आप को जान कर हैरानी होगी कि तेजी से बदलती सामाजिक आर्थिक स्थिति के फलस्वरूप बुजुर्ग बन रहे हैं बाजार की योजनाओं का महत्त्वपूर्ण हिस्सा. बुजुर्गों के खर्च करने की बेफिक्री कैसे बना रही है बुढ़ापे को कारोबार का हिस्सा, बता रही हैं मीरा राय.
सुश्री वी एम सिंह का जन्म आगरा में हुआ था. वे वहीं पलीबढ़ीं और तालीम हासिल की. नौकरी के सिलसिले में वे मेरठ आईं और मिशन कंपाउंड में एक शानदार मकान ले कर रहने लगीं. शादी उन्होंने की नहीं. बच्चों को पढ़ाने व कहानियां लिखने में उन के दिन गुजरने लगे. आखिरकार बतौर प्रधानाचार्य उन्होंने अवकाश ग्रहण किया. रिटायरमैंट के बाद भी उन्होंने अपने दोनों शौक जारी रखे.
अरसे से एक ही जगह रहते हुए वे महल्ले के लोगों के जीवन का हिस्सा बन गई हैं. इसलिए जब पिछले दिनों उन्होंने अपने मकान को बेच कर वृद्धाश्रम में जाने की बात कही तो सब को आश्चर्य हुआ. वे कहती हैं, ‘‘मैं 82 वर्ष की हो गई हूं. अब मुझ से अपना काम खुद नहीं होता. मैं चाहती हूं कि कोई मेरी देखभाल करे.’’
‘‘हां, मेरे पास अपनी भांजी के पास आस्ट्रेलिया जाने का विकल्प है. लेकिन सारी जिंदगी तो भारत में रही हूं. अब इस बुढ़ापे में अपनी जड़ें उखाड़ कर नए देश में फिर से जिंदगी शुरू करना मुश्किल काम है. वैसे भी अपरिचित माहौल की तनहाई में मैं जराजरा सी चीजों के लिए अपने रिश्तेदारों की मुहताज नहीं बनना चाहती. साथ ही, अब ऐसे वृद्धाश्रम खुल गए हैं जिन में तमाम आधुनिक सुविधाओं के साथ चहलकदमी के लिए हरेभरे बगीचे, यातायात की व्यवस्था और देखभाल के लिए डाक्टर व नर्स उपलब्ध हैं.’’