रेटिंग: ढाई स्टार
निर्माताः भूषण कुमार, किषन कमार, सविताराज हीरामठ,राज हीरामठ, मीनू अरोड़ा, संदीप सिंह, नागराज पोपटराव मंजुले
लेखक व निर्देशक: नागराज पोपटराव मंजुले
कलाकार: अमिताभ बच्चन, छाया कदम, अंकुश गेदम, प्रियांषु क्षत्रिय, अलेन पैट्कि, रिषभ बोधले, निखिन गनवीर,रिंकू राजगुरू, आकाश थोसर व अन्य
अवधिः लगभग तीन घंटे
फिल्म ‘‘सैराट’’ फेम मशहूर मराठी भाषी फिल्मकार नागराज पोपटराव मंजुले यानी कि नागराज मंजुले अपने एक तयशुदा ढर्रे का सिनेमा बनाते आ रहे हैं. नागराज मंजुले को कैरियर की पहली लघु फिल्म ‘‘पिस्तुल्या’ के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था.नागराज मंजुले को फिल्में बनाते हुए बारह वर्ष हो गए, मगर वह एक ही ढर्रे की फिल्में बना रहे हैं. मराठी भाषा में ‘फैंडी’, ‘बाजी’,‘हाइवे’,‘सैराट’लघु फिल्म ‘‘पावसाचा निबंध’ के बाद नागराज मंजुले अब हिंदी भाषा की फिल्म ‘‘झुंड’’ लेकर आए हैं. ‘‘झुंड’’ का मतलब होता है जमावड़ा.फिल्म में झोपरपट्टी में रहने वाले तथा ड्ग्स व अन्य आपराधिक गतिविधियों में लिप्त युवा पीढ़ी के इर्द गिर्द घूमती है.
फिल्म ‘‘झुंड’’ नागपुर के ही खेल शिक्षक और ‘स्लम सोसर’ नामक एनजीओ के संस्थापक विजय बारसे पर बायोपिक स्पोर्ट्स फिल्म है.नागपुर में ‘स्लम सोसर’ एनजीओ झोपरपट्टी में रहने वाले बच्चों के जीवन स्तर को उंचा उठाने व उन्हे आपराध्किा गतिविधियो की बजाय खेल की तरफ मुड़ने के लिए प्रोत्साहित करने का काम करती है.
कहानीः
फिल्म की कहानी नागपुर शाहर के इर्द गिर्द घूमती है. शहर में एक अंग्रेजी माध्यम के बड़े कालजे में खेल शिक्षक के रूप में कार्यरत विजय बोराड़े अपने रिटायरमेंट से कुछ दिन पहले अपने कालेज व घर के बीच पड़ने वाली दलित झुग्गी झोपड़ी के बच्चों को शराब व ड्रग्स बेचते, बगल से गुजरती कोयले की ट्रेन पर कोयला चुराते ,आपस में मार पीट करते देखते हैं.एक दिन बारिश के वक्त उन्ही बच्चों को एक खाली टीन के डिब्बे को पैर से एक दूसरे के पास फेंकते देखकर प्रोफेसर विजय बोराड़े के दिमगा में ख्याल आता है और दूसरे दिन वह उसी -हजयुग्गी बस्ती में फुटबाल लेकर पहुंचते हैं और बच्चों को इस गेंद से आधा घंटा खेलने पर पांच सौ रूपए देने का लालच देते हैं.पांच सौ रूपए के लिए बच्चे राजी हो जाते हैं.फिर प्रोफेसर हर दिन शाम को गेंद लेकर वहां पहुंचने लगे और बच्चों को फुटबाल खेलने के बाद पांच सौ रूपए देने लगे.जब बच्चों की इसकी आदत पड़ गयी,तो पांच सौ रूपए देने से इंकार करते हुए फुटबाल खेलने के लिए गेंद भी नहीं देते.तब बच्चे बिना पैसा लिए फुटबाल खेलना चाहते हैं.अब प्रोफेसर विजय बोराड़े उन बच्चां को एक टीम की तरह फुटबाल खेलना सिखाते हैं.फिर उन बच्चों का कालेज में प-सजय़ रहे बच्चों की फुटबाल टीम के साथ मैच कराते हैं, जिसमें झुग्गी के बच्चो की टीम जीत हासिल करती है.फिर राष्ट्रीय स्तर पर झोपड़पट्टी में रहने वालों का फुटबाल मैच होता है.इसके बाद इस टीम को विदेश में मैच खेलने के लिए निमंत्रण मिलता है.मगर अहम सवाल यह है कि क्या समाज हाशिए पर पड़े इन बच्चों को अपने बीच जगह देता है? इसका जवाब तो फिल्म देखने पर ही मिलेगा.
