यह फिल्म पश्चिम बंगाल की कथित सच्ची घटनाओं पर आधारित है जबकि तृणमूल के लोगों का मानना है कि यह फिल्म नरेंद्र मोदी की एजेंडा फिल्म है. नरेंद्र मोदी धर्म के नाम पर वहां नफरत फैलाना चाहते हैं और दंगे कराना चाहते हैं. फिल्म के निर्देशक सनोज मिश्रा का कहना है कि फिल्म में ममता बनर्जी के खिलाफ कुछ भी नहीं है.
इस फिल्म के प्रदर्शन के बाद पश्चिम बंगाल में अच्छाखासा विवाद पैदा हो गया है. कहा जा रहा है कि फिल्म के जरिए पश्चिम बंगाल को बदनाम करने की कोशिश की जा रही है. हाल ही में कोलकाता की एक महिला डाक्टर के साथ रेप और फिर उस की हत्या से काफी बवाल मचा था. इस पर भाजपा ने खूब राजनीति भी की. रेप की घटनाओं पर अकसर राजनीति ही होती है, समाधान के नाम पर बस दोषी को कड़ी सजा की बात की जाती है.
इस फिल्म के निर्देशक का कहना है कि उसे पुलिस द्वारा फंसाया जा सकता है, इसीलिए वह शहर से गायब बताए जा रहे हैं. कोलकाता पुलिस ने फिल्म के निर्माता और निर्देशक के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की है. फिल्म पश्चिम बंगाल में रोहिंग्या और कट्टरपंथी बंगलादेशियों के आप्रवासन और बस्तियों और सांप्रदायिक गड़बड़ी की बात करती है.
असल में भाजपा कार्यकाल में एक समुदाय को निशाने पर लेने वाली फिल्में खूब बनने लगी हैं. इस फिल्म को भी नफरत फैलाने वाला बताया जा रहा है. एजेंडा फिल्में बनाने वाले निर्देशक अकसर गुमनामी में कहीं खो जाते हैं. ‘पीएम नरेंद्र मोदी’ बनाने वाले संदीप सिंह का आज कहीं अतापता नहीं. गडकरी की बायोपिक बनाने वाले आज गलियों की धूल फांक रहे हैं. ‘आदिपुरुष’ बनाने वाले ओम राउत आज अज्ञातवास में हैं.
फिर भी ऐसे निर्माता उग आते हैं. किसी ने इन सब को किसी जमात में बिठा कर सम झा दिया लगता है कि फलां टाइप की फिल्म बनाओगे तो मामला ‘सैट’ हो जाएगा. तंत्र में पूछपाछ होने लगेगी और ऐसा भी हो सकता है कि प्रधानमंत्री खुद प्रचार करने लगें.
इस फिल्म की कहानी विवादित है. जैसे कहानी में बताया गया है कि पिछले कई वर्षों से पश्चिम बंगाल के हालात नहीं सुधरे हैं. आज भी वहां पर रेप हो रहे हैं, हिंदुओं की हत्याएं ठीक उसी प्रकार से हो रही हैं जैसे बंगलादेश में हो रही हैं. तृणमूल कांग्रेस के लोग देसी बम चला कर लोगों को आतंकित कर रहे हैं. बाकायदा पुलिस को चढ़ावा चढ़ाया जाता है.
इस फिल्म की कहानी बंगलादेश में एक कट्टरपंथी संगठन द्वारा एक हिंदू परिवार को मार डालने से होती है. एक हिंदू विधवा सुहासिनी (अर्शिन मेहता) नरसंहार में अपने पति की हत्या के बाद बेसहारा और महिलाओं के एक समूह में शामिल हो जाती है. वह बंगलादेश से भाग कर पश्चिम बंगाल आ जाती है. बंगाल में सुहासिनी का साथ विशाल (यजुर मारवाह) नाम का एक युवक देता है, मगर यहां वह लवजिहाद का शिकार हो जाती है और उसे कठमुल्लाओं के हाथों यातनाएं झेलनी पड़ती हैं. कठमुल्ला उस की जबरन शादी एक मुसलमान से कराना चाहते हैं.
