अमेरिका के चुनावी माहौल में ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आंदोलन की खबरें कुछ कम हो गईं पर असलियत यही है कि लिंग, रंग, जाति, रेस के मिश्रण से बना महान अमेरिका न केवल आज अपनी गलतियों को उजागर करने में लगा हुआ है, लगातार उन में सुधार भी करना चाह रहा है. भारत में भी आज यही स्थिति है. लेकिन डोनाल्ड ट्रंप ने जिस तरह से दक्षिणी अमेरिका से विधिवत या गैरकानूनी आए लोगों का भय दिखा कर वोट लिए हैं वैसा ही भारत में होता रहा है. यहां कभी बंगलादेशियों को तो कभी पाकिस्तानियों को ले कर देशभक्ति का गुणगान कर वोटरों को अपने पक्ष में वोट करने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है. डोनाल्ड ट्रंप की काली जनता के खिलाफ बोलने की खुल्लमखुल्ला हिम्मत तो नहीं हुई पर जब वे औरतों और लैटिनों के खिलाफ बोलते थे तो उस के पीछे अश्वेतों के प्रति जहर भी छिपा रहता था. यह जहर बहुत से गोरों के मन में सदियों से भरा है, वे अश्वेतों को आज भी गुलाम समझते हैं.
यही भारत में हो रहा है. यहां ‘दलित लाइव्स मैटर’ जैसे आंदोलन की जरूरत है क्योंकि यहां आज भी गलीगली, गांवगांव में, 1932 के अंबेडकर-गांधी पैक्ट के बावजूद, दलित गरीब, बीमार, अंधविश्वासी, बेसहारा, भूखे और शोषित हैं.
आरक्षण का लाभ भारत की जनसंख्या के बहुत छोटे से हिस्से को मिला. वह अपनी पहचान व आत्मविश्वास को नहीं बना पाया और इसी कारण उस का अर्थव्यवस्था में वह योगदान नहीं हो रहा जो उस की मेहनत, योग्यता, उपयोगिता आदि से संभव है. दलितों, पिछड़ों, शक की निगाहों से देखे जाने वाले अल्पसंख्यक मुसलिमों, सभी अन्य वंचित आदिवासी जातियों व धर्मों की औरतों को यदि अर्थव्यवस्था की मुख्यधारा में नहीं लाया गया तो देश कभी वांछित तरक्की नहीं कर पाएगा. यह तभी संभव है जब धर्म के अंधविश्वास, जो इन जातियों, वर्गों व ऊंचे शक्तिशाली संपन्न वर्गों के बीच दीवारें खड़ी करते हैं, तोड़े जाएं. भारत में दलित व मुसलिम रंग या शारीरिक बनावट में अलग नहीं हैं, यह एक सुखद बात है. पर इस के बावजूद उन के साथ भेदभाव होता है तो धार्मिक कारणों से. दलितों और पिछड़ों को धर्मजनित वर्णव्यवस्था अलग करती है और मुसलमानों को इसलाम व उस पर बने पाकिस्तान व बंगलादेश.