बात उन दिनों की है जब मेरे एक सहकर्मी की तैनाती दुर्गापुर में हुई थी. त्योहार व छुट्टियों में अपने मांबाबा से मिलने के लिए वह सपरिवार कोलकाता आया करता था. एक बार लौटते समय ट्रेन पकड़ने की हड़बड़ी और गोद की बच्ची संभालने के चक्कर में उस की पत्नी ने अपना वैनिटी बैग टैक्सी में ही छोड़ दिया.

वैनिटी बैग की याद उन्हें तब आई जब ट्रेन में टीटीई ने टिकट देखना चाही. अब तो उन लोगों के शरीर में काटो तो खून नहीं. उस बैग में जरूरी चीजों के अलावा रेल का टिकट, 3 हजार रुपए नकद तथा कान के एक जोड़ी टौप्स थे. सारी बात उन्होंने टीटीई को बताई. किसी तरह पौकेट में पड़े पैसों से वे दुर्गापुर पहुंचे.

2 दिनों बाद कोलकाता से एक महिला का फोन उन के पास आया और उस ने बताया कि हावड़ा से टैक्सी पकड़ते समय टैक्सी में उसे वैनिटी बैग मिला था, जिस में पड़े विजिटिंग कार्ड से उन का टैलीफोन नंबर मिला.

उस महिला ने अपना नाम तथा पता बताया और कहा कि आप कोलकाता आएं, अपना वैनिटी बैग ले जाएं.

अगले शनिवार को जब वह उस महिला से मिला तो उस ने आवभगत भी की और वैनिटी बैग ज्यों का त्यों लौटा दिया. तब मेरे सहकर्मी का सिर कृतज्ञता से झुक गया.

राधेश्याम गुप्ता

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मैं व्यापार के सिलसिले में कोलकाता से इंदौर गया था. वहां से कोलकाता के लिए मुझे रात में ट्रेन पकड़नी थी. स्टेशन पहुंच कर मैं ने आटो वाले को भाड़ा दिया. मैं ने ट्रेन में चढ़ कर अपनी पैंट की पौकेट चैक की तो पाया कि मेरा मोबाइल नहीं था, शायद आटो में गिर गया था. ट्रेन चल पड़ी थी.

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