जयललिता और ममता बनर्जी के बाद उत्तर प्रदेश में अनुमान लगने लगा है कि अगले साल के चुनावों में बाजी मायावती के हाथों में रहेगी. मायावती जीतेंगी या नहीं, यह तो बात दूसरी है पर एक बात इन तीनों में सामान्य है कि ये तीनों ही किसी पुरुष के समर्थन की मुहताज नहीं हैं. होने को तो कई महिला मुख्यमंत्री हुई हैं और आज भी हैं वसुंधरा राजे पर वे अकेले अपने दमखम पर नहीं हैं. ममता बनर्जी, जयललिता और मायावती तीनों ने सिद्ध किया है कि वे बिना पुरुष छत्रछाया के राजनीति जैसे दुरूह और पैतरे वाले क्षेत्र में भी सफल हो सकती हैं और वह भी बिना यह कहे कि वे आधी आबादी औरतों पर निर्भर हैं. इन तीनों की राजनीति अन्य पुरुष राजनीतिबाजों की तरह नीतियों और फैसलों पर चलती है और ये रोजमर्रा के आक्रमणों, रोज की समस्याओं, टूटतेजुड़ते लोगों के हेरफेर को सहन कर लेती हैं.
इन तीनों को गद्दियां विरासत में नहीं मिलीं, इन्होंने छीनी हैं. इन्होंने अरसे से चल रही पार्टियों को हरा कर जीत हासिल की है. ये जब सत्ता से बाहर थीं तो भी इन्होंने हिम्मत नहीं हारी और पगपग पर खतरों का सामना करा. यह कहानी अब घरघर में दोहराई जा सकती है. लाखों घर ऐसे हो गए हैं, जिन्हें औरतें अपने बल पर चला रही हैं. वे इन तीनों महिला नेताओं की तरह पुरुष शक्ति से लड़ कर सुखी जीवन जी रही हैं बेचारगी का नहीं. उन्हें अब भाई, पिता या बेटों का सहारा नहीं चाहिए. आधुनिक शिक्षा की सब से बड़ी देन यही हुई है कि अब औरतों को वह सब पता है, जो आदमियों को पता है और वे हर उस जगह जा सकती हैं जहां आदमी जाते हैं. केवल इसलामी देशों को छोड़ कर दुनिया भर की औरतें आज मायावती की तरह सत्ता की डोर पाने को तैयार हैं. फिर चाहे सत्ता की हो, घर की हो, दुकान की हो, व्यवस्था की हो, पूरे राज्य की हो अथवा देश की.