सत्रहवीं लोकसभा में सरकार के सामने आधिकारिक रूप से विपक्ष का नेता नहीं होगा. एनडीए ने लोकसभा की कुल 353 सीटों पर कब्जा किया, वहीं कांग्रेस की अगुआई वाला यूपीए 92 सीटों पर सिमट कर रह गया. कांग्रेस को काफी खींचतान के बाद महज 52 सीटों पर सफलता मिली है. ऐसे में भारतीय राजनीति में विपक्ष का संकट गहरा है. सदन में सरकार के सामने कई विपक्षी पार्टियां होंगी, लेकिन विपक्ष का नेतृत्व कौन करेगा? विपक्ष का नेता कौन होगा?

आधिकारिक तौर पर उस पार्टी को विपक्ष का नेता बनाने का मौका मिलता है जिसके पास कम से कम 10 फीसदी सीटें हों. यानी 543 सीटों वाले लोकसभा में विपक्ष का नेता उस पार्टी का होगा, जिसके पास कम से कम 55 सीट हों, मगर कांग्रेस तो इस आंकड़े को छू पाने में असफल रही है. उसके पास मात्र 52 सांसद हैं. बिना विपक्ष के तो सरकार बेलगाम होगी. बड़ा सवाल यह कि ऐसे में भारतीय लोकतंत्र किस ओर जाएगा?

शक्ति सत्ता का स्वभाव होती है. अगर इस स्वभाव से जवाबदेही और आलोचना हट जाएं तो यह स्वभाव तानाशाह बन जाता है. किसी भी लोकतंत्र की सफलता  के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि उसमें कड़ी आलोचना और जवाबदेही की गुंजाइश हमेशा बनी रहे. पांच साल के कार्यकाल के बाद एक बार फिर नरेन्द्र मोदी को ही सत्ता संभालने का जनादेश मिला है, मगर अबकी बार विपक्षी पार्टियों की करारी हार की वजह से एक बात तो तय है कि संसद के भीतर हालत पहले से भी ज्यादा बदतर होने वाली है. यह स्थिति न तो नरेन्द्र मोदी के लिए अच्छी है और न ही लोकतंत्र के लिए. लोकतंत्र के लिए कमजोर विपक्ष या विपक्षी नेता की अनुपस्थिति घातक सिद्ध होगी. संशय नहीं कि आने वाले वक्त में यह स्थिति मोदी की तानाशाही-प्रवृत्ति को बल देगी. मोदी के अति आत्मविश्वास का कारण भी केवल यही है कि उन्हें पता है कि विपक्ष नदारद है.

मोदी सरकार की छवि अब वैसी नहीं रही, जैसी कि 2014 के शुरुआत में थी. 2014 में वह विकास-पुरुष के रूप में उभरे थे, जबकि अब वे अतिविश्वासी, अहंकारी और आक्रामक हिन्दू नेता के रूप में देखे जा रहे हैं. उस वक्त हिन्दू राष्ट्र, हिन्दुत्व या मंदिर जैसे मुद्दों को पीछे रख कर ‘सबका साथ-सबका विकास’ का नारा दिया गया और देश को विकास के पथ पर ले जाने का सपना दिखाया गया था. तब ऐसा करना मोदी एंड कम्पनी की मजबूरी थी. पता था कि देश के विकास, युवाओं को रोजगार, शिक्षा आदि के नाम पर वे जो योजनाएं, जो नीतियां सदन के पट पर रखेंगे, विपक्ष उनका विरोध नहीं कर सकेगा. विपक्ष की ताकत के आंकलन के लिए समय चाहिए था, विरोध नहीं. लिहाजा खूब सपने दिखाये. जनता और विपक्ष दोनों ने आंखें मूंद कर सपने देखे. किसी ने कोई सवाल नहीं किया. पांच साल मोदी ने विपक्ष को तौला. कहना गलत न होगा कि इन पांच सालों में विपक्ष की कमजोरी को मोदी एंड पार्टी पूरी तरह भांप चुकी है. अबकी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस समेत अन्य दलों को जिस बुरी हार का मुंह देखना पड़ा है, उससे उनकी रही-सही हिम्मत और ताकत भी जवाब दे चुकी है. ऐसे में सदन के भीतर सरकार के सामने घुटने के बल बैठे विपक्षी नेताओं का सरकार की सही-गलत योजनाओं-घोषणाओं के खिलाफ चूं तक कर पाना मुमकिन नहीं होगा, और यही बात लोकतंत्र को कंपा रही है.

