मंदिरों में या मंचों पर भरतनाट्यम, कुचिपुड़ी, ओडिसी नाच करने और किसी दूसरे नृत्य में मुंबइया टाइप फिल्मी डांस करने में आखिर फर्क क्या है? पत्थर के देवता तो नाच देख कर तालियां बजाते नहीं हैं. मंदिर हो या कोई हाल या फिर कमरा, तालियां तो हाथों से लोग ही बजाते हैं और ये हाथ पुजारियों के हों, महंतों के हों, भक्तों के हों, नृत्यप्रेमियों के हों या फिर दीवानों के, क्या कोई फर्क पड़ता है?

जिस देश में मंदिरों में नाचों की लंबी पुरानी परंपरा रही हो और मंदिरों में नाचने वाली लड़कियां वहीं से आती हों जहां से कमरों या कोठों पर जाती हैं, तो संस्कारी होने का नाटक करने का क्या मतलब रह जाता है? महाराष्ट्र सरकार का मुंबई व दूसरे शहरों के डांस बारों को बंद करने की जिद एकदम बेमतलब की है. वहां अगर बंद करना है तो बार को बंद करो, डांस को नहीं पर महाराष्ट्र सरकार जो मस्तानी के इतिहास को बारबार गर्व से दोहराती है उन्हीं मस्तानियों पर कानूनी फंदा डाल रही है, जो 100-200 रुपए कमाने के लिए घंटों मेकअप करती हैं और थकाऊउबाऊ सीलन भरे कमरों में नकली हंसी के साथ नाचती हैं. अगर डांस को इसलाम की तरह नापाक माना जाता तो भी बात दूसरी थी. इसलाम भी इसे कभी भी कहीं भी बंद नहीं कर पाया. औरतें नहीं नाचीं तो मर्द नाचने लगे और नाच अगर अच्छा है तो आदमीऔरत में फर्क कैसा?

सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल में एक सुनवाई में सही कहा कि अगर ये लड़कियां नाच कर पैसा कमाती हैं, तो सड़कों पर भीख मांगने से तो अच्छा ही है. असल में नाच और वेश्यावृत्ति  पर लगी तरहतरह की रोकों को खत्म कर देना चाहिए, क्योंकि ये जीवन का हिस्सा हैं. औरतों का नाचना और पुरुषों के साथ सोना दोनों उन के अपने सुख के लिए हैं, ये कोरी कमाई के साधन नहीं हैं. हर जना कमाई का कोई साधन ढूंढ़ता है और दूसरों के लिए कुछ काम करता है जिस से दूसरों को सुख मिले और फिर चाहे वह काम पिकासो जैसे पेंटर का हो, जुबीन मेहता जैसे संगीतकार का हो, मन्ना डे जैसे गायक का हो, बिरजू महाराज जैसे कत्थक नर्तक का हो, माइकल जैक्सन, सचिन तेंदुलकर, विराट कोहली, मैरी कौम का हो. ये सब काम पेट भरने के लिए, अपने सुकून और दूसरों को सुख देने के लिए किए जाते हैं और इन सब के बदले पैसे मांगे जाते हैं या लिए जाते हैं. जब ये लोग देह या देह का अंग बेच कर कमाई करते हैं और सम्मान भी पाते हैं तो डांस बार या ब्रोथल वाली लड़कियों पर अंकुश क्यों?

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