बाहुबली
हौलीवुड और बौलीवुड दोनों जगह फिल्मों की नई तकनीक के जरिए अविश्वसनीय, अंधविश्वासी, धर्मस्थापना, चमत्कारों में विश्वास जगाने वाली सामग्री बहुत ही कुशल तरीके से परोसी जा रही है. हैरी पौटर, लौर्ड औफ रिंग्स, मम्मीज आदि फिल्मों के जरिए हौलीवुड में और बाहुबली जैसी फिल्मों से हमारे यहां कंप्यूटर तकनीक के जरिए दिमाग में यह बैठाने की कोशिश हो रही है. चमत्कारी ईश्वर चाहे तो क्या नहीं हो सकता, नायक पहाड़ उठा सकता है, समुद्र पार कर सकता है, अनजान जंगलों में रास्ता खोज सकता है, आंधीतूफान ला सकता है. दर्शकों को भव्यता के नाम पर एक ऐसे काल्पनिक माहौल का गुलाम बनाया जा रहा है जो अतार्किक और असंभव है. सदियों से ऐसी बहुत सी कहानियां सुनीसुनाई जा रही हैं कि किसी राज्य में एक धूर्त सेनापति हुआ करता था जो राजा या रानी को मार कर या फिर जेल में डाल कर खुद शासक बन बैठता था और फिर वह प्रजा पर जुल्म करता था. लेकिन उसी राजा या रानी का बेटा बड़ा हो कर उस जुल्मी शासक का अंत करता था कोई भगवान या देवता उस का साथ देता था. ऐसी कहानियां सुनने में बहुत अच्छी लगती हैं. इसी तरह की 18वीं सदी की एक कहानी पर दक्षिण भारत की फिल्मों के निर्देशक एस एस राजमौली ने नई तकनीक से ‘बाहुबली’ फिल्म बनाई है, जिस का कैनवास काफी बड़ा है और मेकिंग इतनी बढि़या है कि दर्शक दम साधे फिल्म को देखते रह जाते हैं. पर अंत में दर्शक विवेकशून्य बने रह जाते हैं. तकनीकी दृष्टि से यह फिल्म हौलीवुड की फिल्मों को टक्कर देती प्रतीत होती है. पर विचारों की दृष्टि से यह फिल्म कहीं भी नहीं ठहरती क्योंकि हर दृश्य पुराना घिसापिटा है, हर घटना कितनी ही बार देखी गई है. पीरियोडिकल फिल्में बनाने वाला यह पहला निर्देशक नहीं है, इस से पहले दक्षिण भारत के ही सुपरस्टार रजनीकांत ने ‘कोचदयान’ जैसी पीरियोडिकल फिल्म बनाई थी.
‘बाहुबली’ को भारत की सब से महंगी फिल्म बताया जा रहा है. फिल्म में असंभव को दिखाने वाली कला है, शानदार झरने हैं, पौराणिक नगर हैं, सैनिक हैं, वैसी ही सैनिकों की पोशाकें और अस्त्रशस्त्र हैं, भव्य महल हैं. हां, इन सब में दर्शक खो से जाते हैं जैसे कंप्यूटर गेम्स में खोते हैं. फिल्म में ऐक्शन और स्टंट सीन गजब के हैं. नायक का ऊंचीऊंची चट्टानों से कूदने के दृश्य सिहरन पैदा करते हैं पर हैं वे बचकाने. फिल्म के स्पैशल इफैक्ट्स, ऐनिमेशन, प्राकृतिक सौंदर्य, एवलांच का सीन तारीफ के लायक हैं. ‘बाहुबली’ को तमिल और तेलुगू भाषा में बनाया गया है. हिंदी में इसे डब किया गया है जो खलती तो नहीं पर दिल को छूती भी नहीं है. इस फिल्म ने सफलता के रिकौर्ड तोड़ दिए हैं. ‘बाहुबली’ की कहानी शिवा (प्रभास) की है जो बचपन से ही अपनी मां से पौराणिक कहानियां सुन कर बड़ा हुआ है. उस के मातापिता उस के जन्मदाता नहीं हैं. उन्हें तो नदी में डूबते हुए नवजात शिशु मिला था जिसे पालपोस कर उन्होंने बड़ा किया था.
