एकाएक मुझे दिल्ली जाना पड़ा. मेरे पति जा नहीं पा रहे थे. उन्होंने शताब्दी ऐक्सप्रैस के एसी चेयरकार में मुझे और बेटी को बिठा दिया. गाड़ी चलने पर मैं ने मुड़ कर देखा कि डब्बे में लगभग 20 युवा लड़कियां बकबक कर रही हैं.
मुझे देख कर उन में से एक बोली, ‘‘हैलो गाइज, हम लोगों के साथ एक दीदी और एक बेबी भी बैठी हुई हैं. वे मुड़मुड़ कर आश्चर्य से हमें देख रही हैं.’’
‘‘तो बोलो न, मुड़मुड़ कर न देख, मुड़मुड़ कर,’’ दूसरी बोली.
पहली मुझ से बोली, ‘‘दीदी, हम लोग एमबीए फाइनैंस के फाइनल ईयर की छात्राएं हैं और दिल्ली एक कौन्फ्रैंस व कंसल्टैंसी के लिए जा रही हैं.’’
मैं ने कहा, ‘‘विश यू औल, द बैस्ट.’’ फिर एक गीत की पंक्ति को सुधार कर मैं बोली, ‘‘इतनी शक्ति इन्हें देना दाता, मन का विश्वास कम हो न जाए.’’
इतने में वे सब एकसाथ बोलीं, ‘‘थैंक्यू दीदी, थैंक्यू.’’
फिर उन्होंने निर्णय किया कि उन में से कुछ कैंपस सेलैक्शन के सदस्य हो जाएं और शेष का इंटरव्यू लेने की रिहर्सल की जाए. यह रिहर्सल करीब 2 घंटे चली.
मैं ने कहा, ‘‘तुम सब थक गई होंगी. मीठी पूड़ी चलेगी, मेरे पास हैं तुम लोगों के लिए.’’ वे सब खुशी से उछलने लगीं, बोलीं, ‘‘ग्रेट दीदी, गे्रट.’’
इस तरह अनजाना सफर, अपना सा हो कर समाप्त हुआ.
जया श्रीवास्तव
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मैं अपने दोनों बेटों के साथ लखनऊ से देहरादून वापस जा रही थी. हरिद्वार स्टेशन पर गाड़ी तकरीबन आधा घंटा रुकती थी.
हरिद्वार स्टेशन पर बंदरों का बड़ा प्रकोप रहता था. हम खिड़की से बाहर देख ही रहे थे कि तभी एक बंदर डब्बे में घुस आया. मैं अपने दोनों बच्चों को अपने से चिपका कर बैठ गई.
बंदर को खाने को तो कुछ मिला नहीं, मेरी एक सैंडिल ही उठा वह बाहर की तरफ भागा और प्लेटफौर्म के शैड में ऊंचाई पर जा कर बैठ गया. यह देख मैं ने शोर मचाया कि शोर सुन वह मेरी सैंडिल नीचे फेंक दे.
तभी एक सज्जन ने कहा कि ऐसे तो वह कभी सैंडल नहीं छोड़ेगा. फिर उन्होंने अपने झोले से एक केला निकाल बंदर को दिखाया. पर यह क्या, बंदर तो मेरी सैंडिल वहीं छोड़, नीचे उतर आया. मेरी समस्या तो वही रही.
दीपशिखा त्यागी