रेटिंग : दो स्टार
निर्माताः गौरव गुप्ता
निर्देशकः जुगल राजा
कलाकारः अभिजीत सिंह, अरिंधिता कालिता, अरनव तिमसीनिया, देव रोंसा और बेबी यशवी वारिया
अवधिः एक घंटा 38 मिनट
फिल्मकार जुगल राज अपनी फिल्म ‘‘बंकर’’ देश की सुरक्षा के लिए सीमा पर तैनात सशस्त्र सैनिकों पर केंद्रित है. हर सैनिक अपनी भावनाओं पर लगाम लगाकर युद्ध के मैदान पर डटा रहता है. जबकि उसके पास कहने को बहुत कुछ होता है. जुगल राज का मकसद लाखों सैनिकों की अनसुनी कहानियों को जन जन तक पहुंचाना है. वह अपनी इस फिल्म को ‘‘युद्ध विरोधी @एंटी वार फिल्म के रूप में प्रचारित करते आए हैं, मगर फिल्म में काफी विरोधाभास है.
कहानीः
फिल्म की कहानी पुंछ (कश्मीर) पर भारतीय सेना की बटालियन नंबर 42 के बंकर पर रात के अंधेरे में घुसपैठियों @आतंकवादियों द्वारा युद्धविराम समझौते का उल्लंघन कर हमला किया जाता है और इनका मकसद इस बंकर पर कब्जा करना है. इस हमले का मुंह तोड़ जवाब देते हुए सुबेदार सुखराम (अरनव तिमसिना) व एक अन्य सैनिक शहीद हो जाता है. जबकि लेफ्टिनेंट विक्रम सिंह (अभिजीत सिंह) अकेले जीवित बचते हैं, मगर वह गंभीर रूप से घायल हैं. एक पैर बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गया है. वह दोनों आंखों से देख नहीं पा रहे हैं तथा उनके पैर में एक जीवित शेल से बंधा हुआ है. वह अपने दिल, आत्मा और पराक्रम से लड़ते हैं. एक तरफ वह अपने तरीके से जावेद नामक एक आतंकवादी के बंकर के अंदर घुसने पर उसे मौत की नींद सुला देते हैं, तो दूसरी तरफ वह बार बार अपने उच्च अधिकारियों से फोन पर सैन्य मदद मांगते रहते है. सैन्य मदद निकली है, मगर वह आतंकवादियों का मुकाबला करते हुए धीरे धीरे आगे बढ़ रही है. बीच बीच में विक्रम सिंह को अपनी पत्नी स्वरा सिंह (अरिंधिता कलीता) व चार साल की बेटी गुड़िया की याद आती है. उनसे हुई पिछली बातें याद आती हैं. वह अपनी पत्नी व बेटी से आठ माह से नहीं मिले हैं.
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लेखन व निर्देशनः
फिल्म की गति अति धीमी है और ऐसा लगता है कि फिल्मकार ने एक नेक विचार के साथ फिल्म बना डाली, मगर उसको ठीक से प्रस्तुत करने के लिए आवश्यक शोधकार्य कर एक रोचक विस्तृत कहानी नहीं जुटा पाए. फिल्मकार युद्ध की निरर्थकता को सामने लाने का दावा करते हैं, मगर यह पूरी फिल्म आतंकवादियों से मुठभेड़ और इस मुठभेड़ में कई सैनिकों के मारे जाने की कहानी है. फिल्म में युद्धग्रस्त क्षेत्र के नतीजों पर चर्चा करने के लिए कभी नहीं मिलते हैं. दूसरी बात फिल्मकार का मकसद शत्रुतापूर्ण माहौल में सीमा पर डटे रहने वाले सैनिकों के मानसिक स्वास्थ्य व भावनात्मक स्थितियों को उजागर करना है, मगर फिल्म इस तरफ दर्शकों का ध्यान खींचने में असफल रहती है. बहादुर सैनिकों के परिवारों को अपने प्रियजनों को खोने का दर्द व सीमा पर तैनाती के समय कई माह तक न मिल पाने के दर्द व अन्य मानवीय भावनाओं व संवेदनाओं को भी यह फिल्म सही अंदाज में उकेरने में विफल रहती है. इतना ही नही लेफ्टीनेट विक्रम सिंह के चेहरे पर इतना खून वगैरह जमा हुआ लगातार दिखाया गया है कि दर्शक उससे अपना मुंह फेर लेता है. पटकथा काफी कमजोर है.
अभिनयः
लेफ्टीनेंट विक्रम सिंह के किरदार अभिजीत सिंह ने बहुत ज्यादा प्रभावित करने वाला अभिनय नहीं किया है. वह किरदार की तीव्रता और उस स्थिति की भयावहता के साथ न्याय नहीं कर पाए. अन्य कलाकारों के चरित्र ठीक से उभरे ही नहीं.
फिल्म में रेखा भारद्वाज द्वारा स्वरबद्ध गीत ‘लौट के घर जाना है’’ जरुर दिल को छू लेता है.