फिल्म ‘सौगंध’ में मुख्य किरदार निभाकर फिल्म इंडस्ट्री में अपने कैरियर की शुरुआत करने वाले अभिनेता अक्षय कुमार का शुरुआती दौर अधिक सफल नहीं था. उन्होंने ताईक्वान्ड़ो में ब्लैक बेल्ट हासिल करने के बाद थाईलैंड में मार्शल आर्ट की पढ़ाई की है. इसलिए कई फिल्मों में उन्हें पहले मार्शल आर्ट के प्रशिक्षक के रूप में काम मिला. बाद में खिलाड़ी सीरीज ने उन्हें बौलीवुड का ‘खिलाडी कुमार’ बना दिया और उन्होंने सफलता की सीढ़ी चढ़नी शुरू की और तबसे लेकर आजतक उन्हें कभी मुडकर पीछे देखना नहीं पड़ा.
आज वे एक्टर के अलावा निर्माता भी बन चुके हैं और कई सफल फिल्में भी की हैं. उनके इस सफर में साथ दिया अभिनेत्री ट्विंकल खन्ना ने जिनसे उनके दो बच्चे आरव और नितारा हैं. वे अपनी इस यात्रा से बहुत खुश हैं और इसे अपने परिवार के साथ सेलिब्रेट करते हैं. अलग-अलग फिल्मों को करना वे पसंद करते हैं और इसी कड़ी में उन्होंने फिल्म ‘2.0’ की है. उनसे मिलकर बात करना रोचक था, पेश है अंश.
प्र. इस फिल्म को करने की खास वजह क्या है?
ये एक अलग तरह की फिल्म है जिसमें तकनीक के साथ एक सामाजिक संदेश भी है, जो मुझे अच्छा लगा.
प्र. रजनीकांत के साथ काम करने का अनुभव कैसा रहा?
वे एक ऐसे कलाकार हैं, जो एक छोटी सी लाइन को भी अपने तरीके से अभिनय कर बता सकते हैं और वह स्टाइल सबसे अलग ही होती है. उसी को मैंने पूरी फिल्म के दौरान देखा और समझा है कि कैसे एक साधारण संवाद को अपने उम्दा अभिनय कला से अलग बनाया जाता है.
प्र.आपके मेकअप के बारें में बताएं कि कैसे क्या किया गया?
पूरे मेकअप को करने में साढ़े तीन घंटे लगते थे. मेरे ऊपर जो रबड़ का यूनिफार्म डाला जाता था वह बहुत मोटा होता था और उसके ऊपर पंख लगाये जाते थे. इसके लिए तीन लोग साढ़े तीन घंटे काम करते थे. इसे थर्ड डिग्री मेकअप कहा जाता है. इसमें शूटिंग के वक्त जो पसीना आता था, वह बाहर नहीं निकल पाता था.
शूटिंग के बाद जब उसे उतारा जाता था, तो पूरा शरीर स्मेल से भर जाता था. उस दौरान खाना-पीना मना था, ताकि आपका पेट न फूले. मुझे लिक्विड डाइट पर रखा जाता था और एक छोटे से ‘एसी केज’ में रखा गया था . मुझे धक्का मारकर वे शूटिंग स्पॉट तक ले जाते थे मैं चलकर नहीं जा पाता था. मैं वाकई एक पंछी बन चुका था.
मुझे बहुत स्ट्रेस होता था मैंने 38 दिन उस मेकअप को लेकर काम किया है. इस काम के दौरान मुझे बहुत धैर्य रखना पड़ा. इसकी शूटिंग एक साथ नहीं हुआ, बीच-बीच में ब्रेक था, ताकि मेरा शरीर ऐसे मेकअप को ले सकें. आंखों के लेन्सेस हमारे आईबौल से काफी मोटे और बड़े थे. इसके लिए मेरे साथ आंखों के डॉक्टर 24 घंटे रहते थे. बीच में एक बार मेरी आंखे लाल भी हो गयी थी.
प्र. क्या फिटनेस में कोई परेशानी हुई?
नहीं, किसी प्रकार की समस्या नहीं आई. मैंने अपने शरीर के साथ कभी किसी प्रकार का प्रयोग नहीं किया. मैं अपने शरीर को जैसा है वैसा ही रखना चाहता हूं. स्वास्थ्य मेरे लिए काफी जरुरी है, अगर हेल्थ है, तो प्रोफेशन है.
प्र.आप अभी सामजिक मुद्दों को लेकर फिल्में कर रहे है ,ऐसे में निगेटिव रोल में दर्शक आपको क्या स्वीकार कर पाएंगे?
