फिल्मी माहौल में ही पले बढ़े विक्रम भट्ट बतौर निर्देशक 27 साल से कार्यरत हैं. ‘फरेब’, ‘कसूर’, ‘राज’,‘गुलाम’,‘फुटपाथ’,‘जुर्म’,‘1920’,‘राज थ्री डी’,‘लव गेम्स’,‘राज बूट’ सहित लगभग 40 फिल्में निर्देशित कर चुके हैं. बीच में एक वेब सीरीज में उन्होंने अभिनय भी किया. और अब बतौर निर्देशक हौरर फिल्म ‘‘घोस्ट’’ लेकर आ रहे हैं, जो कि 18 अक्टूबर को सिनेमाघरों में पहुंचेगी.

27 साल के आपके करियर के टर्निंग प्वाइंट क्या रहे?

बौलीवुड के किसी भी निर्देशक के मुकाबले मेरा करियर बतौर निर्देशक काफी अलग रहा. मेरे कैरियर में उतार-चढ़ाव भी बहुत रहे. मेरे कैरियर का टर्निंग प्वाइंट भी काफी अलग रहे हैं. मेरे पिता बहुत बड़े कैमरामैन थे. मैंने बतौर सहायक निर्देशक कैरियर की शुरुआत की थी. जब मैंने स्वतंत्र निर्देशक के रूप में अपने कैरियर की शुरुआत की, तो शुरुआत की मेरी चारों फिल्में सुपर फ्लौप रहीं. इसके बाद सफलता मिली. उसके बाद कुछ ऐसा हुआ कि मुझे कुछ समय के लिए बेकार बैठना पड़ा. मैंने अपने 27 साल के निर्देशन कैरियर में सीखा कि हमें हमेशा कुछ नया करना पड़ेगा. बदलते जमाने के बदलते लेखक या बदलते दर्शक या आज की युवा पीढ़ी चाहती है कि कुछ नया किया जाए. अब फिल्म ‘1920’ की युवा पीढ़ी तो है नहीं. बहुत कुछ बहुत तेजी से बदला है. जब से मोबाइल आया है, तब से तो कहानी में भी बहुत बदलाव आ गया है. जब फोन नहीं हुआ करते थे, कहानी में एक अलग दृष्टिकोण था. अब मोबाइल है.. फेसबुक है. ट्यूटर है. इंस्टाग्राम है. अब आपकी पहचान दो दुनिया में है. एक हमारी अपनी दुनिया और दूसरी इंटरनेट यानी कि सोशल मीडिया की दुनिया. वर्तमान समय में हम सभी लोग सोशल मीडिया में ही ज्यादा जीते हैं. तो अब इन चीजों को ध्यान में रखकर फिल्में बनानी पड़ती है. मैं अभी भी निर्देशन के क्षेत्र में जमा हुआ हूं. इसकी एकमात्र वजह यह है कि मैं युवा पीढ़ी की बहुत सुनता हूं. युवा पीढ़ी की बात पर गौर करता हूं. युवा पीढ़ी की जो विशेषताएं हैं, उन्हें समझने की कोशिश करता हूं.

आपने अपनी बेटी कृष्णा के साथ भी काम किया है?

जी हां! वह तो कृष्णा ही है. मैं तो कहता हूं कि भगवान है. लेकिन उसकी सोच बहुत अलग है. वह मुझसे बहुत बहस करती है. कभी-कभी मुझे लगता है कि नए लोगों को लेने का फायदा यही है कि हमें उनका नया प्वाइंट औफ व्यू मिलता है. नए लोगों को लेकर फिर अपनी चलाना गलत है. तो मेरी बेटी कृष्णा ने बहुत अलग फिल्म बनाई है.

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जब आपकी बेटी और और आपके बीच बहस होती है, उस वक्त आप अपने आप को कितना बेबस महसूस करते हैं ?

