सिनेमा में आ रहे बदलाव के चलते अब बौलीवुड में कई नए फिल्मकार तेजी से आ रहे हैं, जिन्होंने जमीन से जुड़ी और सामाजिक सरोकार वाली कहानियां अपनी फिल्मों के माध्यम से पेश करने का बीड़ा उठा लिया है. ऐसे ही एक फिल्मकार हैं सुरेश शर्मा. मूलतः रोहतक (हरियाणा) में जन्मे वे पले बढ़े तथा 35 वर्ष (कुछ साल दिल्ली और कुछ साल छत्तीसगढ़़ राज्य के रायपुर शहर में) तक एक पब्लिक लिमिटेड कंपनी में नौकरी करने के बाद फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कूदे हैं. पहले ‘वेदना’नामक डाक्यूमेंटरी बनायी और अब किन्नरों की व्यथा व दर्द को व्यक्त करने वाली एक मानवीय फिल्म ‘हंसा-एक संयोग’ लेकर आ रहे हैं, जो कि 31 मई को देश के सिनेमाघरों में प्रदर्शित होने जा रही है. सुरेश शर्मा ने ‘‘चित्रागृही फिल्मस” के बैनर तले फिल्म ‘‘हंसा-एक संयोग” का निर्माण करने के साथ साथ इसमें एक अहम किरदार भी निभाया है.
2014 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा किन्नरों को समान धारा के साथ जोड़ने और उन्हें कई अधिकार दिए जाने के आदेश के बाद केंद्र व राज्य सरकारें किन्नरों के हित में कई योजनाएं शुरू कर चुकी हैं. सुप्रीम कोर्ट ने किन्नर समुदाय को ‘बैकवर्ड इकोनौमी क्लास’’ में रखा है. इतना ही नहीं गत वर्ष मुंबई में किन्नरों के लिए सौंदर्य प्रतियोगिता का आयोजन भी हुआ था. कुछ माह पहले प्रयागराज में संपन्न ‘‘कुंभ मेले’’ के दौरान पहली बार तमाम विरोधों के बावजूद ‘किन्नर अखाड़ा’ भी मौजूद रहा.
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तो वहीं फिल्म‘हंसा-एक संयोग’ का निर्माण करने वाले सुरेश शर्मा ने‘चित्रागृही फिल्मस’ के ही तहत रायपुर, छत्तीसगढ़ में 30 मार्च 2019 को 15 किन्नरों को अपनी बेटी बनाकर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री व अन्य सम्मानित लोगों की मौजूदगी में पूरे रीति रिवाज के साथ 15 युवा पुरूषों के साथ उनका व्याह करवाया. सभी विवाहित जोड़े को एक लाख रूपए भी दिए. इनमें से सात किन्नर छत्तीसगढ़ की हैं. और बाकी देश के अलग अलग राज्यों की है. इसके लिए इन्हें पूरे विश्व से प्रशंसा पत्र मिले. राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी बधाई संदेश भेजा. इस तरह सुरेश शर्मा व फिल्म ‘हंसाःएक संयोग’ ने विश्व रिकार्ड बना डाला.
प्रस्तुत है सुरेश शर्मा से हुई एक्सक्लूसिव बातचीत के अंश…
35 साल की नौकरी छोड़कर फिल्म निर्माण की तरफ मुड़ने की वजह क्या रही?