ये यहीं पर होता है, विदेश में नहीं. मेरे हिसाब से मैं एक कलाकार हूं और अपनी भूमिका निभाता हूं. उसमें जो भी भूमिका मैं करूं, मैं वैसा नहीं बनूंगा. दर्शक अवश्य स्वीकार करेंगे. अमरीश पुरी हमेशा विलेन की भूमिका निभाने के बावजूद लोग रियल लाइफ में उन्हें बहुत पसंद करते थे.
प्र. क्या फिल्मों में टाइपकास्ट होने का खतरा अब किसी को नहीं है?
आजकल निगेटिव किरदार बहुत कम रह गए हैं, हीरो ही विलेन बन जाता है. मेरे हिसाब से ऐसा विदेश में भी नहीं है. मुझे अगर करैक्टर आर्टिस्ट की भी भूमिका मिले और अगर वह अच्छी हो, तो मैं करना चाहूंगा. मेरी एक फिल्म ‘मिशन मंगल’ में हीरोइनें है और किसी ने अपनी भूमिका के बारें में नहीं पूछा. हर कोई एक अच्छी और बड़ी फिल्म का भागीदार बनना चाहता है.
प्र. आप कितने ‘टेक्नोसेवी’ हैं?
मैं अपने मोबाइल को अधिक हाथ नहीं लगाता. किसी निर्माता, निर्देशक से बात करने के लिए कभी-कभी फोन करता हूं. मैं टेक्नोसेवी नहीं. बच्चों को प्यार से समझाकर मोबाइल से दूर रखने की कोशिश करता हूं.
प्र. आप किस तरह की फिल्में बनाना पसंद करते हैं?
मेरी होम प्रोडक्शन में मैं हमेशा कंटेंट युक्त फिल्में बनाऊंगा. मेरी पसंद हमेशा कंटेंट पर खासतौर से रहा है. अगर मुझे कोई ऐसी फिल्म है जिसमें पैसे डालने हैं तो मैं वैसा भी करूंगा, जैसा कि मैं फिल्म ‘केसरी’ एक वौर फिल्म कर रहा हूं.
प्र. साउथ की फिल्मों की किस बात से आप प्रभावित हैं, जिसे आप हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में भी हो, ऐसा सोचते हैं?
वहां काम करने का तरीका बहुत फास्ट है, वे दूसरों के समय की कद्र करते हैं, इसलिए समय खराब नहीं होता. तकनीक हमसे अधिक अच्छी है. उनके टेक्नीशियन अपने आप को हौलीवुड के करीब रखने की कोशिश करते है.
प्र. आपका टाइम मेनेजमेंट बहुत अच्छा रहता है, इसे कैसे करते हैं?
बचपन से हमारी आदत समय से काम करने की है, इससे हर काम पूरा हो जाता है. अभी मैं कोई अलग नहीं कर रहा हूं. समय को समझना बहुत जरुरी है. अगर हम इसे नहीं समझते हैं तो अपने साथ-साथ दूसरों के समय को भी नजरंदाज करते हैं, जो ठीक नहीं. हमें किसी को भी ग्रांटेड नहीं लेना चाहिए. मैं 4 फिल्में साल में कर पा रहा हूं, क्योंकि मैं किसी काम को ग्रांटेड नहीं लेता.
इसके अलावा आज कलाकार वैनिटी वेन में बैठा होता है और निर्माता, निर्देशक बाहर खड़े होकर उस कलाकार के निकलने का इंतजार करते है. जबकि जिसने वैनिटी वेन दी है, उसे ही अंदर होना चाहिए और कलाकार को बाहर. इस प्रकार ये गलत हो रहा है, ये जिस दिन बदल जायेगा इंडस्ट्री में और अधिक उन्नति होगी. ऐसा वर्ताव और किसी क्षेत्र में नहीं होता. जहां बौस बाहर हो और कर्मचारी वैन के अंदर.
प्र. हौलीवुड की तुलना में हमारे देश में ऐसी तकनीक वाली फिल्में अधिक नहीं चल पाती, ऐसे में इस फिल्म वीएफएक्स को अच्छा करने के लिए क्या हौलीवुड से किसी की मदद ली गई?
कहानी, स्क्रीनप्ले, स्क्रिप्ट और वीएफएक्स अच्छी होने पर फिल्म चलती है. बाहुबली जब रिलीज हुई तो किसी को पता नहीं था कि ये फिल्म इतनी अच्छी चलेगी. हिंदी फिल्म भी वैसी कोई नहीं बना पाया. उस फिल्म में एक कहानी थी, जिससे लोग जुड़े, उन्हें फिल्म देखने में मजा आया और फिल्म चली. मैं बिल्कुल भी ये नहीं मानता कि तकनीक वाली हमारी फिल्में नहीं चलती. अगर उसमें आत्मा हो तो अवश्य चलेगी.