मेरा छोटा बेटा गुंजन जब डेढ़ साल का था, मेरे घर से सट कर मेरे जेठ का घर बन रहा था. वह घर के सामने खेल रहा था, मैं अपने जेठ की लड़की स्नेहा से बोली, ‘‘बाहर गुंजन खेल रहा है उसे ले आओ.’’ वह बाहर ही नहीं, बल्कि पड़ोस में भी खोज आई और बोली, ‘‘गुंजन तो कहीं नहीं है.’’ मैं बोली कि घर बन रहा है कहीं उस में तो नहीं है. और मैं भी चल पड़ी खोजने. 2 दिनों पहले ही उस का लैंटर खुला था, चारों तरफ पटरियां पड़ी थीं.
मैं जब आंगन में घुसी तो देखती क्या हूं कि गुंजन छत पर आंगन के किनारे की तरफ खड़ा है और दूसरा पैर आगे रखते ही वह नीचे गिर जाता. मेरी धड़कनें तेज हो गईं. मगर स्नेहा दौड़ कर बहुत ही स्फूर्ति से ऊपर चढ़ गई और पीछे से गुंजन को पकड़ लिया. मैं आज भी उस समय को सोचती हूं तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं.
- पूनम पांडेय
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पड़ोस में आर्थिक रूप से कमजोर एक विधवा स्त्री मेहनतमजदूरी से अपनी 3 जवान बेटियों का पालन कर रही थी. वह हर समय सभी की मदद करने को तैयार रहती तथा आएदिन थैला लिए कहीं जाती दिखाई देती. कोई नहीं जानता था कि वह कहां जाती है. एक दिन वह उसी तरह बैग लिए जाने लगी तो मैं ने पूछा, ‘‘दीदी, कहां जा रही हो? मैं भी आप के साथ चलूं?’’ उस के ‘हां’ कहने पर मैं उस के साथ गई तो वह मुझे एक अस्पताल में ले गई. वहां आंगन में कुछ महिलाएं बैठ उस की प्रतीक्षा कर रही थीं. वह सीधे उन्हीं के पास जा कर रुकी और थैला खोल कर किसी को जुराबें, किसी को पुराने सूट, किसी को स्कार्फ, मोजे व किताबें, फल आदि देने लगी. मैं हैरान थी.