Phone Addiction : आएदिन बच्चों के मोबाइल फोन के इस्तेमाल पर खूब हल्ला मचता है और पेरैंट्स को इस का जिम्मेदार मानते हुए बात और बहस खत्म हो जाती है जबकि इस समस्या की जिम्मेदार सरकार ज्यादा है जिस ने कदमकदम पर इसे उसी तरह सभी की मजबूरी बना दिया है जैसे माफिया के गैंग में शामिल हुए लोग उस के चंगुल से चाह कर भी निकल नहीं पाते. बच्चे तो बच्चे हैं, वे मोबाइलफोबिया से कैसे बचे रह सकते हैं.
बड़े तो बड़े, सरकार और उस की नीतियों ने कैसे बच्चों तक की भी नींद और जिंदगी खराब कर रखी है, यह सम झने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं, अपने घरपरिवार, पासपड़ोस या नातेरिश्तेदारी में देख लें. हर कोई यह कहता मिल जाएगा, ‘क्या करें, हमारा बिट्टू या बबली मानतेसम झते ही नहीं, दिन तो दिन पूरीपूरी रात मोबाइल से चिपके रहते हैं. खूब सम झाया, डांटा लेकिन उन के कान पर जूं नहीं रेंगती. हम तो हार गए हैं.’ मौजूदा दौर के पेरैंट्स की टौप 5 समस्याओं में पहले या दूसरे नंबर पर यही समस्या निकलेगी जिस का वाकई कोई समाधान नहीं.
उन समस्याओं का दरअसल कोई समाधान होता भी नहीं जो सरकार की सरपरस्ती में फलतीफूलती हैं. बच्चों की मोबाइल लत से जुड़ा डर दिखाने वाला मैटीरियल जहांतहां भरा पड़ा है. रोज बहसें होती हैं, मीडियाबाजी होती है, चिंता व्यक्त की जाती है, तरहतरह के सु झाव आतेजाते हैं. लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात निकलता है. समाजशास्त्री, मनोवैज्ञानिक और शिक्षाविद जैसे जिम्मेदार लोग भी बस फूलपत्ते तोड़ कर खुद की जिम्मेदारी पूरी हुई मान लेते हैं. इस बाबत सब से आसान काम है पेरैंट्स को दोषी करार दे देना जो खुद बेचारे बेबसी से बच्चों को स्मार्टफोन की दलदल में धंसते देखते रहते हैं.
यह ठीक है कि स्मार्टफोन नाम का आत्मघाती हथियार वे ही बच्चों को खरीद कर देते हैं जो किसी तलवार, त्रिशूल और पिस्टल, गन वगैरह से कम खतरनाक नहीं. हथियारों को तो खरीदने और घर में लाने से पहले लाइसैंस लेना पड़ता है पर स्मार्टफोन पर कोई प्रतिबंध नहीं है, उलटे सरकार और उस के साए तले पल रही संस्थाओं ने इसे इतना अनिवार्य बना दिया है कि कोई भी सरकारी काम इस के बिना संपन्न नहीं होता. यानी यह विकट की मजबूरी सभी की बना दी गई है और इसी का नुकसान बच्चों को उठाना पड़ रहा है.
अगर स्मार्टफोन पेरैंट्स की मजबूरी हो गया है या बना दिया गया है तो बच्चे भी पेरैंट्स की मजबूरी हैं बिलकुल स्मार्टफोन जैसी ही, जिस से सम झौते की कोई गुंजाइश नहीं होती. जिस चीज का मांबाप इस्तेमाल कर रहे हों उस के इस्तेमाल से बच्चे को रोका नहीं जा सकता.
पेरैंट्स की मजबूरी यह है कि बैंक से पैसा निकालो या ट्रांसफर करो तो स्मार्टफोन, औफिस में हाजिरी लगाना हो तो स्मार्टफोन, प्रौपर्टी टैक्स या कोई भी टैक्स भरना हो तो स्मार्टफोन, घरेलू गैस सिलैंडर बुक करना हो तो भी स्मार्टफोन जरूरी है. ड्राइविंग लाइसैंस बनवाना हो तो भी स्मार्टफोन में आता है ओटीपी, कोई टिकट बुक कराना हो तो ओटीपी, कोई पहचानपत्र बनवाना हो तो ओटीपी यानी हर जगह ओटीपी और फिर उस के सत्यापन के लिए भी ओटीपी चाहिए रहता है. यह वनटाइम पासवर्ड लाइफटाइम हो गया है.
