मैं आज तक नहीं समझ पाया हूं कि ‘अक्ल बड़ी या…’ में बाद का सही शब्द क्या है. भैंस या बहस? और अक्ल से बड़ी कौन है, बहस या भैंस? अनिर्णीत विवाद है यह. लेकिन इस का हल मेरे पास है. इतना तो साफ है कि इस विवाद में अक्ल कौमन है, लेकिन समस्या भैंस और बहस को ले कर होती है. भैंस वाले डंडा ले कर अपनी हांकते हैं तो बहस वाले शब्दबाण चलाते हैं. उदाहरण पर उदाहरण दागे जाते हैं. अक्ल का पक्ष लेने वालों की दलील है कि सही शब्द ‘बहस’ ही है जो बहतेबहते ‘भैंस’ हो गया है. इसके पहले कि मैं अपना हल बताऊं, विद्वानों को सम्मान देते हुए पहले उन का पक्ष देखें.

तो चलिए पहले लेते हैं बहस. एक बहस वह जो टीवी पर आती है. बड़ी मनोरंजक होती है. बहसिये केकड़ेजैसे एकदूसरे पर चढ़े आते हैं. किसी को बोलने नहीं देते. यदि सचमुच आमनेसामने हों तो हाथापाई हो जाए. इस से आगे भी जा सकते हैं. कुछ कह नहीं सकते. बहस इसीलिए की जाती है कि नतीजा कुछ भी न निकले. जनता का पैसा और टाइम बरबाद करने पर शिकायत की है किसी ने? नहीं न. जनता के पास फालतू टाइम है. बहसियों के पास इस नौटंकी से तो पैसा आता है. जनता बड़े मजे लेले कर देखती है. और बहसबाज टीवी कैमरे के सामने अपनी मुंडी दिखाने के लिए बेताब रहते हैं.

मल्टीप्लैक्स में मनोरंजन महंगा है. फिर वहां घुसने के पहले कड़ी जांच होती है जैसे हर आदमी टिकट नहीं, बल्कि बम लिए हुए आया हो. इसलिए आज की तारीख में सब से सस्ता मनोरंजन टीवी बहस है. लेकिन याद रखिए, बहस संसद में भी होती है. हम वह भी देखते हैं टीवी पर. इस बहस का क्लाइमैक्स मारामारी है. तब सांसद अपनी निजी ताकत दिखाते हैं.

फिल्मों की तरह डुप्लिकेट से काम नहीं लेते. देखने वालों को लगता है कि पैसा वसूल हो गया. सांसद भी जैसे कहते हों कि देखो वोटर भाइयो, हम ने आप का पैसा वसूल करवा दिया. आप के दुखी क्षणों में सुख घोल दिया. यह सब आप ही के लिए कर रहे हैं. और प्लीज नोट, इस बहस का समाज की भलाई या बुराई से कोई सरोकार नहीं है. यह शुद्ध मनोरंजन का कार्यक्रम है. इसे उसी भावना से लीजिए.

मैं तो मानता हूं कि भैंस ही बड़ी होती है. आप मुझ पर हंसेंगे. मैं साबित कर दूंगा कि भैंस अक्ल से बड़ी होती है. इस अंतहीन बहस का मैं अंत करना चाहूंगा. भैंस जन सहयोग से बनी सीमेंट की सड़क पर सशरीर नजर तो आती है. इस मोटे पशु को तीखी अक्ल वाले पालते हैं. गाय के दूध के मुकाबले इस का दूध गाढ़ा होता है. इसलिए इस के दूध में गाय के दूध के मुकाबले ज्यादा पानी मिलाया जाता है.

प्रौफिट मार्जिन ज्यादा है. घी, मावा और मिठाइयों की मिलावट की दुनिया में उस का महत्त्वपूर्ण योगदान नकारा नहीं जा सकता.

अब देखिए, उसे हम देख सकते हैं, कालीकाली, बहुत बड़ी है. छू सकते हैं, ये मोटी. उस की मार खा सकते हैं. भैंस पालने का एक फायदा और भी है. दुहो और खुला छोड़ दो सड़क पर. नगरनिगम वाले यदि अपनी फर्जअदायगी की नौटंकी दिखाएं तो उन्हें पसीना आ जाए. एक तो उसे घेरना मुश्किल. वह कोई गाय तो है नहीं जो आसानी से पकड़ में आए. गाय तो बेचारी दुबलीपतली, मरियल, कुपोषित होती है.

