इस फिल्म का टाइटल पुरानी दिल्ली की एक मशहूर गली ‘परांठे वाली गली’ के नाम पर रखा गया है, मगर न तो इस में परांठों की खुशबू है न ही परांठों के साथ खाई जाने वाली सब्जी का टैस्ट.
‘परांठे वाली गली’ दर्शकों को थिएटर की दुनिया में ले जाती है. जी हां, वही थिएटर जिसे 30-40 साल पहले दर्शक ऐंजौय करते थे परंतु अब कोई थिएटर का रुख नहीं करता. इस फिल्म के निर्देशक सचिन गुप्ता ने कई थिएटर प्रोडक्शन किए हैं. यह उन की पहली फिल्म है. थिएटर पर आधारित उन की यह फिल्म दर्शकों को निराश ही करती है.
फिल्म को पुरानी दिल्ली की 2-4 लोकेशनों पर शूट किया गया है, बाकी पूरी फिल्म में दिल्ली से कुछ लेनादेना नहीं है. कहानी पुरानी दिल्ली में रहने वाली एक लड़की नैना (नेहा पंवार) और उस के परिवार की है. नैना परांठे बना कर दुकानदारों को सप्लाई करती है. वह हर वक्त चपरचपर बोलती रहती है.
एक दिन उस की मुलाकात मौलिक (अनुज सक्सेना) से होती है जो पास ही की गली की धर्मशाला में अपने दोस्तों के साथ मिल कर एक थिएटर कंपनी चलाता है. नैना उस के साथ थिएटर में काम करने की इच्छा जाहिर करती है. नैना की मां भी उस के साथ जुड़ जाती है. नैना मौलिक की सिफारिश सलूजा (विजयंत कोहली) से करती है मगर सलूजा ऐन मौके पर उसे धोखा दे जाता है. मौलिक टूट सा जाता है. नैना उसे हिम्मत बंधाती है और उसे थिएटर शुरू करने में मदद करती है. उस की मदद से मौलिक सफल हो जाता है.
निर्देशक ने फिल्म को काफी लाउड बनाया है. हर वक्त नैना ‘तैनूमैनू’ करती चिल्लाती रहती है. फिल्म में ‘बैंड बाजा बरात’ की तर्ज पर नैना की बहन की शादी पर बैंडबाजा खूब बजवाया गया है जिस में लोगों को खूब नाचते दिखाया गया है. यह सीन ठूंसा गया लगता है.
अनुज सक्सेना का चेहरा एकदम सपाट लगा है. अभिनय के मामले में वह फिसड्डी है. नेहा पंवार अनाकर्षक लगी है. फिल्म का गीतसंगीत औसत है. गानों में पंजाबी टच है. कैमरामैन ने पुरानी दिल्ली के दर्शन कराने में कंजूसी बरती है.