किसी भी चुनावी सर्वे और राजनैतिक विश्लेषण तो दूर आम आदमी पार्टी की चर्चा राजनीति के बड़े अड्डों चौराहों और गुंठियों तक पर नहीं है, मध्यप्रदेश, राजस्थान और छतीसगढ़ तीनों राज्यों में आप किसी गिनती में नहीं है बावजूद इस हकीकत के कि दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप के मुखिया अरविंद केजरीवाल की लोकप्रियता इन तीनों राज्यों में किसी सबूत की मोहताज नहीं. हर कोई कहता और मानता है कि सीएम हो तो केजरीवाल जैसा जिसने दिल्ली की काया पलट कर रख दी और अकेले अपने दम पर नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी जैसे दिग्गज राष्ट्रीय नेताओं की नाक में दम कर रखा है.

यह ठीक है कि आप जिन हालातों में बनी थी वह वक्त की मांग थी और अरविंद केजरीवाल अन्ना हज़ारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की देन थे लेकिन यह अरविंद केजरीवाल की काबिलियत ही थी कि उन्होंने दिल्ली की जनता को निराश नहीं किया और वहां एक बेहतर शासन देने में दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्रियों से बढ़त हासिल कर ली पर तीन राज्यों में आप की हालत चुनावी हाजिरी भर लगाने की हो गई है तो इसकी वजहें भी हैं.

इनमें से पहली है संगठनात्मक ढांचे का न होना हालांकि आप की इकाइयां जिला और तहसील स्तर तक गठित हो गईं हैं लेकिन आम आदमी को वे समझा पाने में नाकाम रहीं हैं कि आप उनके लिए क्यों जरूरी है. मैदानी और सक्रिय कार्यकर्ताओं का टोटा भी आप में है इससे जुड़े लोगों की कोई खास पकड़ वोटर पर नहीं है. मिसाल मध्यप्रदेश आप के अध्यक्ष आलोक अग्रवाल जिन्हें पार्टी अपना मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित कर चुकी है को ही लें तो उनका नाम शहरी लोग जानने लगे हैं लेकिन जिस भोपाल दक्षिण सीट से वे लड़ रहें हैं वहां ही उनको लेकर कोई उत्साह या उत्सुकता नहीं है. इस सीट के प्रमुख इलाके शिवाजी नगर के कोई सौ मतदाताओं को जब इस प्रतिनिधि ने टटोला तो सभी का जवाब था कि आप दौड़ में है कहां फिर क्यों उसे वोट देकर वोट जाया करें यह इलाका तो भाजपा का गढ़ है पर इस बार उसकी भी हालत खस्ता है.

यह हालत या जवाब हर विधानसभा सीट पर बराबरी से है. आप अपने प्रत्याशियों के नाम घोषित करती जा रही है लेकिन कोई रेस्पोंस उसे नहीं मिल रहा है. आप की दूसरी कमी मीडिया से दूरी है अब से तीन साल पहले तक आप को तीनों राज्यों में एक सशक्त विकल्प माना जाता था और मीडियाकर्मी आप के पीछे भागते थे पर अब हालत उलट है आप की पत्रकार वार्ताओं में 4-6 पत्रकार ही दिखते हैं.

क्या साजिश की शिकार हुई आप –  आखिर तीन सालों में ऐसा क्या हो गया कि आप की शाम भरी दोपहर में ही होने लगी है. इस सवाल पर बारीकी से गौर करें तो आप की अंदरूनी खामियों के अलावा हालातों की मार और सियासी साजिश की बू भी आती है. कमलनाथ का मध्यप्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनते ही भाजपा से नाउम्मीद वोटरों में यह आस जागी कि कांग्रेस अभी है और पूरे दमखम से है नहीं तो इसके पहले आम लोगों ने कांग्रेस को विकल्प मानना ही छोड़ दिया था. कांग्रेस को भी समझ आ गया था कि इस बार अगर एकजुट होकर लड़ाई नहीं लड़ी तो उसका यह राज्य भी तीसरी ताकतों के हाथ में चला जाएगा.

यानि कांग्रेस का ग्राफ बढ़ना आप के ग्राफ गिरने की बड़ी वजह बनी लेकिन उससे से भी ज्यादा अहम वजह रहे बीती 2 अक्तूबर को वजूद में आए 2 दल सपाक्स और जयस. इनमें से भी सपाक्स एक बड़ा फेक्टर है जो कहने को तो सवर्णों का है और आरक्षण और एससी एसटी एक्ट का विरोध करता है लेकिन यह चर्चा एकदम बेदम नहीं है कि सपाक्स के गठन और उसे रातोंरात मिली शोहरत के पीछे भाजपा और आरएसएस का हाथ है.

