मेरी करीबी रिश्तेदार माया महज 42 वर्ष की आयु में ही विधवा हो गई थी. उस का पति बेरोजगार था. माया प्राइवेट नौकरी करती थी. वहां 5 दिनों की अनुपस्थिति में नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता था. सो, उस ने तेरहवीं के दूसरे दिन ही नौकरी जौइन कर ली थी.
उस के 2 बच्चे थे. उसे पति के जाने के दुख से ज्यादा कमाने की चिंता थी. उसे समाज का बहुत विरोध सहना पड़ा, कटाक्ष का सामना करना पड़ा. परिवार का कहना था कि उसे विधवा के लिबास में रहना चाहिए. किसी ने यह नहीं सोचा कि उस की उम्र क्या है. वह सलीकेदार लिबास में रहती है, रंगीन कपड़े पहनती है घूमतीफिरती है तो इस पर सब का विरोध है लेकिन कोई यह क्यों नहीं देखता कि वह अपनी जिम्मेदारी भी तो निभा रही है.
माया बहुत खुशमिजाज है. हर बात में हर घटना में सहज रहना, सदा सामान्य बने रहना उस का स्वभाव है. पहले उस का यह स्वभाव सब के लिए मिसाल था और अब यही स्वभाव दुर्गुण इसलिए कि उसे पति की मृत्यु का गम नहीं, हर वक्त हंसती रहती है. जबकि ये उस के गुण हैं कि उस ने इस अवस्था को बहुत सहज रूप से ले कर, बिना किसी को परेशान किए खुद ही इस अवस्था से बाहर निकल कर सामान्य रूप से काम कर रही है.
सवाल है कि क्या हम सचमुच में आधुनिक हो चलें हैं या यह केवल बनावटीपन है? दरअसल, ये हमारी मानसिक बेडि़यां हैं.
कल्पना मिश्रा
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मैं शासकीय स्कूल में शिक्षिका के पद पर कार्यरत हूं. हमारी कक्षा में पढ़ाई में कुशाग्र दिव्या नाम की छात्रा काफी दिनों से अनुपस्थित थी.
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