मोबाइल के जरिए सरकारी फंदे
आइए एक नजर डालें ओटीपी के सरकारी फंदे पर कि यह कहांकहां लगता है. नीचे दी जा रही लिस्ट सिर्फ एक नमूना है क्योंकि मोबाइल के पंजे इस से कहीं ज्यादा फैले हैं.
१. आधार कार्ड अपडेट पर आधारित केवाईसी मसलन मोबाइल नंबर अपडेट कराने के लिए.
२. पैन कार्ड आवेदन के लिए.
३. वर्चुअल आईडी अपडेट करने के लिए.
४. पैन कार्ड में सुधार के लिए.
५. राशन कार्ड सब्सिडी आदि पर.
६. आधार पीवीसी कार्ड स्टेटस चैक करने के लिए.
७. डिजी लौकर बनाने के लिए.
८. फिर उस पर लौगिन करने के लिए.
९. इनकम टैक्स रिटर्न भरने के लिए.
१०. पैन कार्ड को आधार से लिंक करने के लिए.
११. ईफाइलिंग के बाद वैरिफिकेशन के लिए.
१२. पासवार्ड रीसेट करने के लिए.
१३. पीएम आवास योजना में रजिस्ट्रेशन के लिए.
१४. उज्ज्वला योजना में रजिस्ट्रेशन के लिए.
१५. सीबीएसई की मार्कशीट डाउनलोड करने के लिए.
१६. स्कौलरशिप पोर्टल में लौगिन करने के लिए.
१७. ड्राइविंग लाइसैंस के लिए आवेदन करने के वक्त.
१८. ड्राइविंग लाइसैंस के नवीनीकरण के लिए.
१९. व्हीकल के रजिस्ट्रेशन कराने के वक्त.
२०. व्हीकल की फिटनैस कराने के वक्त.
२१. ईपीएफओ के पीएफ खाते में किसी भी गतिविधि के लिए.
२२. यूएएन पोर्टल पर लौगिन करने के लिए.
२३. पीएफ खाते की पासबुक देखने के लिए, जो औनलाइन होती है.
२४. अपना फंड क्लेम करने के लिए.
२५. कृषि योजनाओं के रजिस्ट्रेशन के लिए.
२६. बिजली विभाग की शिकायत के निबटान के लिए.
२७. मूल निवासी प्रमाणपत्र बनवाने के लिए.
२८. सरकारी नौकरी में आवेदन करने के लिए.
२९. लाड़ली लक्ष्मी/लाड़ली बहन योजना के लिए.
३०. पासपोर्ट बनवाने के लिए आवेदन करने के वक्त.
३१. पासपोर्ट के नवीनीकारण कराने के लिए.
३२. किसान पहचानपत्र के लिए.
३३. बैंक से फंड ट्रांसफर करने के वक्त.
३४. जनधन खाता खोलने के लिए.
३५. बैंक से लोन लेने के लिए आवेदन करने के वक्त.
यह सूची अधूरी है, सिर्फ नमूने के लिए है. सैकड़ों और जगहों पर मोबाइल की जरूरत पड़ती है सरकार से संपर्क करने में.
निजी जानकारियों के मिसयूज का खतरा
इस लिस्ट को ध्यान से देखेंगे तो पता चलेगा कि आप का मोबाइल आप को सुविधा नहीं दे रहा बल्कि आप का सारा कच्चा चिट्ठा सरकार के हाथ में सौंप रहा है. फ्रौड करने वाले उन्हीं ओटीपी को अपना हथियार बनाने लगे हैं जो सरकारी कंप्यूटर हर रोज करोड़ों नागरिकों के स्मार्टफोनों पर भेजते हैं.