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दरअसल में जैसे ही केंद्र सरकार ने संसद में एससी एसटी एक्ट पर दलितों के सामने घुटने टेके तो देश भर के ऊंची जाति वाले गुस्सा उठे मध्यप्रदेश में इस गुस्से का असर तब दिखा जब 2 अप्रैल की दलित हिंसा के बाद सवर्ण एकजुट होकर सड़कों पर आने लगे. कोई शक नहीं कि सवर्ण भाजपा का परंपरागत वोट बेंक है इसकी नाराजी की कीमत तो अब भी भाजपा को चुकाना तय दिख रहा है पर सपाक्स का चुनावी मैदान में कूद पड़ना एक अलग और अनूठी बात है.

अब सपाक्स भी मध्यप्रदेश की सभी 230 सीटों पर चुनाव लड़ रही है जिसका नुकसान आप को भी उठाना पड़ रहा है नहीं तो 2 अप्रैल की हिंसा के पहले “आप” को सियासी हलक़ों में तीसरी ताकत हर कोई मान रहा था.  यह अंदाजा गलत नहीं था कि बड़ी तादाद में ऐसे वोटर हैं जो भाजपा और कांग्रेस दोनों को ही पसंद नहीं करते ये अगर आप के खेमे में जाते तो किसी को हैरानी नहीं होती लेकिन सपाक्स के गठन ने ऐसे वोटरों को जाति के नाम पर एक नया  विकल्प दे दिया है.

भगवा खेमे के रणनीतिकार यह गुणाभाग लगाते खुश हैं कि अब सवर्ण वोट तीन हिस्सों में बंट जाएगा जिससे भाजपा की हार जीत पर बड़ा और मारक असर नहीं पड़ेगा. सपाक्स अगर हर सीट पर औसतन तीन हजार वोट भी ले जाती है तो उसमें से एक एक हजार कांग्रेस और आप के हिस्से के भी होंगे. इस गणित का असर भाजपा और कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टियों से ज्यादा आप पर पड़ा जो इन्हीं एक हजार को दस हजार में तब्दील करते बड़ा उलटफेर कर सकती थी वह मौका उससे छिन गया है.

बहुत हैरतअंगेज तरीके से उभरी आदिवासियों की पार्टी जयस की पूछपरख अगर आप से कहीं ज्यादा है तो उसकी वजह आदिवासियों की एकजुटता है उन्हें इस पार्टी में अपनापन नजर आ रहा है जिसके चलते आदिवासी इलाकों में आप पैर नहीं पसार पा रही खासतौर से मालवा निमाड अंचल में जहां कांग्रेस और भाजपा में सीधा मुक़ाबला होता आया है. आप यहां कुछ कर गुजर सकती थी लेकिन वह मौका जयस ने झटक लिया है जो भाजपा के वोट ज्यादा काटेगी. अलावा इसके जयस में शिक्षित आदिवासियों की फौज है जिसमें जोश है और आदिवासी इस पार्टी को ठीक वैसे ही चंदा दे रहे हैं जैसे सवर्ण सपाक्स को दे रहे हैं.

यानि आप जाति धर्म या समुदाय के नाम पर लड़ती तो ही यहां कामयाब हो पाती. अगर तुलना दिल्ली से करें तो वहां भी छुआछूत और जातपात है लेकिन इन तीन राज्यों से बहुत कम है. अरविंद केजरीवाल चुनाव के पहले इन तीनों राज्यों में रोड शो करेंगे और उनमें भीड़ भी उमड़ेगी लेकिन यह भीड़ वोटों में तब्दील होगी इसकी उम्मीद कम ही है वजह इन राज्यों में मुद्दा भ्रष्टाचार कम जाति ज्यादा हो गया है जो जानबूझकर बनाया गया है.

ऐसे में आप का भविष्य इन राज्यों में अच्छा तो कतई नहीं कहा जा सकता जिसकी जिम्मेदार आप की राज्य इकाइयां भी कम नहीं जो यह मानते धरने  प्रदर्शन करतीं रहीं की आप को तो दिल्ली और अरविंद केजरीवाल के नाम पर बिना कुछ करे धरे वोट मिल जाएंगे. ये इकाइयां अपनी तरफ झुके वोटों को कायम रखने में नाकाम रहीं हैं जिससे लगता है कि राजनीति में तजुर्बा एक बड़ा फैक्टर होता है और हर राज्य में एक बड़े नाम का होना भी जरूरी है जो कि आप के पास नहीं है.

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