मैं तो उससे खुलकर कर बात करता हूं. मैंने उससे कह रखा है कि जहां मैं निर्देशक रहूंगा, वहां मेरी चलेगी, जहां आप निर्देशक हो, आपकी चलेगी. अच्छा काम करने के लिए हमने यह नियम बना रखा है. फिर भी गड़बड़ी हो जाती है. एक दिन मैंने यूं ही उसे कुछ सलाह दे दी. तो भड़क गई. सीधे कह दिया कि, ‘फिर आप ही निर्देशन कर लीजिए.’ मैंने उससे कहा कि यह क्या बदतमीजी है? इस पर उसने तपाक से जवाब दिया, ‘कोई बदतमीजी नहीं कर रही हूं. आपने ही नियम बनाया था कि जब मैं निर्देशक रहूंगी, तो मेरी ही चलेगी. आपने वादा किया था कि आप मुझे मेरी फिल्म बनाने दोगे.’ मैंने उससे कहा कि मैं सिर्फ सलाह दे रहा हूं, जो कि किसी को भी हक है. मैने यह नहीं कहा कि तुम्हें मेरी ही सुननी पड़ेगी,  तो उसने कहा कि, ‘आप तो पिता की तरह आदेश दे रहे हैं.’ अंत में मुझे अपनी बेटी से कहना पड़ा ठीक है, आज से मैं आपके सहायक की ही तरह रहूंगा.

आज की युवा पीढ़ी के साथ ऐसा ही है. आज की पीढ़ी रिश्तो को भी नहीं समझती, खुद अपनी मनमानी करना चाहती. वह दूसरों से दबना भी नहीं जानती. उनकी अपनी अलग आवाज है.

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आपकी नई फिल्म ‘‘घोस्ट’’ की कहानी की प्रेरणा कहां से मिली?

यह एक सत्य कथा से प्रेरित फिल्म है. वास्तव में1920, शापित, हंटेड, डैंजरस इश्क, क्रिएचार और 1921 जैसी हौरर फिल्म बनाने के बाद कुछ नया करने के लिए मैं रिसर्च कर रहा था. तभी मैंने एक खबर पढ़ी कि, 1981 में इंग्लैंड की अदालत में एक अजीबोगरीब मुकदमा आया था, जिसका नाम था ‘द डेविल इन द कोर्ट’. इस मुकदमे की वहां के अखबारों और मीडिया में बहुत चर्चा हुई थी. यह मुकदमा जौनसन पर चला था. जौनसन नामक एक इंसान ने अपने मकान मालिक को मार दिया था. अपने बचाव में जौनसन ने अदालत में कहा कि उस पर एक आत्मा का वश है. उसने मकान मालिक को नहीं मारा है. बल्कि उसके अंदर जो शैतान बस गया है, उस शैतान ने उसके हाथ से मकान मालिक को मरवाया है. अदालत में जज ने कहा कि बेवकूफी वाली बातें मत करो. कानून व न्याय हमेशा इंसानों पर लागू होता है,आत्माओं या भूत प्रेत पर लागू नहीं होता.इस पर अदालत में काफी बहस हुई.अंत में जज ने उसे सजा तो दी, मगर सिर्फ 5 साल की. जबकि हत्या की सजा तो उम्रकैद या फांसी होना चाहिए. जब मैंने यह केस पढ़ा, तो मुझे यह बहुत अनोखा केस लगा. मेरे दिमाग में भी सवाल आया कि यदि भूत किसी की हत्या कर देता है और उस हत्या के सिलसिले में आप फंस जाते हैं, तो आप अदालत में कैसे साबित करेंगे कि यह हत्या आपने नहीं, किसी भूत ने की है. यह बात अदालत में कैसे साबित करेंगे?  इतना सोचते ही मुझे यह कंसेप्ट बहुत रोचक लगा. मैंने सोचा कि अगर कानून और भूत प्रेत का आमना सामना हो जाए, तो इंसान क्या करेगा?  जज क्या करेगा? यह बहुत नया एंगल था. इसको लिखने और बनाने में बहुत मजा आया. यह बहुत ही अलग तरह की कहानी है.

 ‘गुलाम’  जैसी फिल्में निर्देशित करते करते आप हौरर फिल्में बनाने लगे?