कहानी के क्लाइमैक्स में सुहासिनी का साथी विशाल जब उस से जबरदस्ती करना चाहता है तो वह उसे गोली मार देती है. अब सारे कट्टरपंथी उस के पीछे पड़ जाते हैं और उस का सिर धड़ से अलग कर देते हैं. फिल्म में कई ऐसी चीजें हैं जो ‘क्यों हुई, कैसे हुई’ इसे बताया नहीं गया है और दर्शकों पर छोड़ दिया गया है कि आप को ही मान लेना है कि ऐसा हुआ.
फिल्म की इस कहानी में हिंदूमुसलिम के उस घिसेपिटे एंगल को लिया गया है जिस का रायता पहले ही फैलाया जा चुका है और दर्शक इस जौनर को देख कर उकता चुके हैं. सुहासिनी तो यह सोच कर बंगाल आई थी कि वह हिंदू है और बंगाल में सुरक्षित रहेगी. मगर उस का यह सोचना गलत साबित हुआ.
जिस तरह एजेंडा के तहत हालफिलहाल केरल को ले कर फिल्म बनी और विवाद खड़ा किया गया, उसी तर्ज पर निर्देशक ने बंगाल के कथित विवादों पर फिल्म बनाने की कोशिश की. फिल्म में रोहिंग्या मुसलमानों के भारत आने, फर्जी पहचान पत्र हासिल करने से ले कर वोट न देने वालों के कत्ल करने तक का इशारा किया गया है.
मगर फिल्म की यह कहानी सिलसिलेवार नहीं है. ऐसा लगता है जैसे पनवाड़ी की दुकान पर कुछ व्हाट्सऐप का ज्ञान लिए गपोडि़ए बैठे और वहीं कहानी लिख डाली. न सिर है न पैर, छुट्टे सांड़ के सींग जैसे कहानी यहांवहां चलती रहती है, इसीलिए दर्शकों पर प्रभाव नहीं छोड़ पाती. निर्देशन औसत से भी नीचे दर्जे का है. नायिका अर्शिन मेहता की एक्ंिटग भी खराब है. यजुर मारवाह का काम तो बहुत ही खराब है. कट्टरपंथियों की एक्टिंग भी नाटकीय है. अन्य सहायक कलाकार कमजोर हैं. गीतसंगीत कमजोर है. ऐसा लगता है फिल्म चलतेफिरते निबटा दी गई है. निर्देशक और कलाकार निहायत नौसिखिया हैं. तकनीकी दृष्टि से भी फिल्म प्रभावित नहीं करती. सिनेमेटोग्राफी भी कुछ खास नहीं है.
वेदा
दलितों और कमजोर वर्ग के लोगों पर हमेशा से अत्याचार होते आए हैं. आज देश को आजाद हुए 77 साल बीत चुके हैं, आज भी यदाकदा दलित महिलाओं के साथ बलात्कार होने व उन्हें नंगा कर के गांव में घुमाने की खबरें सुनने को मिल जाती हैं. दलितों पर ये अत्याचार बाहुबलि किस्म के लोग करते हैं.
दलितों के अत्याचारों के पीछे हमारे धर्मग्रंथ हैं. धर्मग्रंथों में दलितों को पशुतुल्य बताया गया है- ‘ढोल, गंवार, शुद्र, पशु, नारी; ये सब हैं ताड़न के अधिकारी. अर्थात दलितों की पशुओं की तरह पिटाई की जानी चाहिए. दलितों को वेदवाक्य सुनने तक का अधिकार नहीं था. धर्मग्रंथों में कहा गया है कि दलित या शूद्र यदि गलती से भी वेदवाक्य सुन लेता है तो उस के कानों में पिघला सीसा डाल देना चाहिए.
दलितों की तरह ही मनुस्मृति में स्त्रियों को पाप की योनि कहा गया है. महाराज मनु ने तो स्त्रियों के घोड़े से संभोग कराने की बात तक कही है.
धर्मग्रंथों का यह प्रभाव मानव जीवन पर गहराई से पड़ा है. धर्मग्रंथों का अनुसरण कर के ही आज समाज में दलित स्त्रियों के साथ बलात्कार होते हैं. उन्हें नंगा कर घुमाया जाता है. उन्हें पेशाब तक पिलाया जाता है.