जिसे सुविधा माना जा रहा है कि धूलभरे सरकारी दफ्तरों में जाना नहीं पड़ रहा, वह एक सुविधा नहीं बल्कि एक आफत बन गई है. सरकार अब एक नहीं बल्कि सौ सवाल पूछने लगी है क्योंकि उसे इन सवालों को पूछने के लिए अपना अफसर नहीं बैठाना होता है. सरकारी पोर्टल पर आप को एकएक कर के अपनी जानकारी देनी होती है जो आप के आधार कार्ड से मैच करती जाती है.
सरकारी कंप्यूटर सिस्टम में मौजूद आप की फाइल में आप से जुड़ा डेटा ही नहीं बल्कि फोटो भी हमेशा के लिए जमा हो रहे हैं. आप को आभास भी नहीं होगा अगर हर पोर्टल आप की फोटो गैलरी से फोटो डाउनलोड कर रहा हो या आप के डौक्युमैंट के फोल्डर से फाइलें कौपी कर के अपने सिस्टम में जमा कर रहा हो.
सरकार चाहती है कि पेरैंट्स अपने बच्चों को स्मार्टफोन खरीद कर दें ताकि वह उन के हर कदम का हिसाब अपने विशालकाय कंप्यूटरों में रख सके.
अब ऐसे में बच्चा अगर स्मार्टफोन की मांग करे तो आप उसे रोक नहीं सकते क्योंकि इसे सुरक्षा उपकरण भी मान लिया गया है. बच्चे का दुनिया व मातापिता से कनैक्ट रहने के लिए यह ‘उस्तरा’ जरूरी हो चला है. अब तो स्कूल भी सरकार की राह चल पड़े हैं. होमवर्क और असाइनमैंट व्हाट्सऐप पर भेजे जाते हैं. हर क्लास और सैक्शन का एक ग्रुप है जिस में पढ़ाई से जुड़ी इन चीजों का आदानप्रदान होता है जो स्मार्टफोन पर बच्चों की दावेदारी को मजबूत करता है.
एक बार बच्चे को मोबाइल फोन का मालिकाना हक मिल भर जाए, फिर तो वह किसी, यहां तक कि अपने मांबाप, की भी नहीं सुनता सिवा कार्टून कैरेक्टर के. हाल तो यह है कि बच्चे खुद को ही कार्टून कैरेक्टर सम झने लगे हैं. इंदौर के एम वाई (महाराजा यशवंतराव) अस्पताल में प्रतिदिन 60 के लगभग बच्चे इलाज के लिए जाते हैं जिन से फिजियोथेरैपी डिपार्टमैंट गुलजार रहता है.
एक बच्चे को खुद के कार्टून कैरेक्टर होने का भ्रम हुआ तो वह उसी की आवाज में बात करने लगा और वैसी ही हरकतें करने लगा. 3 महीने के इलाज के बाद उसे हकीकत कुछकुछ सम झ आ रही है. कुछ बच्चे ऐसे हैं जिन्हें रील की लत लग गई है जिसे छुड़ाने में 2 साल तक लग जाते हैं.
उन पेरैंट्स के बारे में कोई नहीं सोचता जिन का बच्चा एक दयनीय असामान्यता का शिकार हो जाता है जिसे डाक्टर डिजिटल औटिज्म कहने लगे हैं. बच्चों में एकाग्रता की कमी आ रही है. वे हिंसक हो रहे हैं और अपनी पूरी नींद नहीं ले पा रहे हैं. वे पढ़ भी नहीं पा रहे हैं. मैदानी खेलों से वे बहुत दूर हो गए हैं. एक लाख में से एक शहरी बच्चा भी पेड़ पर नहीं चढ़ पाता.
इस पर पेरैंट्स से कहा जाता है कि गलती आप की ही है जो आप ने उसे फोन दिया, अब भुगतो. अब कौन इन ज्ञानियों को बताए कि वे बेचारे तो पहले से ही भुक्तभोगी हैं और सरकार के प्रोत्साहन व दबाव की दोतरफा सजा भुगत रहे हैं. सरकार ने कहा कि आधार कार्ड के लिए स्मार्टफोन जरूरी है तो वे कम से कम 15-20 हजार रुपए की दक्षिणा मोबाइल फोन बनाने वाले की दानपेटी में डाल आए और अब बिल 300 से ले कर हजार रुपए महीने टैलीकौम कंपनी की तिजोरी में डालते रहेंगे. सरकार को उस का तगड़ा हिस्सा टैक्स की शक्ल में मिल जाता है. साल 2023-24 में टैलीकौम सैक्टर में सरकार को अकेले लाइसैंस शुल्क, स्पैक्ट्रम शुल्क से ही कोई 50 हजार करोड़ रुपए की आमदनी हुई है.
