दिल्ली के जानेमाने अस्पताल अपोलो में किडनी की खरीदफरोख्त पर जो हल्ला मच रहा है वह बेबुनियाद और निरर्थक है. ठीक है देश में संबंधियों के अलावा किसी के अंग लेने पर कानूनी रोक है और सजा भी है पर मानव स्वभाव है कि वह जीवित रहने के लिए सबकुछ करता है. जब तकनीक यहां तक पहुंच गई है कि यदि किसी के दोनों गुर्दे खराब हो गए हों तो किसी का एक गुर्दा ले कर काम चलाया जा सकता है और देने वाले को बहुत नुकसान न होगा तो उस तकनीक का इस्तेमाल होगा ही. कानून कहता है कि गुर्दे सिर्फ संबंधियों से लिए जाएं ताकि कहीं गुर्दों का व्यापार न शुरू हो जाए और लोगों को अंधेरे में रख कर उन का गुर्दा न निकाल लिया जाए. लेकिन यह होगा चाहे कानून कितना सख्त हो और सजा कितनी ही कड़ी, क्योंकि अगर संबंधियों से गुर्दा नहीं मिल रहा तो किसी को भी संबंधी बना कर खड़ा किया जाएगा ही.

अपोलो के मामले में पश्चिम बंगाल के कुछ गरीबों के गुर्दे निकाले गए थे और उन के झूठे दस्तावेज बनाए गए थे. जिन गरीबों ने अपने गुर्दे दिए थे उन्हें 5 लाख रुपए मिले. इतनी रकम तो उन्होंने देखी भी नहीं थी. हां, ऐसे कामों में बिचौलियों की जरूरत तो होती ही है. आश्चर्य यह है कि पुलिस इस मामले में उन गरीबों को पकड़ रही है जिन्होंने गुर्दे बेचे. उन्होंने जो बेचा वह उन का अपना था. उन्होंने कानून का चाहे लिखित उल्लंघन किया हो पर उन्होंने किसी का कुछ छीना नहीं. उन्होंने तो जीवनदान दिया. उन्हें अपराधियों की तरह सफेद टोपे पहना कर हथकडि़यों में लाने की और जेल में बंद करने की क्या जरूरत है? अमानवता तो यह है कि किसी की जान बचाने के लिए प्रयास करो और गुनाहगार माने जओ. इस का मतलब तो यह है कि यदि बाढ़ में कोई बह रहा हो और दूसरा अपनी जान की बाजी लगा कर उसे बचा ले तो आप दूसरे को आत्महत्या का प्रयास करने वाला कहेंगे.

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