अभी हाल ही में कोलकाता के एक अस्पताल में एक जूनियर डाक्टर के साथ रेप होने और फिर उस की हत्या तक की बात सामने आई है. वह युवा डाक्टर महिला दलित तो नहीं थी, मगर उस की पारिवारिक स्थिति इतनी सशक्त नहीं थी कि वह अस्पताल के प्रिंसिपल और सीनियर डाक्टरों का मुकाबला कर पाती. ये सभी डाक्टर्स रसूखदार थे कि एक कमजोर महिला डाक्टर की हत्या तक कर डाली. यह भी धर्मग्रंथों का प्रभाव है कि महिलाओं को कमजोर सम झ कर उन का रेप कर दो या उन की हत्या कर दो.
फिल्म ‘वेदा’ भी राजस्थान के एक गांव में रहने वाली नीची जाति की एक महिला वेदा (शरवरी वाघ) की कहानी है. वह जिंदगी में आगे बढ़ने के सपने देखती है, मगर गांव के दबंग बारबार उसे दबाते हैं. गांव का प्रधान जितेंद्र प्रताप सिंह (अभिषेक बनर्जी) और उस का परिवार जातपांत के नाम पर गांव वालों पर जुल्म करता है.
वेदा की मुलाकात भारतीय सेना में मेजर रह चुके अभिमन्यु कंवर (जौन अब्राहम) से होती है. अपनी पत्नी राशि (तमन्ना भाटिया) को आतंकवादियों के हाथों खो चुका अभिमन्यु वेदा को सपोर्ट करता है. उधर वेदा का भाई एक ऊंची जाति की लड़की से प्रेम करता है तो गांव वाले वेदा के भाई की हत्या कर देते हैं. वेदा अंदर से टूट जाती है लेकिन अभिमन्यु का साथ मिलने पर वह गलत के खिलाफ जंग लड़ने का फैसला करती है. अन्याय के खिलाफ वेदा की इस लड़ाई में अभिमन्यु उस का साथ देता है और गांव में नीची जाति वालों पर अत्याचार करने वाले दबंगों का सफाया करता है.
दबंगों की दबंगई और दलितों पर होने वाले अत्याचार विश्व के हर समाज की कड़वी सचाई है. लगातार कुचले जा रहे किसी इंसान का दबंगों के खिलाफ सिर उठाना भी कभीकभी देखनेसुनने में आ जाता है, मगर इस फिल्म के साथ दिक्कत यह है कि इस में कोई नई बात नहीं कही गई है. यह एक बदला प्रधान फिल्म बन कर रह गई है. इस में कहीं भी नारीशक्ति वाली बात नहीं है जो दर्शकों में जोश भर सके.
फिल्म घिसेपिटे ट्रैक पर चलती है, घटनाओं को जबरन फैलाया गया है. इस फिल्म के मैसेज की बात की जाए तो यह कहती है कि संविधान सर्वोपरि है, जिस की शरण में आ कर कोई भी निर्भय हो सकता है, मगर देश में तो ‘निर्भया’ महिलाओं तक के रेप और हत्याएं हो रही हैं और गरीब इंसान संविधान तक अपनी आवाज ही नहीं पहुंचा पाता. फिल्म का मूल मकसद मारधाड़ को ही दिखाना है. फिल्म का क्लाइमैक्स दमदार नहीं है.
अभिनय की दृष्टि से शरवरी वाघ ने अच्छा काम किया है, जौन अब्राहम का काम अच्छा है. कैमरा वर्क अच्छा है. म्यूजिक कुछ खास नहीं है.
पड़ गए पंगे??
यह कौमेडी फिल्म 1999 में आई फिल्म ‘सरफरोश’ के एक गाने ‘जिंदगी मौत न बन जाए, संभालो यारो…’ से प्रेरित है. इस कौमेडी फिल्म में निर्देशक कौमेडी क्रिएट करने में पूरी तरह सफल नहीं हुआ है.