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लेखन व निर्देशनः
04 मार्च को ओटीटी की बजाय सिनेमाघरो में प्रदर्शित तीन घंटे की अवधि वाली यह फिल्म बोझिल है.बौलीवुड के महानायक कहे जाने वाले अभिनेता अमिताभ बच्चन के कंधे पर इस फिल्म को बाक्स आफिस पर सफल बनाने का बहुत बड़ा बोझ है,जिसमें उन्हे कामयाबी मिलेगी,ऐसी उम्मीद कम है.वास्तव में तीन घंटे की लंबी फिल्म बनाते हुए फिल्म सर्जक नागराज मंजुले यह तय नहीं कर पाए कि वह अमिताभ बच्चन के किरदार विजय बोराड़े को नायक के तौर पर पेश करें अथवा बच्चों के कठिन जीवन की त्रासदी पर अपना ध्यान केंद्रित करे.परिणामतः फिल्म में तमाम कमियां हैं और यह फिल्म उपेक्षित समाज को हाशिए से बाहर निकालने में असफल रहती है.
नागराज मंजुले ने अपनी पिछली दो फिल्में ‘फैंडी’ और ‘सैराट’ में जाति विभाजन और अमानवीय सामाजिक रीतिरिवाजों पर कठोर बात की थी.फिल्म झुंड’ में वह काफी डरे व सहमें से नजर आते हैं.‘फैंडी’ और ‘सैराट’ में जिस तरह से प्रखरता व मुखरता से बातें की थी,उतनी मुखरता के साथ वह ‘झुंज’ में नजर नही आते.क्या हिंदी फिल्मकार के रूप में खुद को स्थापित करने के दबाव के चलते उन्होने अपने आपको दबाया? अथवा वह मुख्य किरदार में अमिताभ बच्चन जैसे कलाकार को लेने के बाद उनके ‘औरा’ के तले दबकर रह गए..?? इसका सही जवाब तो वही जानते होंगे? मगर दोनो ही स्थिति में यह फिल्मकार की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी है. इस कमजोर कड़ी के ही चलते वह फिल्म के मूल मकसद से भटक गए. फिल्म में एक जगह जय भीम के नारे व बाबा साहेब आंबेडकर के पोस्टर व मूर्ति के बीच संगीत की धुन पर कुछ देर लोग थिरकते नजर आए हैं.इससे यह साफ हो जाता है कि इस झुगी बस्ती के पात्र दलित हैं.पर इससे अधिक इस फिल्म में उपेक्षित समाज के बच्चों या उनके अपराधी बनने पर कुछ खास नही कहा गया है.
नागराज पोपटराव मंजुले की इस बात के लिए तारीफ की जा सकती है कि उन्होंने दलित समाज के भटके हुए व वंचित बच्चों को अपनी फिल्म में मुख्यधारा में लाने का प्रयास किया है. यूं तो इस फिल्म में भी फिल्मकार नागराज मंजुले ने अपनी शैली के अनुरूप इस बात को रेखांकित किया है कि दलित समाज व झुग्गी झोपड़पट्टी में रहने वालों के साथ दूसरे लोग व आर्थिक रूप से संपन्न लोग किस तरह का व्यवहार करते हैं.मगर सब कुछ बहुत सतही रहा. फिल्म के लिए मंजुले ने खुद ही कलाकारों का चयन करते हुए विजय बोराड़े से इतर किरदारों के लिए बौलीवुड कलाकारों से दूरी बनाकर सही कदम उठाया. इन मराठी भाषा कलाकारों की मौजूदगी ने जरुर नागराज मंजुले की मदद की. फिल्मकार ने कहानी में पॉश कालेज के बगल में ही दलित झुग्गी बस्ती को बसाकर काफी कुछ कह दिया है. ‘झुंड’ उत्थान की ऐसी कथा,जिसे कहा जाना अनिवार्य है. मगर नागराज पोपटराव मंजुले अपनी प्रखरता को बरकरार रखते हुए पटकथा पर ध्यान देते,तो यह फिल्म बेहतर बन सकती थी.
वैसे यह फिल्म यह गंदगी से परे देखने का आग्रह करने के साथ एकजुट रहने की अपील करती है.फिल्म इस बात की ओर भी इशारा करती है कि हर इंसान को चाहिए कि वह दूसरे इंसान को उसके काले रंग,जाति,पंथ आदि से परे जाकर स्वीकार करे.
फिल्म काफी लंबी है.इसे कम से कम चालिस मिनट काटकर बनाया जा सकता था. इंटरवल से पहले के मुकाबले इंटरवल के बाद का हिस्सा काफी कमजोर हैं. इंटरवल से पहले बच्चों को फुटबाल का प्रषिक्षण देने के दृष्य को जल्दबाजी में निपटाया गया है.इंटरवल के बाद बच्चों के पासपोर्ट बनाने के सारे दृश्य बेवजह खींचे गए हैं.कोर्ट दृश्य काफी कमजोर है.
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अभिनयः
जहां तक अभिनय का सवाल है तो प्रोफेसर विजय बोराड़े के किरदार में अमिताभ बच्चन ने काफी सधा हुआ अभिनय किया है.उनकी पत्नी के किरदार में छाया कदम के लिए करने को कुछ खास रहा ही नही. अंकुश मेश्राम के किरदार में अभिनेता अंकुष गेदम ने काफी बेहतरीन अभिनय किया है.वह अपनी अभिनय शैली व भाव भंगिमा से दर्शकों को अपनी तरफ आकर्षित करने में सफल रहे हैं.रिंकू राजगुरू ने कैमियो में अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है. अन्य कलाकार ठीक ठाक रहे.