर्स खूब फलाफूला है और 4-5 बड़ी कंपनियां 4-5 हजार करोड़ रुपए की बिक्री करने लगी हैं.

यह उद्योग पनपा जरूर है पर बेहद नुकसान पर. कंपनियां जितने का व्यवसाय करती हैं उस से ज्यादा उन को  नुकसान हो रहा है पर बैंकर और निवेशक इन में पैसा लगाए जा रहे हैं इस उम्मीद के साथ कि कल को ये ईंट, पत्थर, सीमेंट के बने स्टोरों और सुपरबाजारों की जगह ले लेंगी. इन कंपनियों ने जम कर छूट दी है और सामान को घर तक पहुंचाने की जिम्मेदारी ली है और उस का खर्च अपने सिर पर ले कर स्टोरों को मात दी है. कंप्यूटर पर आधारित यह व्यापार दिखने में चाहे कितना ही अच्छा लगे, कुल मिला कर यह दुनिया के लिए ठीक साबित नहीं  होगा. इस खरीदारी का एक मानवीय मानसिक दुर्गुण यह है कि यह व्यक्ति को घरघुस्सू बना रही है. लोग समाज में रह कर एकदूसरे को देखने से वंचित होते जा रहे हैं. औल काइंड्स औफ मैन मेक द वर्ल्ड की जगह मैं और मेरा कंप्यूटर ही सिद्धांत बनता जा रहा है.

जहां जरूरी है कि घर से निकलना ही है वहां भी लोग अपने मोबाइलों से चिपके रहते हैं. हर समय लोगों की निगाहें मोबाइल या कंप्यूटर की स्क्रीनों पर टिकी रहती हैं और हरेक ने अपने चारों ओर एक किला बना लिया है, अकेलेपन का किला. इस ई-कौमर्स खरीदारी का मतलब भी यही है कि न तो खरीदार को बेचने वाली सेल्सगर्ल की मुसकान के एहसास की जरूरत है न कैशियर की भड़कीली पोशाक देखने की.

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