भैंस खाएपिए घर की लगती है. यों वह आरामजीवी है. किसी को परेशान नहीं करती. लेकिन जब उसे गुस्सा आए तो अपनी खोपड़ी पकड़ने वाले को ठोक कर उस की खोपड़ी तोड़ दे. चलो, मान लो उसे सीमेंट की सड़कों की तरह जनसहयोग से पकड़ भी लिया, तो पिंजरे में ठूंसना मुश्किल. इतनी वजनदार होती है कि नगरनिगम के चपरासी से लगा कर महापौर भी मिलजुल कर नहीं पकड़ पाएं. इसलिए नगरनिगम भैंसमाता को पकड़ने का पाप नहीं करता.

भारत महाद्वीप के अलावा दुनिया में कहीं भैंस होती है, इस की जानकारी मुझे नहीं है. भैंसमाता वोट नहीं दिलाती जैसा कि कभी गौमाता दिलवाया करती थी. फिर भी भैंस के ठाट अलग ही हैं. उस का चलने का अंदाज देखो. हाथी के बाद उसी की चाल मस्तानी लगती है. अपनी ही धुन में चलती है. किसी की परवा नहीं करती. चाहे जितनी बीन बजाइए, फूंकफूंक कर मर जाइए, वह अपनी मरजी से ही हटती है.

पालतू और दुधारू जानवर होने के बावजूद उसे गाय की तरह पवित्र नहीं माना जाता. गौमूत्र को पवित्र मान कर उस का सेवन किया जाता है. उसे कई रोगों की औषधि भी माना जाता है. लेकिन बेचारी भैंस के पल्ले यह सम्मान नहीं है. मिस्टर गाय यानी बैल के रंभाने को संगीत में ‘रे’ कहा गया है. गाय की दूर की चचेरी की चचेरी बहन भैंस के रंभाने को कोई स्वर अलौट नहीं किया गया है. फिर भी वह किसी से शिकायत नहीं करती. मानव की तरह आरक्षण की मांग नहीं करती.

भैंस का पुल्ंिलग भैंसा बड़ा खतरनाक होता है. मैं जब भी भैंसा देखता हूं, तो उस के ऊपर बैठा यमराज ढूंढ़ता हूं. वैसे इन दिनों यमराज की सवारी मौडर्न हो गई है. वह बाइक या ट्रक या ट्रैक्टर या टैंकर पर सवार हो कर आता है. टारगेट जल्दी पूरा होता है. जब धार्मिक कार्यक्रम में मोटेबासे लोग धर्मगुरु के आदेश पर नाचने लगते हैं, तो भैंसा डांस देखने को मिलता है. अगर आज भैंस को संत ज्ञानेश्वर मिल जाएं तो कहना ही क्या. ऐसा गा सकती है कि वह बौलीवुड का बैस्ट सिंगर का अवार्ड भी जीत ले. वैसे भी आजकल बौलीवुड में भैंसा राग ही तो चल रहा है. फर्क सिर्फ इतना है कि इसे मानवजाति गा रही है.

इस विश्लेषण के बाद अब तो आप भी मानेंगे कि भैंस न सिर्फ बहस पर भारी है, बल्कि अक्ल से भी बड़ी है. अक्ल तो उस की दासी है. कौन कहता है कि भैंस का दूध पीने वाले की अक्ल मोटी हो जाती है? देखा नहीं, अक्ल किस तरह यूपी की राजकीय मेहमान भैसों की सेवा में लगी हुई थी. इक्कीस तोपों की सलामी ही बाकी रह जाती है.

एक और बात. हिंदी की ‘जिस की लाठी उस की भैंस’ वाली कहावत भी हटा दीजिए. कहिए, ‘जिस की भैंस उस की लाठी.’ कम से कम यूपी में तो यही चलता है. अब तो अक्ल बड़ी या भैंस वाली पहेली उतार फेंकिए. मैं ने हल कर दी है. तो आप भी मेरे साथ कहिए, भैंस अक्ल से बड़ी होती है. बहुत ही बड़ी.

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