ये भी पढ़ें- राजनीति में युवा हैं कहां

कौन नहीं जानता कि बीते सालों में मोदी-सरकार के समर्थक तत्व देश भर में दलित और अल्पसंख्यक विरोधी हरकतों में मुब्तिला रहे. माब लीचिंग में सैकड़ों मुसलमान सरेआम कत्ल किये गये. लोगों में भय जारी रहा, मन बंट गये, आपसी रिश्तों में शंका और घृणा पसर गयी. गौरक्षा के नाम पर अल्पसंख्यकों की हत्याएं भी हुई और उनके कामधंधे भी छीन लिये गये. सरकार की नीतियां लगातार गरीब और मजदूर विरोधी रहीं.

नोटबंदी देश की अर्थव्यवस्था के लिए जहर साबित हुई. पढ़े-लिखे युवाओं के लिए रोजगार के अवसर घटते चले गये. कामगारों की स्थिति दयनीय हो गयी. सरकार पूंजीपतियों के हित साधने में लगी रही. काला धन वापस लाने का वादा करके सत्ता पर आसीन सरकार की नाक के नीचे से लाखों-करोड़ रुपया लेकर पूंजीपति देश से फरार हो गये मगर मोदी सरकार पर आंच नहीं आयी क्योंकि विपक्ष कमजोर था.

मोदी-सरकार की नाकामियों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है. इसमें भी सन्देह नहीं है कि सरकार को अपनी विफलता का पूरा-पूरा अनुमान है. नरेन्द्र मोदी, अरुण जेटली और अमित शाह ऐसे नेता नहीं हैं जिन्हें वास्तविकता का पता न हो. मोदी को तो प्रशासनिक अफसर भी गुमराह नहीं कर सकते. अपनी विफलताओं का आभास होने के बावजूद अगर मोदी का आत्मविश्वास कभी कमजोर नहीं पड़ा, तो इसका एकमात्र कारण विपक्ष की कमजोरी रही. बिखरे हुए विपक्ष के ज्यादातर नेता 2019 में भाजपा को हारता हुआ देखना चाहते थे, लेकिन प्रधानमंत्री कौन बनेगा, इस सवाल पर वह अलग-अलग राग अलाप रहे थे.

नरेंद्र मोदी के सामने विपक्ष विकल्पहीन खड़ा था. विपक्ष के पास मोदी की टक्कर का कोई नेता नहीं था. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी प्रधानमंत्री मोदी के सामने कमतर नजर आते थे. बंटा हुआ विपक्ष मोदी के सामने चुनौती नहीं बन पाया. विपक्ष में अंदरूनी टूट मोदी के सामने कभी चुनौती पेश नहीं कर पायी और विपक्ष की यही कमजोरी मोदी की ताकत बनी. विपक्ष की इसी कमजोरी को देखते हुए ही मोदी सरकार ने अपनी लगभग सभी योजनाओं की पूर्ति का लक्ष्य 2022 रखा. जबकि कोई भी सरकार जो पांच वर्ष के लिए चुनी जाती है वह पांच वर्षों के अनुरूप ही अपने लक्ष्य निर्धारित करती है, ताकि पांच साल बाद जनता के सामने यह बताने लायक रहे कि जो वादे उसने किये थे, उन्हें पांच साल में पूरा भी किया, मगर यह पहली सरकार है जिसने अपने सभी लक्ष्य 2022 के लिए निर्धारित किये. इसकी वजह यही थी कि भाजपा आश्वस्त थी कि कमजोर विपक्ष के चलते 2019 में भी उसी की सरकार बनेगी, चाहे वह आम जनता को कितना भी परेशान कर दे.

