गुजरात के सुरेंद्र नगर में एक रैली को संबोधित कर रहे युवा कांग्रेसी नेता हार्दिक पटेल को एक शख्स ने जो जोरदार थप्पड़ मारा उस की गूंज उतनी सुनाई नहीं दी जितनी कि सुनाई देनी चाहिए थी. आरोपी भले ही इस की वजहें कुछ भी गिनाता रहे पर हकीकत में यह थप्पड़ उस मानसिकता का प्रतीक था जो अपने दम पर राजनीति में जगह बना रहे पिछड़े और दलित युवाओं को हतोत्साहित करने का कोई मौका नहीं छोड़ती.

राजनीति में युवाओं को जाति और धर्म के नाम पर न बांटे जाने की कोई ठोस या तार्किक वजह है भी नहीं. यह कहने भर की बात है कि हमें युवाओं को इस परंपरागत तरीके से नहीं देखना चाहिए.

हकीकत तो यह है कि धर्म का अनुसरण करती राजनीति भी युवाओं को इसी नजरिए से देखती और बांटती रही है और अगर ऐसा नहीं होता तो मौजूदा आम चुनावों में युवा उम्मीदवारों की संख्या सभी प्रमुख दलों की ओर से 250 से कम न होती. देश में युवा मतदाताओं की संख्या कोई 60 करोड़ है लेकिन उन का प्रतिनिधित्व वृद्ध लोग कर रहे हैं.

युवाओं की चुनौती

राजनीति में युवाओं की भागीदारी को ले कर बड़ीबड़ी बातें अकसर हर किसी मंच से होती रहती हैं लेकिन कोई दल उन्हें प्रतिनिधित्व का मौका नहीं देता क्योंकि उन की नजर में युवा वोट भर हैं. दिक्कत तो यह है कि खुद युवा भी अपनी तरफ से कोई पहल नहीं करते. सियासी दल उन का इस्तेमाल भीड़ और ट्रौलिंग के लिए करते रहते हैं. दूसरे भारतीय परिवारों में भी राजनीति को ले कर एक पूर्वाग्रह है कि इस में वही लोग जाते हैं जो कुछ और नहीं कर सकते और राजनीति में कोई कैरियर या भविष्य नहीं है.

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