मेरे संबंध बौलीवुड के साथ साथ छत्तीसगढ़ की अदालतों मे भी रहे हैं. हमारा संबंध न्यायालय के न्यायाधीशों के साथ भी बना रहता था. पहली बार छत्तीसगढ़ में एक फिल्म फेस्टिवल का आयोजन हुआ था, जिसका नाम था- ‘लीगल अवेयरनेस फिल्म फेस्टिवल’. उस वक्त छत्तीसगढ़ के कुछ मेरे मित्र व मंत्री वगैरह ने मुझसे निवेदन किया कि मैं भी इस फिल्म फेस्टिवल के लिए कोई फिल्म या डाक्यूमेंट्री बना कर दूं. तब मैने‘वेदना’ नामक एक डाक्यूमेंट्री बनायी थी. इसमें मैंने गरीब प्रदेशों के गांवों से पूरे परिवार को पंजाब जैसे संपन्न राज्यों में ले जाया जाता है और उनसे वहां पर मजदूरी कराई जाती है, उनसे ईंट भट्टों पर काम कराया जाता है. वहां पर उनके साथ अन्याय व अत्याचार किया जाता है. कम पैसे दिए जाते हैं. नौकरी करते हुए छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में मुझे इस तरह की कई कहानियां सुनने को मिली थी. मैंने उन्ही पर चार घंटे की डाक्यूमेंटरी बनायी थी, जिसे काट कर संक्षिप्त कर इस फेस्टिवल में दी. फिल्म की प्रशंसा हुई, तो मुझे लगा कि अब कुछ समाज के लिए सकारात्मक काम फिल्म माध्यम में किया जाना चाहिए. फिर नौकरी छोड़कर मुंबई चला आया. अब मेरी फिल्म‘हंसा -एक संयोग’ प्रदर्शन के लिए तैयार है. यूं तो हम पहले एक दूसरी फिल्म बना रहे थे, पर उसमे धोखा मिला. उसके बाद मुझे लेखक संतोश कष्यप ने किन्नरों पर यह कहानी सुनायी, जिस पर मैंने ‘हंसा-एक संयोग’बनायी.
कहानी में ऐसा क्या था कि आपको लगा कि इस पर फिल्म बननी चाहिए?
-हम लोग रोहतक से हैं. रोहतक में हमारी मां किन्नरों की बड़ी इज्जत करती थी. बचपन में हम किन्नरों को मौसी कहा करते थे.तो बचपन से उनकी तरफ रूझान था. फिर कहानी में जब उनकी व्यथा को सुना, तो मुझे लगा कि सुप्रीम कोर्ट ने इसी के चलते इनके पक्ष में निर्णय सुनाया है और हमें सबसे पहले अब इसी पर फिल्म बनानी चाहिए. मुझे अहसास हुआ कि इनके प्रति नाइंसाफी होती आ रही है. यह बच्चे हमारे ही घरों में पैदा होते हैं. किन्नर किसी किन्नर को पैदा नही करती. क्योंकि किन्नर किसी पुरूष को औरत का सुख तो दे सकती है, पर किन्नर बच्चे पैदा नहीं कर सकती. किन्नर तो एक पुरूष व महिला ही अपने मिलन से पैदा करते हैं. यानी कि यह बच्चे हमारे अपने घरों के हैं, तो फिर इन्हें इनके अधिकार से वंचित क्यों किया जाता है. इनका बचपना छीन लिया जाता है. इन्हे घर से निकाल दिया जाता है. इन्हे स्कूल में पढ़ने नहीं दिया जाता. हर चैराहे पर इन पर छींटाकशी होती है. यदि हमारे साथ ऐसी घटना घटे, तो हम सभ्य इंसान की बजाय गुंडा या मवाली ही बनेंगे. काफी कुछ सोचा. फिर भारत सरकार व कई राज्य सरकारों की गतिविधियों का अवलोकन किया. मैंने पाया कि इनकी मदद करने के मकसद से समाज कल्याण मंत्रालय भी काम कर रहा है. तो मेरे दिमाग में आया कि यदि मैं भी इनकी धारा में जुड़ जाता हूं तो इन्हें मदद मिलेगी और मुझे दुआएं.
क्या इस पर रिसर्च करने की जरुरत पड़ी?
