वो मेरे सामने बनठन के आज आई हैं,
लग रहा मांग रहीं मुझ से मुंह दिखाई हैं.

मैं ने तो भर नजर देखा नहीं अभी उन को,
बेवजह आज वो दुलहन सी क्यों शरमाई है.

उन के पाजेब की आवाज क्यों नशीली है,
लग रहा पांव में थिरकन की अदा आई है.

आज बेलौस दुपट्टा सरक रहा है क्यों,
लग रहा धड़कनों में बहार आई है.

आंख की पुतलियां नाच रही सुधबुध खो,
देखने की अदा तूफान बन कर आई है.

खोल कर जुल्फ वो काली घटा सी तैर रहीं,
उन की मुसकान ने दिल में कहर मचाई है.

डालियों की सी उन के बदन में लचक है,
चाल की लहर मेरे मन में उतर आई है.

उन के जलवों का बुलावा अकारण क्यों,
मेरी सोई हुई उम्मीद ने ली अंगड़ाई है.

अब तो आ जा करीब, तेरे बदन को छू लूं,
देख तू, हसरतें मेरी भी कसमसाई हैं.

– नीलम कृष्णदेव कुंद

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