इस मिलीभगत, जो तबीयत से आम लोगों की जेब कुतर रही है, से बच्चों का वास्ता होना स्वाभाविक बात है. यहां तक कि कई ऐसे आपराधिक गिरोह हैं जो इन्हीं स्कूली बच्चों की इस स्थिति का फायदा उठाने की ताक में लगे हैं.
मोबाइल पर चल रहा नशे का कारोबार
धर्म की तरह नशे का कारोबार भी कभी किसी टैक्नोलौजी का मुहताज नहीं रहा. लेकिन जब यह टैक्नोलौजी सुलभ हो ही गई है तो इस का बेजा इस्तेमाल भी जम कर हो रहा है और हैरानी की बात यह कि सरकार को इस की चिंता तो है पर वह तह तक नहीं जाती. हां, परोक्ष रूप से जता जरूर देती है कि यह गोरखधंधा उस की जानकारी में है.
4 जून को केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने नई दिल्ली में राजस्व खुफिया निदेशालय (डीआरआई) के मुख्यालय के उद्घाटन के मौके पर बोलते जो कहा उस का कनैक्शन कैसे मोबाइल फोन से है, इसे जस्टिफाई करने से पहले संक्षेप में वित्त मंत्री की मंशा सम झनी जरूरी है, जिन की नजर में मादक पदार्थों की तस्करी सब से गंभीर राष्ट्रीय खतरा है. स्कूल और कालेज इस के सब से पहले शिकार हैं.
बिलाशक ऐसा है लेकिन रोग का निदान कर लेना उस का इलाज नहीं होता. निर्मला सीतारमण ने जो सु झाव दिए वे नितांत किताबी और अव्यावहारिक थे, मसलन ‘अधिक समन्वय.’ अब यह क्या वे नहीं जानतीसम झतीं कि सरकारी एजेंसियां तो ताकती ही रह जाती हैं लेकिन स्मगलर्स के आपसी ‘समन्वय,’ जो मोबाइल फोन के जरिए होता है, का तोड़ सरकार के पास नहीं क्योंकि हर हाथ में मोबाइल उस के प्रोत्साहन और दबाव की ही तो देन है.
साल 2024 के कुछ प्रमुख छापों पर गौर करें तो साफ हो जाता है कि ड्रग्स के कारोबार में मोबाइल फोन का रोल बेहद अहम रहा है. पिछले साल जितने भी छापे पड़े उन में स्मगलर्स के पास से मोबाइल फोन जरूर बरामद हुए, जिन्हें बतौर सुबूत इस्तेमाल भी किया जाएगा. चेन्नई में नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो ने डीएमके से निकाले गए नेता जाफर सादिक के घर से छापेमारी के बाद जो बताया था उस के मुताबिक वह 2 हजार करोड़ रुपयों के इंटरनैशनल कार्टेल का मास्टरमाइंड था. जाफर स्मगलिंग के लिए मोबाइल फोन और संचार के तमाम डिजिटल साधनों का इस्तेमाल करता था.
2024 में ही रांची के सुखदेव नगर थाना पुलिस ने नशे के कारोबारियों- पवन कुमार और कोमल देवी- को गिरफ्तार किया था. उन के पास से भी नशीले पदार्थों के अलावा कई मोबाइल फोन जब्त किए गए थे. पुलिस के मुताबिक उन फोनों का इस्तेमाल वे दोनों ग्राहकों से संपर्क करने और डिलीवरी के लिए करते थे. साल 2023 में लुधियाना के सलेम टाबरी थाने की पुलिस ने चरणजीत सिंह नाम के नशे के कारोबारी को 10 ग्राम हेरोइन के साथ गिरफ्तार किया था. उस के पास से 2 मोबाइल फोन भी जब्त किए गए थे. वहां भी पुलिस के मुताबिक उन मोबाइल फोनों का इस्तेमाल नैटवर्क और लेनदेन के लिए किया जाता था.
