जैसे ही मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को कांग्रेस ने भोपाल से उम्मीदवार बनाया तो भगवा खेमे में हड़कंप मच गया. जब कोई बड़ा नेता उन के मुकाबले मैदान में उतरने को तैयार नहीं हुआ तो आरएसएस की तरफ से मालेगांव बम ब्लास्ट की आरोपी साध्वी प्रज्ञा भारती को अवतरित कर दिया गया. प्रज्ञा कुछ भी अनापशनाप बोलने के लिए कुख्यात हैं और उन का पहला बयान ही बड़ा बकवास भरा था कि आईपीएस अधिकारी शहीद हेमंत करकरे उन के श्राप के चलते आतंकियों की गोलियों का शिकार हुए थे.

ऐसे बयानों से वोटों का ध्रुवीकरण तो भगवा खेमे ने कर लिया लेकिन इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि पिछड़े हिंदू और दलित क्यों हिंदुत्व के नाम पर उसे वोट देगा जिन्हें साधने के लिए दिग्विजय सिंह ने पहले ही इंतजाम कर लिए थे. हिंदूमुसलिम वोटर तो बंट चुके हैं, ऐसे में दलित वोटर तय करेंगे कि असली आतंकवादी कौन है प्रज्ञा भारती या फिर दिग्विजय सिंह.

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बदलते रिश्ते

बात साल 2004 की है, धाकड़ नेता बलराम जाखड़ को कांग्रेस ने राजस्थान की चुरू सीट से उम्मीदवार बनाया था. तब भाजपा उन के मुकाबले अभिनेता धर्मेंद्र को उतारना चाहती थी.  लेकिन धर्मेंद्र ने यह कहते चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया था कि बलराम जाखड़ उन के बड़े भाई हैं, इसलिए वे उन के खिलाफ नहीं लड़ेंगे. तब हर किसी ने धर्मेंद्र के इस फैसले का स्वागत किया था क्योंकि बलराम जाखड़ और धर्मेंद्र के उजागर रिश्ते वाकई में पारिवारिक व अंतरंग थे.

अब बात 2019 की है, गुरदासपुर सीट से धर्मेंद्र के अभिनेता बेटे सन्नी देओल भाजपा से बलराम जाखड़ के बेटे सुनील जाखड़ के सामने हैं जिन्होंने यह सीट अप्रैल 2017 के उपचुनाव में रिकौर्ड एक लाख 93 हजार वोटों से जीत कर अपनी अहमियत जता दी थी. इस सीट से भाजपा की तरफ से अभिनेता विनोद खन्ना 4 बार जीते लेकिन भाजपा ने उन के बेटे अक्षय खन्ना को टिकट नहीं दिया क्योंकि उन की जीत संदिग्ध थी. सन्नी और सुनील के दिलचस्प और कड़े मुकाबले में कोई भी जीते, लेकिन पुराने रिश्ते और दोस्ती दोनों ही हार चुके हैं.

काहे के क्रुसेडर

गोद लिए बेटे से कभी सगे वाले जैसी फीलिंग नहीं आती और दलित चाहे कितना भी शिक्षित और बुद्धिजीवी हो, सवर्णों की डिक्शनरी में रहता तो दलित ही है. यह सनातनी सत्य जब तक दिल्ली के भाजपा सांसद डाक्टर उदित राज को समझ आया तब तक भाजपा उन्हें गोद से उतार फेंक चुकी थी. वह दूसरे दलित पुत्र, पेशे से गायक, हंसराज हंस को सीने से चिपटा चुकी थी जो पहले ही अकाली दल और कांग्रेस की गोद हरी कर चुके थे. भाजपा से उन्हें क्यों निकलना पड़ा, इस की वजहें गिना रहे तिलमिलाए उदित राज शायद ही इस बात का जवाब दे पाएं कि अगर उन्हें टिकट मिल जाता तो क्या उन वजहों की भ्रूणहत्या नहीं हो जाती.

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15 साल पहले हिंदू धर्म की वर्णव्यवस्था से घबराए इस दलित नेता ने बौद्ध धर्म अपना लिया था, लेकिन 2014 के चुनाव में वे मय अपनी जस्टिस पार्टी के भगवा गोद में क्यों जा बैठे थे, इस सवाल का जवाब शायद ही वे दें. अब समानता और समरसता की हकीकत को झींक रहे उदित राज भले ही नई गोद में जा बैठे हों लेकिन वहां भी उन्हें न्याय नहीं मिलने वाला.

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