एक वक्त था जब हर निर्देशक अलग-अलग तरह की फिल्में बनाता था और लोग उन फिल्मों को पसंद भी करते थे. पर अब समय का दौर बहुत बदल चुका है. अब हर कोई अपना ब्रांड बनाना चाहता है. अब सिर्फ ब्रांड ही बिक रहा है. बिना ब्रांड के गाड़ी,  जींस,  पैंट, शर्ट कुछ भी हो ब्रांड के बगैर नहीं बिक सकता. मैं आपको सत्तर व अस्सी के दशक में ले जाना चाहूंगा. फिल्म निर्देशक स्व. मनमोहन देसाई की अपनी एक अलग पहचान थी. उनकी हर फिल्म का अपना एक ब्रांड था. अब डेविड धवन साहब की बात करें,तो उनका कॉमेडी का अपना ब्रांड है.रोहित शेट्टी के सिनेमा का अपना एक अलग ब्रांड है. हर निर्देशक का अपना एक अलग ब्रांड है. कुछ लोग हंसाना पसंद करते हैं. कुछ लोग रुलाना पसंद करते हैं. ऐसे में मैंने सोचा कि क्यों ना मैं लोगों को डराउं. आप कह सकते हैं कि अब मैं लोगों को डराना पसंद करता हूं.

वैज्ञानिक उन्नति व मौडर्न युग में हौरर फिल्में ?

जब हम कहते हैं कि हमारे शरीर में आत्मा है, जो कि अजर अमर है. आत्मा की मृत्यु नहीं होती. इंसान की मृत्यु होने पर शरीर जलाया जाता है यानी कि इंसान की मृत्यु के बाद आत्मा मौजूद रहती है. यही तो गीता में भी लिखा है कि आत्मा अजर अमर है. तो फिर भूत प्रेत क्या है? आप मानते हैं कि शरीर और आत्मा है, तो फिर भूत प्रेत को ना मानना गलत है.

इस फिल्म के लिए आपने टीवी कलाकार सनाया ईरानी और नए अभिनेता शिवम भार्गव को ही क्यों चुना?

सनाया ईरानी बहुत अच्छी कलाकार हैं. फिल्म पूरी होने के बाद जब मैंने फिल्म देखी, तो मैंने पाया कि इस फिल्म के सिमरन सिंह के किरदार को सनाया से बेहतर कोई दूसरा कलाकार कर ही नहीं सकता था. शिवम भार्गव अच्छा लड़का है. अच्छा कलाकार है. देखिए, मेरा मानना है कि जब हम कोई नई कोशिश करने जा रहे हूं और उसके कलाकार नए हों, तो वह पूरी फिल्म नई लगती है.लेकिन सोच, कहानी नई हो, कंटेंट नया हो, मगर फिल्म में पुराने कलाकार हों, तो वह फिल्म पुरानी ही लगती है. आपको पता है कि मेरी फिल्म ‘‘घोस्ट’’ की कहानी बहुत अनोखी है. इसलिए मैंने नए कलाकारों को जोड़ा. मेरी राय में आज सिनेमा का जो दौर चल रहा है, उसमें स्टार कलाकार के होने ना होने के कोई मायने नहीं है. स्टार कलाकार होने से फिल्म कोई फर्क नहीं पड़ता. फिल्म के लिए अच्छी कहानी चाहिए, दर्शक अच्छी कहानी व अच्छा कंटेंट देखना चाहता है. अब फिल्में टीवी, सेटेलाइट चैनल से लेकर ओटीटी प्लेटफौर्म, अमेजान व नेटफ्लिक्स पर चार सप्ताह के बाद आ जाती हैं. इसके चलते दर्शक कहता है कि थिएटर में पैसे क्यों दिए जाएं? हम इस फिल्म को 5 सप्ताह बाद देख लेंगें. इसलिए यदि आपकी फिल्म में कुछ ऐसा होगा कि दर्शक सिनेमाघर तक दौड़ें, तभी वह आएगा. हम कहानी के नाम पर ही दर्शक को थिएटर में ला सकते हैं. कहानी बहुत अच्छी होनी चाहिए. जब दर्शक कहानी देखना चाहता है, तो फिर स्टार कलाकारों के पीछे भागने की बनिस्बत अच्छे बेहतरीन कलाकारों को लेकर फिल्म बनाई जा सकती है. सोशल मीडिया ने अब लोगों को नया स्टार बना दिया है. कई नए कलाकार फिल्म सीरियल और वेब सीरीज में महज इसलिए बुला कर काम पा रहे हैं, क्योंकि इंस्टाग्राम पर या सोशल मीडिया के किसी दूसरे प्लेटफार्म पर उनके फौलोअर्स की संख्या बहुत ज्यादा है.