लेखक के पास सिर्फ एक कहानी थी. पर पहली फिल्म के अनुभव से मैं काफी कुछ सीख चुका था. इसलिए मैने स्वयं इस पर रिसर्च करने का निणर्य लिया. मैं छत्तीसगढ़ व हरियाणा सहित देश के कई राज्यों में गया और वहां पर किन्नरों से मिला. किन्नरों के मंडलेश्वरों से मिला. उनकी कहानियां सुनी. कई तरह की जानकारियां इकट्ठा करके लेखक को दी. जिस पर उसने पटकथा लिखी, फिर मैंने लेखक संतोश कश्यप के साथ ही धीरज वर्मा को निर्देशक के तौर पर लेकर यह फिल्म बनायी. रिसर्च के दौरान मुझे पता चला कि सिर्फ भारत में किन्नरों की आबादी लगभग छह करोड़ है. अब तक सैकड़ों किन्नर मुझे ‘पिता’बुलाने लगी हैं. हमने अपनी फिल्म में छत्तीसगढ़ के कई किन्नरों के साथ साथ शबनम मौसी से भी अभिनय करवाया.
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किन्नरों की क्या प्रतिक्रिया मिल रही थी?
-जब हम किन्नरों से मिले और उन्हें बताया कि हम इस तरह की फिल्म बना रहे हैं, तो उत्साहित हुई और हमें कई किन्नरों से मिलवाया. अपनी कहानी सुनायी. कहानी सुनाते हुए वह भी रो रही थीं और हम भी कहानी सुनते हुए रो रहे थे. उनकी आंखों में अपने मां बाप को खोने व अपने घर न जा पाने का दर्द था.
यानी कि आप किन्नरों की व्यथा से प्रभावित हुए?
जी हां! मैं तो उनके दर्द से इतना प्रभावित हुआ कि मैंने उन्हे समान धारा में लाने के लिए सोचना शुरू किया. तो मुझे याद आया कि 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश देते हुए ट्रांसजेंडर यानी कि किन्नरों को भी सामाजिक जीवन जीने और समानता का अधिकार दिया. मैंने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को एक कदम आगे बढ़ाते हुए उनके दर्द व वयथा को सिनेमा के परदे पर लाने के साथ ही उसे सार्थक भी किया है.कुछ किन्नरों को अपनी बेटियां भी बनाया है. फिल्म निर्माता की हैसियत से पूरे भारत में मैंने ही इस तरह का काम किया है. हमने 15 किन्नरों की शादी किन्नर नहीं बल्कि पुरूषों से करवायी है. हमने फिल्म में बच्चे के प्रति मां की ममता और बच्चे के लिए मां की बगावत को भी दिखाया है.
हमने अपनी इस फिल्म में समाज के डर का चित्रण करते हुए हर इंसान को संदेश देने का प्रयास किया है कि समाज के डर को दूर कर अपने बच्चे के बारे में सोचना चाहिए. तभी समानता का अधिकार सही मायनों में आएगा.
आपकी फिल्म क्या संदेश देती है?
हम अपनी फिल्म के माध्यम से यही कहना चाहते हैं कि हमने अपने घरों से जिन बच्चों को बाहर कर दिया, अब उन्हें तो हम वापस ला नहीं सकते, पर हम उन्हें रिश्तों में बांध सकते हैं. मैं समाज से कहना चाहूंगा कि यदि किसी के घर में इस तरह का बच्चा पैदा होता है, तो वह उसे सड़कों पर भटकने के लिए घर से बाहर न करें. समाज से न डरे. समाज तो खुद कहता है- ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना.’ समाज की बातो को नजरंदाज कर अपने बच्चे पर ध्यान दें, उसे पढाएं व लिखाएं. सरकार भी आपका साथ देगी. हम फिल्म के माध्यम से इस बात को प्रचारित करने का काम करते रहेंगे. हम अपनी तरफ से समाज में एक सकारात्मक बदलाव लाने का काम करते रहेंगे.
फिल्म ‘हंसाः एक संयोग’ की खासियत?