एक दिन शिवा को गांव के झरने से एक मुखौटा मिलता है. यह मुखौटा किस का है, यह जानने के लिए शिवा झरने के पार जाता है, जहां उस की मुलाकात अवंतिका (तमन्ना भाटिया) से होती है, जो एक वफादार योद्धा है. उस से शिवा को पता चलता है कि माहिष्मती राज्य की महारानी देवसेना (अनुष्का शेट्टी) को कू्रर शासक भल्लाल देव (राणा डुग्गूबाती) ने बंदी बना रखा है और उस का मकसद महारानी को आजाद कराना है. शिवा उसे मदद का आश्वासन देता है और अकेला कू्रर राजा भल्लालदेव से मुकाबला करने को चल पड़ता है. महल में शिवा का सामना सेनापति कटप्पा (सत्यराज) और भल्लाल के धूर्त पिता बजाला देव (नासर) से होता है. शिवा को देख कर राजा की प्रजा बाहुबलीबाहुबली के जयकारे लगाने लगती है. वह महारानी देवसेना को कैद से मुक्त कराता है. सेनापति कटप्पा उसे बताता है कि वह महाराज अमरेंद्र का बेटा है और कटप्पा ने ही षड्यंत्र रच कर उस के पिता को मार डाला था. फिल्म की यह कहानी अभी पूरी नहीं है. बाकी की कहानी फिल्म के पार्ट टू में देखने को मिलेगी जो संभवतया अगले साल देखने को मिलेगी. मध्यांतर से पहले फिल्म पात्रों का परिचय कराती हुई धीरेधीरे आगे बढ़ती है. मध्यांतर के बाद फिल्म गति पकड़ती है और कहानी फ्लैशबैक में चलती है. जिस में शिवा अपने पिता का रोल करता है, मध्यांतर के बाद का हिस्सा बहुत लंबा हो गया है. इसे छोटा किया जा सकता था. महाराजा अमरेंद्र सिंह और उस के चचेरे भाई भल्लाल द्वारा पड़ोसी आदिवासी राज्य से युद्ध करने वाले दृश्य बहुत लंबे हो गए हैं. इस हिस्से में फिल्म का पूरा कैनवास युद्ध का मैदान नजर आता है.
प्रभास ने पिता और पुत्र की दोहरी भूमिका निभाई है. दोनों ही भूमिकाओं में वह जमा है. तमन्ना भाटिया सुंदर लगी है और उस ने जम कर तलवारबाजी की है. उस ने चुस्ती और फुरती गजब की दिखाई है. फिल्म में महलों के सैट सुंदर लगाए गए हैं. ऐनिमेशन के द्वारा सांड की लड़ाई और हाथियों का इस्तेमाल अच्छा किया गया है. भल्लाल की भूमिका में राणा डुग्गूबाती ने अच्छी खलनायकी की है. फिल्म का निर्देशन बहुत अच्छा है. संवादों में डब किए गए संस्कृत शब्दों जैसे ‘जयघोष’, ‘प्रतिघात’, ‘अविरल’ का प्रयोग किया गया है वहीं उर्दू के शब्द, ‘इन लाशों को दफना दो’ भी सुनने को मिलते हैं. फिल्म का पार्श्व संगीत तो ठीक है परंतु गीत चलने वाले नहीं हैं. छायांकन बहुत अच्छा है. ऊंचाई से लिए गए युद्ध के दृश्य फिल्म की विशालता का आभास कराते हैं.