इस इलाके में ड्रग तस्करी बहुत आम है. मार्च 25 से ले कर मई 25 तक 3 और छापों में ड्रग तस्कर धरे गए थे. उन सभी ने मोबाइल फोन को तस्करी और ड्रग सप्लाई सहित पेमैंट के लिए मोबाइल फोन का सहारा लिया था.
जान कर हैरानी होती है कि अपने धंधे के लिए नशे के कारोबारियों ने व्हाट्सऐप ग्रुप भी बना रखे हैं. साल 2018 में दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान की पुलिस ने मिल कर एक व्हाट्सऐप ग्रुप बनाया था, जिस का मकसद इस धंधे के कारोबारियों को पकड़ना और उन का नैटवर्क जानना था. इस में पुलिस को आंशिक सफलता मिली भी थी लेकिन साबित यह भी हुआ था कि अब बिना मोबाइल फोन की मदद के नशे का कारोबार नहीं चलता.
ड्रग स्मगलर्स दरअसल एनक्रिप्टेड मैसेजिंग ऐप्स का इस्तेमाल करते हैं जिस से उन्हें ट्रैक करना कठिन हो जाता है. अभी तक छापों के बाद पुलिस और दूसरी सरकारी एजेंसियां जो सार दे पाई हैं उस के मुताबिक ये लोग कोड वर्ड्स का इस्तेमाल करते हैं. अलावा इस के, बर्नर फोन (एक तरह का सस्ता टैंम्परेरी, प्रीपेड डिस्पोजेबल फोन) का इस्तेमाल भी स्मगलर करते हैं और उसे एक बार के इस्तेमाल के बाद नष्ट कर देते हैं.
मोबाइल फोन के जरिए ही डील होती है और समन्वय भी, जिस पर वित्त मंत्री ने खासा जोर दिया कि डीआरआई को भी यही करना चाहिए. जाहिर है, टैक्नोलौजी के मामले में अपराधी सरकार से एक कदम आगे ही चलते हैं.
इन एजेसियों को मालूम है कि तस्कर डार्क वैब पर औनलाइन ड्रग मार्केट्स तक पहुंचने के लिए मोबाइल का सहारा लेते हैं. वे टोर ब्राउजर या वीपीएन की मदद से अपनी पहचान छिपाए रखते हैं. यह सोचना बेमानी है कि नशे के कारोबार में डिजिटल पेमैंट नहीं होता. अभी तक की कार्रवाई बताती है कि अधिकतर भुगतानों में यूपीआई और क्रिप्टोकरैंसी, मसलन बिटकौइन सहित दूसरे डिजिटल वौलेट का इस्तेमाल ज्यादा हुआ. दरअसल, इन पेमैंट्स को ट्रेस करना उस सरकार के लिए मुश्किल है जो इसे बढ़ावा देने में जुटी हुई है.
एक बड़े ड्रग कार्टेल में मोबाइल फोन का इस्तेमाल नैटवर्क मैनेजमैंट से किया जाता है. सप्लायर्स, डीलर्स और डिलीवरी एजेंट्स के बीच मोबाइल के जरिए ही बातचीत होती है जो सरकार की पकड़ से बाहर की बात है. जब्त मोबाइल फोनों की सहायता से पुलिस को कामयाबी मिलती है लेकिन वह आटे में नमक के बराबर होती है. इस से छोटी मछलियां ही पकड़ में आती हैं. इस कारोबार के मगरमच्छ तो विदेशों में बैठे अपना खेल खेल रहे होते हैं. यही वित्त मंत्री का दुखदर्द है जो अकसर जाहिर होता रहता है.
सार यह कि निर्मला सीतारमण इस खतरनाक कारोबार का जिम्मेदार अपनी सरकार को नहीं मानतीं जिस ने मोबाइल को ‘आत्मा’ सरीखा बना दिया है. यह ठीक है कि जब मोबाइल नहीं था तब भी धर्म सहित नशे का कारोबार चल रहा था लेकिन अब इस ने हर उस हाथ को निशाने पर ले लिया है जिस में मोबाइल है. यह मेहरबानी सरकार की ही है कि कोई 111 करोड़ लोगों के हाथ में मोबाइल फोन है जो ड्रग तस्करों के लिए वरदान साबित हो रहा है, जो खासतौर से स्कूलकालेजों में अपनी ग्राहकी इसी से बढ़ा रहे हैं. इसे खत्म करने के लिए सरकार के पास कोई योजना नहीं है.