ये भी पढ़ें- दलितों के भरोसे दिग्विजय

पांच साल तक मोदी के सामने चुनौती पेश करने में विफल विपक्ष की हालत तो अबकी चुनाव के बाद इतनी पतली हो गयी है कि अब जनता से जुड़े मुद्दे संसद के भीतर कभी पुरजोश उठाये जा सकेंगे, ऐसा सोचना भी खाम-ख्याली होगी. राजनीति की बिसात पर अब रोजी-रोटी के मोहरे पिट चुके हैं और धर्म के मोहरे आगे बढ़ रहे हैं. अबकी एनडीए सरकार में मन्दिर और हिन्दुत्व की बातें आगे बढ़ेंगी, इसमें दोराय नहीं है. मोदी के हाथ सत्ता सौंपने के बाद आम जनता को अब उनकी ओर से जो भी खैरात मिले, मिले या न मिले, उसमें ही संतोष करना होगा. भूखे पेट भजन करने की मजबूरी भी सामने होगी मगर उसकी आवाज अब सत्ता के कानों तक नहीं पहुंचेगी क्योंकि विपक्ष नदारद है. विपक्ष का कोई चेहरा नहीं है. विपक्ष की सबसे बड़ी हार ये है कि भले ही उसमें तमाम दल हों, मगर विपक्ष के रूप में किसी एक दल की पहचान नहीं है. आज छवियों की राजनीति है. आप आंखें बंदकर बीजेपी के बारे में सोचें तो इस पार्टी का झंडा तक आपके जेहन में नहीं आएगा, अगर कुछ दिखेगा तो सिर्फ नरेन्द्र मोदी का चेहरा. पर विपक्ष के बारे में सोचें तो सब गडमड. कोई एक चेहरा नहीं. कभी राहुल गांधी दिखते हैं, कभी ममता बनर्जी, कभी मायावती, कभी केजरीवाल, कभी कोई अन्य, मगर सब डरे-सहमे, कमजोर और लाचार से. विपक्ष का मतलब होता है विकल्प. मजबूत विकल्प. विपक्ष की परिभाषा ही विकल्प से शुरू होती है. लोकतंत्र के स्थायित्व के लिए जरूरी है कि प्रखर और मुखर विपक्ष हो, जिसका एक मजबूत चेहरा हो. एक मजबूत नेतृत्व हो.

अफसोस, कि संसद में कोई मजबूत विपक्ष ही नहीं है. भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा संकट अगर कुछ है तो यही है. लोकतंत्र को बचाये रखने के लिए एक विश्वसनीय विपक्ष की और उसके एक विश्वसनीय नेता की सबसे ज्यादा जरूरत है. आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार इतनी ताकतवर हो गयी है कि उनकी नीतियों की आलोचना करने की साहस किसी में नहीं है. नरेन्द्र मोदी, नि:संदेह इंदिरा गांधी के बाद देश के सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री बन कर उभरे हैं. अपनी पार्टी और सरकार पर नियंत्रण के मामले में सिर्फ इंदिरा गांधी और जवाहरलाल नेहरू से ही उनकी बराबरी हो सकती है. लेकिन जहां नेहरू और इंदिरा को बड़े विपक्षी नेताओं का सामना करना पड़ा था, जवाबदेह बनना पड़ा था, वहीं मोदी के सामने फिलहाल कोई ऐसा नेता नहीं है.