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गुड्डू रंगीला
फिल्म ‘शोले’ की जय और वीरू की जोड़ी आज भी याद की जाती है. फिल्म गुड्डू रंगीला में गुड्डू और रंगीला की जोड़ी ने दर्शकों को खूब हंसाया है. हालांकि इस जोड़ी का हंसाने का तरीका थोड़ा घटिया है. दोनों ने द्विअर्थी चुटकुले सुना कर और अबेतबे कह कर माहौल को रंगीन बनाए रखने की कोशिश की है, फिर भी यह जोड़ी जमी है. इस फिल्म के निर्देशक सुभाष कपूर को ‘फंस गए रे ओबामा’ और अरशद वारसी के साथ ‘जौली एलएलबी’ जैसी हलकीफुलकी कौमेडी वाली और समाज को हकीकत से रूबरू कराने वाली फिल्मों के बनाने के लिए जाना जाता है. निर्देशक ने खाप और औनर किलिंग को बैकग्राउंड में रख कर एक चटपटी, मसालेदार फिल्म बनाई है, जिस में न सिर्फ खाप के नाम पर प्रेमियों को कत्ल करने वाला दबंग नेता है, बल्कि रिश्वतखोर पुलिस भी है, साधुओं के भेष में डकैत हैं. पुजारी मुखबरी करा कर लोगों के घर में डकैती कराता है. साधु और उस के चेले शराब पीते हैं और लोगों को जान से मारने में भी गुरेज नहीं करते. निर्देशक ने सांकेतिक रूप से कई बातों का समावेश किया है. हरियाणा के एक गांव में रहने वाले गुड्डू (अमित साध) और रंगीला (अरशद वारसी) चचेरे भाई हैं. दोनों एक लोकल और्केस्ट्रा ग्रुप चलाते हैं, जो माता के जागरण से ले कर नंबरदार के बेटे को केन्या का वीजा मिलने के सैलिब्रेशन पर गातेबजाते हैं. और्केस्ट्रा पार्टी चलाने के अलावा दोनों डकैत गिरोहों के लिए मुखबरी भी करते हैं. रंगीला पिछले कई सालों से लोकल एमएलए और खाप पंचायत के लीडर बिल्लू पहलवान (रोनित राय) के खिलाफ मुकदमा लड़ रहा है. रंगीला ने कुछ साल पहले गांव में प्रेमविवाह किया था तो बिल्लू ने उस के चाचा को जिंदा जला दिया था और उस की पत्नी बबली की हत्या कर दी थी. उस वक्त बिल्लू बच कर भाग गया था.
इस बीच, गांव में ट्रांसफर हो कर आया नया पुलिस इंस्पैक्टर उन्हें जेल में डाल देने की धमकी दे कर 10 लाख रुपए की डिमांड करता है. एक बंगाली मुखबिर (दिव्येंदु भट्टाचार्य) उन्हें 10 लाख रुपए जल्दी कमाने का प्लान बताता है. इस के लिए उन दोनों को बेबी (अदिति राव हैदरी) का अपहरण करना है. दोनों बेबी का अपहरण करते हैं. तभी उन्हें पता चलता है कि बेबी तो बिल्लू पहलवान की साली है. अब बिल्लू पहलवान से बदला लेने का मौका है, यह जान कर वे दोनों उस से भिड़ जाते हैं. तभी रंगीला को पता चलता है कि उस की बीवी मरी नहीं थी, जिंदा है. वह गुड्डू के साथ मिल कर बिल्लू पहलवान को मौत के घाट उतार देता है. मध्यांतर से पहले का भाग बांधे रखता है लेकिन मध्यांतर से बाद वाला हिस्सा खींचा गया लगता है. इस भाग में कहानी सिर्फ बदले की हो कर रह जाती है. फिल्म का क्लाइमैक्स 80-90 के दशक की मसाला फिल्मों जैसा है. बिल्लू पहलवान की भूमिका में रोनित राय पूरी फिल्म में छाया हुआ है. उस का खौफ जबरदस्त है. दिव्येंदु भट्टाचार्य ने फिल्म में ह्यूमर का टच दिया है. अदिति राव हैदरी साधारण है. उस के करने लायक कुछ था ही नहीं. गीतसंगीत साधारण है. ‘कल रात माता का मुझे ईमेल आया है, माता ने मुझे फेसबुक पर बुलाया है…’ गाना सुन कर हंसी आती है. छायांकन बढि़या है.
