फोटो पत्रकारिता से फिल्म  निर्माता निर्देशक बने शैलेंद्र पांडेय ने अपनी फिल्म ‘‘जे डी’’ में पत्रकारिता की असल जगह और असल रंगों को पर्दे पर उतारा है. फिल्म अखबार की दुनिया की कहानी है. युवा कैसे आदर्शों और सपनों के साथ इस पेशे से जुड़ते हैं, मगर उन्हें अंततः हासिल क्या होता है? फिल्म की कहानी के केंद्र में हिंदी भाषी पत्रकार हैं, पर इसमें अंग्रेजी पत्रकारिता के अंदाज का तड़का भी है.

फिल्म में जेडी के दो अर्थ हैं पहला हैं नायक जय द्विवेदी उर्फ जेडी (ललित बिस्ट). दूसरा इस नायक द्वारा दिल्ली में निकाली गई पत्रिका जेडी यानी जर्नलिज्म डिफाइंड. फिल्म की कहानी लखनऊ से शुरू होती है, जहां जय द्विवेदी ‘प्रभात क्रांति’ नामक छोटे मगर लोगों में पैठ रखने वाले अखबार से अपना पत्रकारिता का करियर शुरू करता है. वह अमरीका से पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद अपने देश में काम करने का ख्वाब लिए लौटा है.

अच्छी शुरुआत के साथ वह तेजी से आगे बढ़ता है. मुख्यमंत्री बनने का सपना देख रहे विपक्षी नेता दिवाकर (गोविंद नामदेव) को अहसास होता है कि जय ने अपनी पत्रकारिता के बल पर सरकार की जितनी छीछालेदर छह माह में की है, उतना तो वह पिछले तीन साल में नहीं कर पाए. इसलिए  दिवाकर, जेडी को अपने साथ जोड़ लेते हैं. उसे हिंदी अखबर से हटाकर अंग्रेजी अखबार में नौकरी दिलवा देते हैं. अंग्रेजी में भी जेडी अपना जलवा कायम रखता है. इसी बीच उसे अहसास होता है कि अखबार का मालिक उसकी ईमानदारी और मेहनत को मूर्खता से अधिक कुछ नही मानता. वह तो केवल अपने फायदे के लिए जे डी का इस्तेमाल कर रहा है.

हताश जेडी, दिवाकर से बात करता है. इस बार दिवाकर चाल चलते हुए अपने इशारों पर काम करने वाली पत्रकार नूर (वेदिता प्रताप सिंह) के साथ जेडी को दिल्ली भेज उसे अपनी पत्रिका निकालने के लिए कहते हैं. फिर जेडी पूरी तरह से दिवाकर और नूर के हाथों की कठपुतली बनकर रह जाता है. यह दोनों सिर्फ अपने फायदे के लिए उसका इस्तेमाल करते हैं. यहां तक कि दिवाकर अपने प्रतिद्वंदी नेता सुदर्शन (अमर सिंह) को रास्ते से हटाने के लिए भी जेडी का उपयोग करते हैं. तभी एक ऐसी घटना घटती है, जिससे जेडी की आंखे खुलती हैं, पर तब तक काफी देर हो चुकी है. हालात ऐसे हो गए हैं कि अब जेडी को खत्म करने के लिए सुदर्शन और नूर एक हो चुके हैं. फिर कहानी में कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं.

फिल्म में पत्रकारिता मे आ रहे बदलाव पर करारी चोट की गयी है. समाचार पत्रों के दफ्तरों, दैनिक घटनाक्रम, पत्रकारिता का मिशन से दुकान बन जाना, पत्रकारों की आर्थिक स्थिति, स्वतंत्र पत्रकारों की हालत, भ्रष्ट संपादकों और मुनाफाखोर मालिकों की सोच सहित कई मुद्दों को फिल्म में पिरोया गया है. हिंदी में पत्रकारिता की दुनिया पर यह एक बोल्ड फिल्म मानी जा सकती है.

तमाम कमियों के बावजूद पत्रकार से फिल्मकार बने शैलेंद्र पांडेय के इस पहले प्रयास की सराहना की जानी चाहिए. कहानी और फिल्म का संपादन कसा हुआ है. गीत संगीत कर्णप्रिय है. फिल्म में कुछ नामचीन व प्रतिभाशाली अभिनेता होते तो शायद फिल्म ज्यादा बेहतर ढंग से निखर कर आती. विपक्षी नेता के किरदार में गोविंद नामदेव का अभिनय प्रभावित करता है. वेदिता प्रताप सिंह का अभिनय ठीक ठाक है. अदालती दृश्यों में अमन वर्मा अपनी छाप छोड़ जाते हैं. पोलीटीशियन अमर सिंह भी छोटी भूमिका में जमे हैं. ललित बिस्ट को अभी काफी मेहनत करने की जरुरत है.

इस फिल्म में 1993 मुंबई विस्फोटों के मामले में करीब एक दर्जन दोषियों को फांसी और अभिनेता संजय दत्त को अवैध हथियार रखने के मामले में छह साल कैद की सजा सुनाने वाले अवकाशप्राप्त न्यायाधीष पीडी कोडे ने जज का किरदार निभाया है.

शैलेन्द्र पांडेय और अंजू पांडेय निर्मित फिल्म ‘जे डी’ के निर्देशक शैलेंद्र पांडेय, पटकथा लेखक कुमार विजय व शैलेंद्र पांडेय, संगीतकार जान निसार लोन, गणेश पांडेय व मोंटी शर्मा तथा कलाकार हैं ललित बिष्ट, वेदिता प्रताप सिंह, गोविंद नामदेव, अमर सिंह, अमन वर्मा व अन्य.

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