जिस प्रकार हौरर और कौमेडी का कौंबिनेशन फिल्म को हिट करा देता है जैसा कि ‘स्त्री-2’ में दिखाया गया है, उसी प्रकार कौमेडी और इमोशनल का कौंबिनेशन बनाना भी आसान नहीं है. निर्देशक संतोष कुमार ने इस फिल्म में इस कौंबिनेशन को दिखाने की कोशिश की है. पटकथा में हंसी के भरपूर मौके तो हैं मगर अधिकांश मौके चूक जाते हैं. राजेश शर्मा और राजपाल यादव की एंट्री के बाद दर्शकों को कुछ हंसने का मौका मिलता है.
फिल्म की कहानी शास्त्रीजी (राजेश शर्मा) पर केंद्रित है. जो एक रिटायर्ड शिक्षक है और स्टूडैंट्स को ट्यूशन पढ़ाता है. वह अपने बेटेबहू के साथ रहता है. उस का अपने पूर्व छात्र आयुष (समर्पण सिंह) के साथ दोस्ताना रिश्ता है. आयुष एक बैंक में काम करता है. शास्त्रीजी की जिंदगी में अचानक मोड़ तब आता है जब उन्हें पता चलता है कि उन्हें और आयुष दोनों को कैंसर है और लास्ट स्टेज में है.
असल में मैडिकल अफसर ने उन से झूठ कहा था, साथ ही इलाज के लिए 40 लाख रुपए खर्च होने की बात कही थी. हालात तब और खराब हो जाते हैं जब शास्त्रीजी प्रौपर्टी डीलरों के झांसे में आ जाते हैं. ये दोनों सुसाइड करने की कोशिश करते हैं. ये प्रौपर्टी डीलर अपराधी किस्म के हैं. लेकिन जब शास्त्रीजी को बाद में पता चलता है कि मैडिकल अफसर ने उन से झूठ बोला था तो उन के लिए और भी मुश्किल हो जाता है.
उधर आयुष ने बैंक से 50 लाख रुपए का लोन लिया है और लोन रिकवर करने वाले जबतब उसे धमकाने आ जाते हैं. क्लाइमैक्स में शास्त्रीजी अपने मकान का पैसा आयुष के बैंक अकाउंट में जमा करा देते हैं. आयुष के दोस्त और प्रेमिका भी बैंक अकाउंट में पैसे जमा करा देते हैं. सब से पूछताछ होती है कि इतनी बड़ी रकम कहां से जमा कराई तो सब अपनीअपनी परेशानियां बैंक वालों को बताते हैं. शास्त्रीजी भी उन्हें पैसे का सोर्स बताते हैं. बैंक वाले संतुष्ट हो जाते हैं. उन सब को जिंदगी में आए पंगों से छुटकारा मिल जाता है.
फिल्म की यह कहानी कुछ हद तक रोचक है, दर्शक बोर नहीं होते. फिल्म कई जगह सचेत भी करती है कि मैडिकल अफसर किस तरह लोगों से झूठ बोलते हैं. साथ ही, यह कर्जा देने वाले प्रौपर्टी डीलरों से भी सचेत करती है.
फिल्म यह बताती है कि जिंदगी से परेशान हो कर सुसाइड करना कोई हल नहीं है. फिल्म का बजट कम है. निर्देशन ठीकठाक है. गीतसंगीत पक्ष कमजोर है, सिनेमेटोग्राफी अच्छी है.
तिकड़म
यह पारिवारिक फिल्म बच्चों के साथ मातापिता को देखनी चाहिए. इस फिल्म को बच्चों और फैमिली को ध्यान में रख कर बनाया गया है. फिल्म दर्शकों को उन के बचपन में ले जाती है, दर्शकों को लगेगा कि काश, उन का बचपन लौट आता.
फिल्म पर्यावरण को बचाने की बात करती है. आज ग्लोबल वार्मिंग और प्रदूषण के चलते हमारे पर्यावरण में बहुत से बदलाव देखने को मिल रहे हैं. पहाड़ों पर बर्फ कम गिरने लगी है, नदियों, तालाबों में पानी का स्तर घट गया है. कहींकहीं तो बहुत अधिक बारिश होने लगी है, फलस्वरूप बाढ़ आने लगी है. फिल्म मातापिता और बच्चों की बौंडिंग की बात भी कहती है और परिवार की अहमियत को बताती है. जिन बच्चों के पिता अपने घर से दूर किसी दूसरे शहर में काम करते हैं, उन के दुखदर्द को साझा करती है. फिल्म बताती है कि कोई भी तिकड़म लगाइए लेकिन परिवार से दूर मत जाइए.