नेहरू को तो 1947 और 1950 के बीच अपनी ही पार्टी और सरकार में एक समानांतर सत्ता केन्द्र का सामना करना पड़ा था. वल्लभभाई पटेल के सामने कांग्रेस अध्यक्ष या देश के राष्ट्रपति के चुनाव जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर नेहरू को झुकना पड़ा था. जब सरदार पटेल की दिसम्बर 1950 में मृत्यु हो गयी, तो नेहरू के लिए पार्टी और सरकार में कोई चुनौती नहीं रही, लेकिन संसद में उनकी नीतियों का प्रभावशाली विरोध करने वाले कई नेता थे. दक्षिणपंथी श्यामाप्रसाद मुखर्जी से लेकर वामपंथी हीरेन मुखर्जी और ए.के. गोपलन तक. उनके सबसे प्रभावशाली विरोधी पूर्व कांग्रेसी नेता भी थे. इनमें लोकलुभावन नीतियों वाले जे.बी. कृपलानी, समाजवादी राममनोहर लोहिया और स्वतंत्र पार्टी के नेता सी. राजगोपालाचारी. नेहरू इन्हें बहुत गम्भीरता से लेते थे, क्योंकि उनके राष्ट्रवादी रुझान नेहरू जितने ही विश्वसनीय थे. जे.बी. कृपलानी गांधी जी के साथ चम्पारण के उनके आंदोलन के साथी थे. सी. राजगोपालाचारी को गांधी जी का दक्षिणी सेनापति कहा जाता था और गांधीजी उन्हें अपने विवेक का रखवाला बताते थे. लोहिया ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के बड़े नेता थे. ये तीनों बहुत चमकदार, मुखर और ईमानदार थे. ये प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की जिस तरह तीखी आलोचना करते थे, उससे प्रधानमंत्री की महत्वाकांक्षा और अहंकार पर लगाम लगती थी और लोकतंत्र को मजबूती मिलती थी.

इंदिरा गांधी भी एक ताकतवर प्रधानमंत्री थीं, लेकिन फिर भी उनका राज चुनौतियों से मुक्त नहीं था. जनसंघ के अटल बिहारी वाजपेयी और माकपा के. पी. राममूर्ति और ज्योतिर्मय बसु संसद में उतने ही प्रभावशाली थे, जितने श्यामा प्रसाद मुखर्जी या गोपालन थे. समूचे देश में मोरारजी देसाई और के. कामराज अपनी ईमानदारी, काबलियत और कांग्रेस के पुराने उसूलों के प्रति निष्ठा के लिए माने जाते थे. इन सबके अलावा जयप्रकाश नारायण थे, जिनसे इंदिरा की रूह कांपती थी. वह चाहते, तो नेहरू के बाद प्रधानमंत्री बन सकते थे, लेकिन उन्होंने नि:स्वार्थ भाव से कश्मीर और नागालैंड के सीमावर्ती इलाकों और मध्य भारत के अपराधग्रस्त इलाकों में काम करना पसंद किया. जयप्रकाश नारायण ने ही इंदिरा गांधी के खिलाफ सन् 1974-75 में राष्ट्रव्यापी आंदोलन का नेतृत्व किया था. इससे तिलमिला कर इंदिरा ने उन्हें जेल में डाल दिया था और अपने कई अन्य आलोचकों को भी जेल की हवा खिलायी थी. मगर इस कृत्य से इंदिरा गांधी की विश्वसनीयता बहुत घट गयी और यही वजह थी कि सन् 1977 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी बुरी तरह हारी थी.

ये भी पढ़ें- सर्वेक्षण हैं या बैलेन्स शीट

नरेन्द्र मोदी खुद को बड़ा समझने के मामले में जवाहरलाल नेहरू की तरह हैं और लोकतंत्र के संस्थानों की स्वायत्तता के प्रति उनका उपेक्षित और दम्भपूर्ण रवैय्या बिल्कुल इंदिरा गांधी जैसा है. लोकतांत्रिक रूप से चुने गए नेता में ऐसी प्रवृत्तियों का होना खतरनाक है. यह उनके लिए तानाशाही के रास्ते तैयार करता है. लोकतंत्र के लिए खतरे पैदा करता है. इसे रोकने के लिए विश्वसनीय और सक्षम विपक्ष चाहिए. नेहरू को कृपलानी और राजगोपालाचारी ने, तो इंदिरा गांधी को जयप्रकाश नारायण ने चुनौती दी, लेकिन आज नरेंद्र मोदी को प्रभावशाली चुनौती दे सकने की ताकत रखने वाला संसद के भीतर कौन है?

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...