Competitive Exams : वक्त बहुत तेजी से बदल रहा है लेकिन उस में जातिवादी मानसिकता ज्यों की त्यों है. फर्क इतना भर आया है कि मुख्यधारा वाले सवर्णों की नई पीढ़ी में बनिए कहे जाने वाले वैश्यों ने शिक्षा और नौकरियों में दूसरे सवर्णों, खासतौर से ब्राह्मणों के लिए एक चुनौती पेश कर दी है. समाज के लिहाज से देखना दिलचस्प होगा कि यह सिलसिला क्या गुल खिलाएगा.

जब किसी अखबार में किसी भी प्रतियोगी परीक्षा की मैरिट लिस्ट खबर की शक्ल में या ब्रैंडेड स्कूलों के बड़ेबड़े इश्तिहारों में चुने गए छात्रों के फोटो सहित छपते हैं तो बरबस ही हर कोई इन्हें बड़ी बारीकी से पढ़ता है फिर भले ही उस का कोई वास्ता इन से हो या न हो. दरअसल पढ़ने वालों की दिलचस्पी यह देखने और जानने में ज्यादा रहती है कि उन की जाति के कितने छात्र कहां सलैक्ट हुए.

भारतीय समाज में जातिवाद की गहरी जड़ों का अंदाजा इस एक बात से भी लगाया जा सकता है कि हर किसी की इच्छा अपनी जाति के बच्चों को अव्वल जगह पर देखने की रहती है. और जब अपनी जाति के बच्चे उम्मीद से या पहले के मुकाबले कम दिखते हैं तो वे निराश हो कर आरक्षण और शिक्षा नीति वगैरह को कोसने लगते हैं.

आरक्षण से हटते अगर अनारक्षित जातियों की बात करें तो समीकरण अब बदल रहे हैं. स्कूल से ले कर प्रतियोगी परीक्षाओं तक की मैरिट लिस्ट में ब्राह्मणों की तादाद कम हो रही है जबकि वैश्यों की बढ़ रही है.

हालांकि कोई भी मैरिट लिस्ट जाति के आधार पर नहीं बनती लेकिन उन में सब से पहले खोजी जाति ही जाती है. नतीजा आते ही जाति के ठेकेदार खासतौर से सोशल मीडिया पर यह ढिंढोरा पीटना शुरू कर देते हैं कि देखो, सौ में से बीस बच्चे हमारी जाति के हैं जो हमारी श्रेष्ठता का प्रमाण हैं (यह आंकड़ा आमतौर पर अंदाजे से और सरनेम देख कर लगाया जाता है और फिर उस में 2 या 3 का गुणा कर दिया जाता है).

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