फिल्म इस बात की ओर इशारा करती है कि यह समाज ऐसा जहां इंसान जीना चाहता है, पर समाज उसे जीने नहीं देता. किन्नर तो अर्धनारीष्वर है. उसके अंदर आधा पुरूष और आधा स्त्री तत्व है. भारतीय संस्कृति में किन्नर और गंधर्व तो ईश्वर की श्रेणी में आते हैं. हमारे देश में आम धारणा है कि किन्नर के आशिर्वाद से काम सफल हो जाता है. एक तरफ आप किन्नर में इतनी सकारात्मकता देखते हैं, तो दूसरी तरफ जब आपके घर कोई किन्नर पैदा होता है, तो उसके जन्म लते ही आप उसे घर से बाहर कर सारे रिश्ते खत्म कर देते हैं.
आपने फिल्म के लिए कलाकारों का चयन कैसे किया?
हमारी फिल्म की कहानी छत्तीसगढ़ की है. फिल्म में मास्टर रामानुज यानी कि बाल किन्नर के किरदार में बाल कलाकार आयुष, बड़े रामानुज यानी कि किन्नर हंसा के किरदार में आयुश श्रीवास्तव है. यह दोनो कलाकार रायपुर,छत्तीसगढ़ से हैं. उसकी माता सुमित्रा देवी के किरदार में वैष्णवी मैकडोनल्ड,पिता जसवंत सिंह के किरदार में सयाजी शिंदे, दादा बलवंत सिंह के किरदार में शरत सक्सेना, हंसा की किन्नर गुरू अमीना बानो के किरदार में अखिलेंद्र मिश्रा, मंत्रा पाटिल के किरदार में राधिका, वकील भुदड़िया के किरदार में अमन वर्मा, सोनिया के किरदार में दीपशिखा नागपाल व सोनिया के पति सेठ धरमदास के किरदार को मैंने स्वयं निभाया है. अन्य कलाकार हैं-इशित्याक खान, बच्चन पचेरा, गोपाल सिंह, पंकज अवधेश शुक्ला हैं.
आगे की योजना क्या है?
किन्नरों को समान धारा में लाने के लिए मैं निरंतर प्रयास रहत रहूंगा. यह किन्नर कला या सुंदरता के मसले पर किसी से कम नहीं है. इसलिए अब हम इनसें अपनी अगली फिल्मों में अभिनय करवाने के अलावा इस बात के लिए प्रयास कर रहा हूं कि कुछ कंपनियां बड़ी बड़ी हीरोईनो की बनिस्बत इन्हें अपने प्रोडक्ट की मौडल के रूप में लेकर विज्ञापन फिल्में बनाएं.
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आपने जिन 15 किन्नरों की शादी कराई, यह शादियां टिकेंगी?
-जरूर देखिए,यह पहले से ही रिश्ते में हैं. समाज इन्हें शादी के बंधन में नहीं देखना चाहता था. अब हम इन्हे बच्चे एडौप्ट करने की सलाह देने वाले हैं. क्योंकि किन्नर अपने पति रूपी पुरूष को औरत का सुख दे सकती है, पर बच्चे नहीं पैदा कर सकती. इससे देश के अनाथलयों में पल रहे बच्चों को मां बाप मिल सकेंगे.
दूसरी फिल्म की योजना क्या है?
जी हां! दो फिल्मों पर काम कर रहा हूं. जिसमें से एक छत्तीसगढ़ी भाषा की फिल्म ‘कर्मभूमि है. यह ऐसी फिल्म है जो कि हर किसान को प्रेरणा देगी और उन्हें एक ऐसी राह बताएगी, जिससे उन्हें कभी भी पानी के अभाव में खेतों के सूखने का डर नहीं सताएगा. बाद में इसे देश की अलग अलग भाषाओं में डब करके रिलीज करुंगा. हमारी इस फिल्म को देखकर वह पद्धति व तकनिक की जानकारी मिलेगी, जिससे वह पानी के लिए नहीं तरसेंगे.