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बेजबान इश्क
प्रेम के त्रिकोण पर बनी फिल्म ‘बेजबान इश्क’ काफी बोझिल है. इश्क में गरमाहट की कमी खलती है. फिल्म में इतनी ज्यादा सादगी है कि दर्शक इस बेजबान इश्क को एंजौय नहीं कर पाते. आधी से ज्यादा फिल्म राजस्थान में शूट की गई है और लगता है जैसे निर्देशक राजस्थान पर्यटन विभाग का प्रचार कर रहा है. फिल्म की कहानी 3 दोस्तों की है. मनसुख पटेल (सचिन खेडेकर) लंदन में बिजनैस करता है. उस का भाई रश्मिकांत (दर्शन जरीवाला) मुंबई में रहता है. सुहानी (मुग्धा गोडसे) रश्मिकांत की बेटी है. वह पर्सनैलिटी डिसऔर्डर की शिकार है. वह जराजरा सी बात पर घर में तोड़फोड़ करती है. विपुल (मुनि झा) रश्मिकांत का बचपन का दोस्त है. स्वागत (निशांत) उस का बेटा है. रश्मिकांत अपनी बेटी की सगाई विपुल के बेटे के साथ करना चाहता है. इस मौके पर रश्मिकांत का भाई मनसुख पटेल अपनी बेटी रुमझुम (स्नेहा उल्लाल) के साथ मुंबई आता है. रुमझुम की सादगी और सुंदरता पर स्वागत फिदा हो जाता है. दोनों मन ही मन एकदूसरे को चाहने लगते हैं. उन दोनों के इश्क की भनक सुहानी को लग जाती है. वह बहुत पजैसिव है. स्वागत के साथ उस की मंगनी हो चुकी है. चाह कर भी वह खुद को रोक नहीं पाती और स्वागत व रुमझुम के रास्ते से हटने का फैसला कर लेती है. वह दोनों को मिलाने के लिए एक पत्र लिख कर सुसाइड कर लेती है.
फिल्म की यह कहानी बहुत ही धीमी है. कहानी एक तरफ प्यार में अपनी जान कुरबान करने की है तो वहीं मन ही मन अपने प्रेमी को टूट कर चाहने की भी है. सुहानी की भूमिका में मुग्धा गोडसे को जहां एग्रैसिव दिखाया गया है वहीं रुमझुम की भूमिका में स्नेहा उल्लाल को गंभीर और कैची पर्सनैलिटी वाला दिखाया गया है. स्वागत की भूमिका में निशांत 2 पाटों के बीच पिसा नजर आता है. चाहता तो वह रुमझुम को है परंतु सुहानी के पर्सनैलिटी डिसऔर्डर की वजह से अपने बेजबान इश्क को जाहिर नहीं होने देता. निर्देशक ने उस के अंतर्द्वंद्व को दिखाया है. फिल्म का निर्देशन बहुत ज्यादा बढि़या तो नहीं है, चलताऊ है. निर्देशक ने थोड़ाबहुत अच्छा गीतसंगीत दे कर फिल्म को चमकाने की कोशिश की है. अभिनय की दृष्टि से स्नेहा उल्लाल को छोड़ कर कोई कलाकार प्रभावित नहीं करता. स्नेहा की 2-3 फिल्में आ चुकी हैं. उस के अभिनय में अब परिपक्वता आ गई है. छायांकन अच्छा है.