दिल्ली में चुनाव होने वाले थे. सभी पार्टियों वाले कालोनी में अपनीअपनी पार्टी का प्रचार करने आ रहे थे. भाजपा वाले भी आए. मैं और मेरे पति बाहर बालकनी में खड़े थे. उन लोगों ने हम से भी भाजपा को वोट देने को कहा और अपना हाथ हिलाया. अनायास मेरे मुख से धीरे से निकला, ‘‘करते हैं प्रचार भाजपा का, दर्शाते हैं हाथ कांगे्रस का.’’ पास खड़े मेरे पतिदेव मुसकरा दिए और बोले, ‘‘यह भी खूब रही.’’

अरुणा रस्तोगी, मोतियाखान (न.दि.)

*

एक बार मैं नई दिल्ली से भोपाल शताब्दी ऐक्सप्रैस ट्रेन से यात्रा कर रहा था. मेरी सीट एसी बोगी में विंडो की तरफ की थी. मैं जब अपनी सीट पर पहुंचा तो वहां अधेड़ उम्र के, सूटटाई पहने एक व्यक्ति पहले से बैठे थे.

मैं ने उन से कहा, ‘‘मैं अपनी सीट पर बैठ जाऊं,’’ उन्होंने मेरी ओर ऐसे देखा जैसे मैं ने कोई अनावश्यक प्रश्न कर दिया हो. फिर उन्होंने मुझ से इशारे से कहा, ‘‘यहां बैठ जाओ.’’

मैं बिना विवाद और कुछ बोले अपने मन में समझौता कर उन के पास वाली सीट पर बैठ गया. ट्रेन रवाना हो गई थी. अकसर ऐसा देखा गया है कि रेलयात्री रेल में अपने झूठे अहंकार के साथ यात्रा करते हैं. विशेषकर एसी कोच में वे सामान्य नहीं रहते. वे अखबार पढ़ने लगे. मेरे से रहा नहीं गया. मैं ने आग्रह किया, ‘‘आप की सीट के ऊपर जो सामान रखा है वह आप ने ठीक से नहीं रखा है. जरा उसे संभाल कर रख लें, वह गिर सकता है.’’ उन्होंने मेरी ओर, और फिर सामान की ओर देखा और हाथ हिला दिया. मतलब था, सब ठीक है. गाड़ी ने जैसे ही स्पीड पकड़ी, सामान उन महाशय के सिर पर गिर गया. अब उन महाशय की शक्ल देखने लायक थी.

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