हमें जीवन में केवल एक ही दुख था कि साहित्य साधना करते हमें 14 साल से अधिक हो गए लेकिन हमारी झोली में सम्मान का एक भी बजरबट्टू नहीं आया जबकि हमारे सामने पैदा हुए लल्लूराम एक दर्जन से भी अधिक न जाने कौनकौन सी संस्थाओं से सम्मान प्राप्त कर चुके थे.

हम अपनी यह पीड़ा किस से कहते? शाम को पार्क के एक कोने में पड़े पत्थर के आगे यह सोच कर कि कणकण में भगवान हैं, हम ने अपना माथा ठोका और अपनी बात को रखते हुए प्रार्थना की. कौन कहता है कि पत्थर नहीं सुनता? सर्वव्यापी ईश्वर चारों दिशाओं से देखता है, सो हमारे प्रार्थनापत्र पर भी बहुत जल्दी काररवाई हो गई.

अगले दिन डाक से एक बैरंग पत्र मिला जिसे हम ने छुड़ा लिया. उस पत्र में कुछ ऐसा लिखा था :

प्रिय,

साहित्य बंधु,

आप की साहित्य सेवा बरसों से निस्वार्थ जारी है. बंधु, हम आप को राष्ट्रीय हिंदी सेवी का सम्मान देना चाहते हैं जिस में आप की सहमति आवश्यक है.

कृपया शीघ्र फार्म भर कर अपनी एक दर्जन फोटो के साथ हमें पत्र का उत्तर दें.

आप का जगधर.

हम ने पत्र पढ़ा तो फूले नहीं समाए. तत्काल उस पत्र की एक दर्जन फोटोकापी करवा कर अपने शहर के सब से आला दरजे के होटल में एक प्रेसवार्त्ता रख ली. वहां सब पत्रकार बंधुओं को पत्र की फोटो प्रतियां दीं तथा अपनी साहित्य यात्रा के बारे में उन्हें बताया. प्रेसवार्त्ता पर पूरे 3 हजार रुपए खर्च हो गए. अगले दिन से पूरे 5 दिन तक शहर के तमाम पेपरों को देखा लेकिन किसी ने एक पंक्ति भी नहीं छापी. भला हो एक साप्ताहिक का जिस ने 2 पंक्ति का एक समाचार लगा दिया था. मित्रों ने हमें पत्र की फोटोकापियां दीं तब जा कर हमें पता चला कि राष्ट्रीय पुरस्कार के पत्र हमारे शहर में दर्जन भर साहित्यकारों को और मिले हैं. हमारा मन खट्टा हो गया.

हम ने उक्त संस्था को अपने फोटो तथा लोकल साप्ताहिक में छपी रचनाओं की फोटोप्रतियां भेज दीं. एक सप्ताह बाद संस्था से पंजीयन कराने के लिए एक पत्र मिला जिस की फीस 1 हजार रुपए थी तथा ठहरने, खाने की व्यवस्था के लिए 700 रुपए अतिरिक्त देने थे. हम भला परदेस में कहां ठहरते? पत्नी और हमारी एकमात्र सास भी जाने की जिद कर रही थीं सो उन के ठहरने, खाने का अतिरिक्त धन भी साथ में भेज दिया.

एक सप्ताह बाद फिर पत्र आया कि सम्मान में आप शाल कौन सी लेना चाहेंगे? श्रीफल कहां का पसंद करेंगे? मुख्य अतिथि किस को चाहेंगे?

हम ने अपनी पसंद लिख भेजी. अगले दिन ही पत्र आ गया कि आप की पसंद जानने का अवसर मिला. इन सब की पूर्ति के लिए कृपया शीघ्र 5 हजार रुपए मनीआर्डर से भेजने का कष्ट करें.

हम ने चूंकि सब प्रचारप्रसार कर दिया था, पूर्व में 5 हजार रुपए भेज दिए थे, ऐसे में यह 5 हजार रुपए और नहीं भेजते तो बेइज्जती होती. सो हम ने बिना किसी को बताए मनीआर्डर भेज दिया.