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क्या आप मानते हैं कि सोशल मीडिया के यह जो स्टार हैं या कलाकारों के सोशल मीडिया पर जो फौलोअर्स हैं, उससे से बौक्स औफिस पर कोई असर होता है?

देखिए, मैं समझता हूं कि यह सारा खेल डिमांड और सप्लाई का है. हमारी फिल्म इंडस्ट्री में गिनती के दो चार स्टार हैं. या यूं कहें कि बड़े कलाकार हैं, जिनसे हर आम फिल्मकार की मुलाकात संभव नही है. अब देखिए, तीनों खान, सलमान शाहरुख और आमिर से तो हर निर्माता-निर्देशक मिल नहीं सकता. रितिक रोशन भी मिलने से रहे. अजय देवगन साल में बाहरी निर्माता की फिल्म करते हैं, बाकी अपने प्रोडक्शन हाउस की करते हैं. यही हाल अक्षय कुमार का है. जबकि हमारे यहां हर वर्ष कम से कम 200 फिल्में बनती हैं. तो सवाल है कि आखिर निर्माता क करे? निर्माताओं की संख्या इतनी ज्यादा हो गयी है कि, उन्हें देखकर घर पर खाली बैठा कलाकार अचानक अपनी कीमत जरूरत से ज्यादा बढ़ा देता है. मैं कहता हूं कि ‘यह हीरो बाई च्वाइस नहीं, बल्कि हीरो बाई नो च्वाइस हैं.’ अब ऐसे कलाकार के पास जब निर्माता पहुंचता है, तो यह कलाकार अपनी कीमत बढ़ा देता है. लेकिन असल में उसकी इतनी डिमांड नहीं है कि उसे इतने अधिक पैसे दिया जाए. आप उसे मार्केट से कहीं ज्यादा पैसा दे देते हैं, फिर उसकी फिल्म चलती नहीं है. तब आप उसको कोसते हैं, जो कि स्टार ही नहीं है. देखिए, उसने कब कहा था कि वह स्टार है. आप खुद उसके पास गए थे. फिर उसने जो कीमत मांगी, आपने दे दिया. इसमें उसकी कहां गलती? गलती ऊंची कीमत देने वाले की है. शुक्रवार को उसकी कीमत दो करोड़ की होती है, और आप उसे 5 करोड़ दे देते हैं. यह गलती निर्माता की है.ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि अभी भी तमाम लोग कहानी की कीमत नहीं समझ रहे हैं. लोग सोचते हैं कि उन्हें दो-तीन बड़े स्टार कलाकार मिल जाएंगे, तो उनकी फिल्म सफल हो जाएगी. वह कहानी पर ध्यान ही नहीं देते. लेकिन ऐसा नहीं है. यही वजह है कि पहले फिल्में 25 हफ्ते चलती थीं. अब सिर्फ तीन दिन का मामला होता है. लेकिन उसमें भी अब शुक्रवार को आने वाला दर्शक, शनिवार से आना बंद कर देता है. फिल्म को इतना नुकसान होता है कि उसकी भरपाई कहीं से नहीं हो पाती. अब तो बड़ी-बड़ी फिल्मों की भी वीकेंड की गारंटी नहीं है. आज की तारीख में एक ही चीज गारंटी देती है कि आप अच्छी व नई कहानी लेकर फिल्म बनाएं, तो नुकसान नहीं होगा. अच्छी और नई कहानी होगी, तो दर्शक सिनेमाघर में जरूर आएगा.

पिछले पांच छह वर्षों में कई स्टूडियो बंद हो गए. तो आपको लगता है कि इन स्टूडियो में भी वही गलती की. कहानी पर ध्यान नहीं दिया, कलाकार को उनकी औकात से कहीं ज्यादा पैसे थमा दिए?