जिम्मेदारी तय होनी जरूरी
प्राइवेट स्कूलों ने भी डिजिटल एजुकेशन के नाम पर चांदी काटनी शुरू कर दी. औनलाइन क्लासेस का दौर कोविड के बाद आया तो कोरोना से तो बच्चे जैसेतैसे बच गए लेकिन इस नए वायरस की गिरफ्त में आ गए जिस की न कोई वैक्सीन है, न ही दवा और न ही इस पर असली कोरोना की तरह तालीथाली जैसे किसी टोटके का कोई असर होने वाला. अब हर कोई एकदूसरे का मुंह ताक रहा है कि आखिर इस का इलाज है क्या.
इस बारे में जब इस प्रतिनिधि ने कुछ पेरैंट्स और टीचर्स से बात की तो उन के पास कोई स्पष्ट राय या कारण नहीं था कि इस समस्या की जड़ क्या है. लेकिन अधिकतर ने पेरैंट्स को दोषी ठहराया. भोपाल के रचना नगर में रहने वाली एक प्राइवेट स्कूल टीचर सपना शुक्ला का कहना था कि पेरैंट्स ही दोषी हैं क्योंकि वे खुद भी इस के एडिक्ट हैं.
क्या सरकार इस की दोषी और जिम्मेदार नहीं? इस सवाल का जवाब सपना ने 2 दिनों बाद फोन कर दिया कि सरिता के जनवरी (द्वितीय) 2025 अंक में प्रकाशित लेख ‘स्क्रीन से हिंसक होते बच्चे, दोषी पेरैंट्स’ में तो पेरैंट्स को ही दोषी करार दिया गया है.
यह सच है, पहली नजर में लगता यही है कि दोषी पेरैंट्स हैं और कोई नहीं. यह तो जब आप विषय का विश्लेषण करने लगें, ऐसा काम जो सोशल मीडिया के युग में किया जाना कम हो गया है, तो पता चलता है कि दोष सरकार का है जो मोबाइल कंपनियों को लगातार पाल रही है ताकि उस के हाथ में पेरैंट्स की ही नहीं, उन के बच्चों की आंखों की भी डोर रहे.
सपना 17 वर्षीया बेटी की मां है और बेटी की मोबाइल लत से दुखी व परेशान है. 10वीं पास करते ही बेटी के लिए स्कूल में स्मार्टफोन जरूरी हो गया तो खरीद कर देना मजबूरी हो गई. अब वह देररात तक इस का इस्तेमाल करती है और सुबह उनींदी व थकी सी उठती है. रोकनेसम झाने पर कुछ दिन तो सीमित उपयोग करती है लेकिन इस के बाद वह अपनेआप पर नियंत्रण नहीं
रख पाती.
भोपाल की ही शाहपुरा निवासी गृहिणी व पेशे से लेखिका प्रेक्षा सक्सेना बताती हैं, सीधी बात तो यह है कि आजकल के पेरैंट्स का बच्चों पर कोई जोर नहीं चलता. वे असहाय हो गए हैं. चौबीसों घंटे संतान की निगरानी नहीं की जा सकती. पेरैंट्स की अपनी भी मजबूरियां हैं. अब पैसा कमाना पहले की तरह देखने में ही आसान लगता है. नहीं तो यह, खासतौर से यंग कपल्स के लिए, बहुत कठिन हो गया है.
बकौल प्रेक्षा, पेरैंट्स बच्चों के मामले में बहुत कमजोर और केयरिंग हो चले हैं जो उन की मजबूरी भी बन गई है. इस तरह की खबर पढ़ कर कोई भी पेरैंट दहल जाते हैं कि बेटी या बेटे के हाथ से मोबाइल फोन छीनने पर उस ने आत्महत्या कर ली. दूसरी तरफ अब न संयुक्त परिवार हैं, न मैदानी खेल हैं और न मनोरंजन के दूसरे साधन. शहर अनापशनाप तरीके से विस्तार ले रहे हैं जिन में सब अकेले पड़ते जा रहे हैं.
