Phone Addiction : आएदिन बच्चों के मोबाइल फोन के इस्तेमाल पर खूब हल्ला मचता है और पेरैंट्स को इस का जिम्मेदार मानते हुए बात और बहस खत्म हो जाती है जबकि इस समस्या की जिम्मेदार सरकार ज्यादा है जिस ने कदमकदम पर इसे उसी तरह सभी की मजबूरी बना दिया है जैसे माफिया के गैंग में शामिल हुए लोग उस के चंगुल से चाह कर भी निकल नहीं पाते. बच्चे तो बच्चे हैं, वे मोबाइलफोबिया से कैसे बचे रह सकते हैं.

बड़े तो बड़े, सरकार और उस की नीतियों ने कैसे बच्चों तक की भी नींद और जिंदगी खराब कर रखी है, यह सम झने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं, अपने घरपरिवार, पासपड़ोस या नातेरिश्तेदारी में देख लें. हर कोई यह कहता मिल जाएगा, ‘क्या करें, हमारा बिट्टू या बबली मानतेसम झते ही नहीं, दिन तो दिन पूरीपूरी रात मोबाइल से चिपके रहते हैं. खूब सम झाया, डांटा लेकिन उन के कान पर जूं नहीं रेंगती. हम तो हार गए हैं.’ मौजूदा दौर के पेरैंट्स की टौप 5 समस्याओं में पहले या दूसरे नंबर पर यही समस्या निकलेगी जिस का वाकई कोई समाधान नहीं.

उन समस्याओं का दरअसल कोई समाधान होता भी नहीं जो सरकार की सरपरस्ती में फलतीफूलती हैं. बच्चों की मोबाइल लत से जुड़ा डर दिखाने वाला मैटीरियल जहांतहां भरा पड़ा है. रोज बहसें होती हैं, मीडियाबाजी होती है, चिंता व्यक्त की जाती है, तरहतरह के सु झाव आतेजाते हैं. लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात निकलता है. समाजशास्त्री, मनोवैज्ञानिक और शिक्षाविद जैसे जिम्मेदार लोग भी बस फूलपत्ते तोड़ कर खुद की जिम्मेदारी पूरी हुई मान लेते हैं. इस बाबत सब से आसान काम है पेरैंट्स को दोषी करार दे देना जो खुद बेचारे बेबसी से बच्चों को स्मार्टफोन की दलदल में धंसते देखते रहते हैं.

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