फिल्म एकदम सिंपल है और यही इस की खासीयत है. कोई लाउड सीन नहीं, कोई शोरशराबा नहीं, फिल्म अपनी गति से चलती है, दर्शक भी फिल्म के साथ बंधे से रहते हैं. फिल्म में लौजिक के साथ समझाया गया है कि पर्यावरण को कैसे बदला जाए. बच्चे भी इस काम में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं. फिल्म कहींकहीं दर्शकों की आंखों में आंसू ला देती है. फिल्म जियो सिनेमा पर स्ट्रीम हो रही है. इस के लिए न कोई ज्यादा प्रमोशन किया गया है, न होहल्ला मचाया गया है. ऐसी फिल्मों की तारीफ होनी चाहिए.
फिल्म की कहानी एक छोटे से हिल स्टेशन की है. इस गांव में प्रकाश (अमित सियाल) अपने बच्चों समय (अमिष्ट जैन) और चीनी (आरोही सऊद) और अपने मातापिता (नमन भट्ट और अजीत केलकर) के साथ रहता है. प्रकाश की पत्नी की मौत हो चुकी है, बच्चे दादादादी के साथ सुखी हैं. प्रकाश का परिवार एक सुखी परिवार है. प्रकाश एक छोटे से होटल में नौकरी करता है. हिल स्टेशन पर बर्फ कम गिरने की वजह से होटल में टूरिस्टों की आवाजाही कम हो चली है. होटल के बंद हो जाने नौबत आ चुकी है. प्रकाश भी और लोगों की तरह अपने गांव से बाहर शहर जा कर नौकरी करने का फैसला लेता है.
प्रकाश के दोनों बच्चे अपने पापा को गांव से दूर शहर नहीं जाने देने का फैसला करते हैं और ये बच्चे पर्यावरण को बचाने की योजना बनाते हैं ताकि हिल स्टेशन पर खूब बर्फ गिरे ताकि होटल को बंद न करना पड़े और उन के पापा को दूर शहर न जाना पड़े. वे अपने दोस्त भानु (दिव्यांश द्विवेदी) से कहते हैं कि वह उन के पापा को शहर जाने से रोकने में उन की मदद करे.
अब तीनों बच्चे पर्यावरण को बचाने में लग जाते हैं. ये बच्चे तिकड़म लगा कर प्लास्टिक को बैन कराते हैं. पेड़ों को काटने से औक्सीजन खत्म हो रही थी. पेड़ों को काटने से बचाते हैं. पानी को सेव करने की योजना बनाते हैं. एक तालाब की फट्टे से गहराई नापते हुए समय तालाब में गिर जाता है. प्रकाश आ कर उसे बचा लेता है.
दीवाली का त्योहार नजदीक है. बच्चे पटाखों पर बैन लगवाते हैं. तभी प्रकाश का टाइम शहर जाने का होता है. बच्चे उसे कहते हैं कि चिडि़या अपने बच्चों के लिए दाना लाने सुबह जाती है, शाम को वापस लौट आती है. बच्चों की बातें सुन कर प्रकाश का मन भी बदल जाता है. उधर हिल स्टेशन पर पारा गिरने लगता है और बर्फ गिरनी शुरू हो जाती है. होटल वालों का फोन आ जाता है कि होटल में टूरिस्ट आने लगे हैं. अब होटल बंद नहीं होगा. प्रकाश शहर जाने का खयाल छोड़ देता है. बच्चे पिता का फैसला सुन कर खुश होते हैं कि अब वे अपने पिता से दूर नहीं रहेंगे.
फिल्म की यह कहानी सीधीसीधी चलती है, कहीं कोई टर्न और ट्विस्ट नहीं, हां कई जगह इमोशनल सीन जरूर हैं. कहानी फैमिली के प्रति सैक्रिफाइस और बच्चों के पिता से बिछुड़ने का गम बयां करती है.
फिल्म का निर्देशन अच्छा है. फिल्म की लोकेशन काफी खूबसूरत है. इसे पहाड़ी इलाके में शूट किया गया है. फिल्म की सिनेमेटोग्राफी बढि़या है.