सरकार की भूमिका को प्रेक्षा एक साजिश मानती हैं जो मोबाइल कंपनियों से मिलीभगत के चलते पैदा हुई है जिस की तह तक पहुंचना आसान काम नहीं. होना तो यह चाहिए कि सरकार बच्चों के मोबाइल फोन के इस्तेमाल के खिलाफ कानून बनाए या इसे प्रतिबंधित करे. सवाल बच्चों के भविष्य का है.
सरकार टैलीकौम कंपनियों को वायरलैस वेव्स इस्तेमाल करने के लिए लाइसैंस देती है और कंपनियां लगातार अपनी असमर्थता जता रही हैं कि नए शुल्क नहीं दे सकतीं. वोडाफोन को
53,000 करोड़ रुपए देने हैं और भारतीय एयरटेल को 35,500 करोड़. कमेटी औफ सैक्रेटरीज की सिफारिश पर टैलीकौम कंपनियों को 42,000 करोड़ रुपए की एकमुश्त छूट दी जा चुकी है.
यह छूट इसलिए दी जाती है क्योंकि मोबाइल और टैलीकौम कंपनियां असली सेवा तो सरकार को देती हैं, पेरैंट्स और उन के बच्चों को ही नहीं. सरकार मोबाइल, टैलीकौम टावर्स, टैलीकौम इक्विपमैंट पर नाममात्र का टैक्स लगाती हैं क्योंकि असल में तो ये सरकारी जंजीरें ही हैं जिन के शिकार पेरैंट्स तो हुए ही, बच्चे भी हो गए हैं.
बच्चों की खातिर सरकार अपनी नीति बदलेगी, यह असंभव है. मिनिस्ट्री औफ कम्युनिकेशंस की वैबसाइट पर जा कर देख लें, 12,195 करोड़ रुपए टैलीकौम इक्विपमैंट बनाने वाली कंपनियों को प्रोडक्शन लिंक्ड इंसैंटिव के नाम पर बांटे गए हैं. सरकार अगर अरबों रुपए खर्च कर रही है तो इसीलिए कि पेरैंट्स और बच्चे, जो पांचसात साल में वयस्क हो जाएंगे, अपना पूरा व्यवहार सरकार के हाथों में सौंप दें.
सरकारें चाहें तो बच्चों का मोबाइल एडिक्शन कम हो सकता है.
तैयारी गुलाम फौज बनाने की
ऐसा होना संभव भी है क्योंकि कई देश इस मसले पर कार्रवाई कर चुके हैं. फ्रांस, इटली, अमेरिका, स्पेन, चीन, इसराइल, नीदरलैंड, तुर्कमेनिस्तान, डेनमार्क और स्वीडन, कनाडा सहित आस्ट्रेलिया जैसे देशों ने इस दिशा में कदम उठाए हैं. लेकिन भारत में तो स्कूलों में भी मोबाइल फोन के इस्तेमाल को रोकता कोई कानून या नीति ही नहीं बनी है. स्कूल ही अपने स्तर पर स्मार्टफोन प्रतिबंधित कर दें तो कर दें वरना तो कोई पूछने या रोकनेटोकने वाला नहीं.
देखा जाए तो इस की जिम्मेदार सरकार है जिसे अपने नौनिहालों से कोई सरोकार नहीं. वह अपने एजेंडे को थोपते गुलामों की फौज पैदा करना चाहती है. बच्चे स्मार्टफोन में आंखें गड़ाए पबजी, फ्रीफायर, सबवे सर्फर्स, कैंडी क्रश और फोर्ट नाइट जैसे गेम्स में डूबे रहें, ऐसी सरकार की मंशा है कि जिस से तार्किक पीढ़ी विकसित ही न हो.
हैरत की बात यह कि बातबात में सरकार की टांग खींचने वाला विपक्ष भी इस गंभीर मुद्दे पर मुंह में दही जमाए बैठा है. उसे जातिगत जनगणना और पहलगाम जैसे पकेपकाए मुद्दों पर ही हल्ला मचाना आसान काम लगता है जो कि आसान है भी. सो, तो कोई क्या कर लेगा.