देखिए,यह बजट में खेलने वाले लोग बहुत खतरनाक होते हैं.मेरे दादा जी कहते थे कि,‘बेटा इस बात का ध्यान रखना कि जब फिल्म रिलीज हो,तो निर्माता के घर पर फ्रिज आना चाहिए या फ्रिज नहीं आना चाहिए. मगर उसके घर में मौजूद फ्रिज बिकना नहीं चाहिए. लेकिन यहां हो यह रहा है कि फ्रिज तो छोड़िए, निर्माता की गाड़ी व घर तक बिक रहे हैं. एक वक्त था, जब इंडिविजुअल  निर्माता हुआ करते थे.वह अपने घर का या अपने दोस्तों से पैसा लेकर फिल्में बनाया करता था.मगर इन स्टूडियो के पास तो कारपोरेट व पब्लिक का पैसा है. यह बिना सोचे समझे कलाकार को ऊंची कीमत दे देते हैं और यह भूल जाते हैं कि साल के अंत में इन्हें भी अपनी बैलेंस सीट दिखानी पड़ेगी.फिर एक बार आप डूबने लगते हैं,तो फिर उबर पाना मुश्किल हो जाता है. जब आपकी चार फिल्में असफल हो चुकी होती है, आपको 400 करोड़ का नुकसान हो जाता है. उसके बाद यदि आपकी एक दो फिल्में सफल हो जाएं और आप 50 करोड़ कमा भी लें, तो चार सौ करोड़ का घाटा पूरा नहीं हो पाता.

अब स्टूडियो प्रोफेशनल तरीके से काम करते हुए कहानी के अलावा बाकी चीजों पर पैसा खर्च कर रहा है.एक लेखक को अभी भी अच्छे पैसे नहीं मिलते हैं. स्टूडियो सिस्टम के आने के बाद वैनिटी वैन, सिक्योरिटी, बाउंसर, वाकी टाकी, चार चार मानीटर आदि पाल रखे हैं. कलाकार के साथ मेकअप मैन भी होगा. हेअर ड्रेसर भी होगा. उनका असिस्टेंट भी होगा. पहले केवल एक अटेंडेंस होता था, अब अटेंडेंस का सहायक भी होने लगा है. मगर कहानी नहीं है. मेरा मानना है कि इन सारे चोचलों व शोबाजी पर हम कितना पैसा खर्च करते हैं, उसका कुछ हिस्सा अगर हम कहानी पर खर्च करना शुरू करें, तो हमारी फिल्में अच्छी बनेंगी. दर्शक ऐसी फिल्में देखना चाहेगा. लेखकों को अच्छे पैसे दिए जाएं, तो हमारी फिल्म इंडस्ट्री में बहुत बड़ा बदलाव आ जाएगा. यदि फिल्म इंडस्ट्री में बदलाव नहीं आया, तो हम डूब जाएंगे.

अब हमारे देश में कई तरह की फिल्में बनना बंद हो गई है. पारिवारिक व सामाजिक फिल्में बनती ही नहीं है. ‘घर एक मंदिर’जैसी फिल्म बने हुए जमाना हो गया. इंद्र कुमार ने एक फिल्म ‘बेटा’ बनाई थी, उसके बाद वह ‘ग्रैंड मस्ती’ जैसी फिल्में बना रहे हैं. जब टीवी शुरू हुआ, तो परिवार टीवी में चला गया था. अब टीवी के भी हालात बदतर हैं. सभी फिल्मकार सामाजिक व सांसारिक फिल्मों से दूर हो गए हैं. इतना ही नहीं सही मायने में देखा जाए, तो एक्शन फिल्में बनना बंद हो गई हैं. अब एक्शन फिल्में बनानी हो तो आपको ‘मिशन इंपासिबल’ या ‘अवेंजर्स’ का मुकाबला करना पड़ेगा. हाल यह है कि हम कुछ सेक्सी फिल्में बना रहे हैं. कुछ कौमेडी फिल्में बना रहे हैं. कुछ बायोपिक फिल्म बना रहे हैं. बायोपिक फिल्मों का एक नया दौर चल गया है. सच यह है कि हमारे देश में फिल्मों का जो जौनर हुआ करता था, वह धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है. अगर हम लेखकों को बढ़ावा नहीं देंगे, तो आने वाले दिनों में हम सभी कहानियों का सूखा जरूर महसूस करेंगे.

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इसके बाद की क्या योजना है?

फिल्म ‘‘घोस्ट’’ रिलीज होने के बाद मेरी बेटी कृष्णा की फिल्म ‘‘बदनाम’’ रिलीज होगी. उसके बाद मैं एक हुमा खान के साथ फिल्म बना रहा हूं, जो कि जनवरी में आएगी. वेब सीरीज का हमारा काम लगातार चल रहा है.

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