सम्मान की तारीख आ गई थी. हम बहुत खुश थे. कटिंग व फेशियल करवा लिया था. केशों में खिजाब भी लगवा लिया था. हमारी सास ने भी यह सब टोटके कर लिए थे. तैयारी पूरी हो गई कि फोन आया कि मंत्रीजी के आने से डेट आगे बढ़ गई है. आप को शीघ्र सूचित कर दिया जाएगा. हमारे अरमानों पर पानी फिर गया. प्रतीक्षा के अलावा हम कर भी क्या सकते थे?

1 माह बाद फिर तारीख आई. हम ने पूरी तैयारी कर ली थी. हम पूरे खानदान के साथ स्लीपर कोच से वहां पहुंचे. उम्मीद थी एक दर्जन संस्था के कार्यकर्ता हारफूल ले कर मिलेंगे लेकिन वहां तो कोई चिडि़या भी नहीं थी. हम आटोरिकशा ले कर दिए गए पते पर पहुंचे. वहां काफी भीड़ थी. जगधरजी को खोजा, वह परेशान, पसीना पोंछते मिल गए.

‘‘तो आप हैं गोपालजी.’’

‘‘हें…हें…’’ हम ने हंसते हुए कहा.

‘‘देखिए बंधु, मैं थोड़ा बिजी हूं. जो पूरी व्यवस्था को देख रहा था वह सब रुपया ले कर फरार हो गया है. पूरी जिम्मेदारी मेरे सिर पर आ गई है.’’

‘‘ओ हो, लेकिन हमारे ठहरने की व्यवस्था?’’

‘‘बंधु, यह टेंट लगा है. आप कहीं भी ठहर जाएं, लोट जाएं, पूरा देश अपना है,’’ कह कर वह हीही कर के आगे चल दिए. मैं सोच रहा था कि यह समस्त भीड़ सम्मान समारोह में उत्साहवर्द्धन करने वालों की होगी लेकिन मेरी सोच गलत थी. यह सब सम्मान लेने वालों की भीड़ थी. कुछ कल के लड़के थे और कुछ के पांव कब्र में लटक रहे थे.

हम ने खोज कर एक लौज में कमरा लिया और पूरे खानदान ने पहले भोजन किया और फिर समारोह के निश्चित समय पर जा पहुंचे. पंडाल भरा हुआ था तथा मंच पर वार्ड का कोई काला भैंसे जैसा नगर पंचायत का पार्षद खड़ा था. जगधरजी एक के बाद एक कर नाम पुकार रहे थे. सब दौड़दौड़ कर पहुंच रहे थे. कांधे पर एक 5 रुपए का गमछा तथा एक राष्ट्रीय सम्मान का प्रमाणपत्र दिया गया. 5 घंटे के इस आयोजन में हजार साहित्य बंधुओं को निबटाया गया होगा. हम भी दौड़ कर पहुंच गए थे. पत्नी फोटो उतारती उस के पहले कार्यकर्ता ने धक्का मार कर आगे कर दिया था.

हम ने भाषण तैयार किया था, जो हम नहीं दे सके. पूरे कार्यक्रम के बाद भोजन रखा था. 5-10 किलो पूरियां एवं सब्जी रखी थी. 10 मिनट में सब सामान खत्म हो गया था. हम तो इस जोर आजमाइश में पहुंच भी नहीं पाए. लौट कर हम जब रेलगाड़ी के डब्बे में बैठे तो हमारी पत्नी ने कहा, ‘‘जगधर भाई ने लगभग 25-30 लाख रुपए कमा लिए.’’

‘‘बिलकुल सच कहा,’’ हम ने थूक गटकते हुए कहा.

हमारी सास ने कहा, ‘‘दामादजी यह धंधा तो चोखा है, न हींग लगे न ही फिटकरी रंग चोखा हो जाए.’’

हम कुछ नहीं बोले. शहर लौट कर हम ने एक पार्टी दी जिस में 5 हजार खर्च हो गए. कुल जमा हम 20-25 हजार रुपए पर उतर गए. इतना तो हम ने उम्र भर नहीं कमाया था.

लेकिन हमारी पत्नी और हमारी सास की कही गई बातें हमें जंच गईं और हम ने निर्णय ले लिया कि हम भी सम्मान प्रदान करने का यह धंधा शुरू कर देंगे.

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