सुप्रीम कोर्ट के 4 वरिष्ठ जजों ने 12 जनवरी को भारत के मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध प्रैस कौन्फ्रैंस कर के न्यायपालिका और लोकतंत्र को बचाने की अपील की तो देश सकते में आ गया. न्यायिक और राजनीतिक क्षेत्रों में हलचल मच गई. देश में एक अजीब स्थिति पैदा हो गई. न्यायिक इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है.
जजों ने जनता की अदालत में आ कर जो कुछ कहा, सामान्य नहीं, बहुत गंभीर है. जजों के मतभेद खुल कर सामने आने के बाद न्याय का सब से बड़ा मंदिर शक के कठघरे में आ गया. जजों का इशारा स्पष्ट तौर पर न्याय के मंदिर में न्याय के ढोंग, पाखंड की ओर है. उच्च न्यायपालिका पर दबाव या फिर नेता, अपराधी और न्यायतंत्र के अपवित्र गठजोड़ की तरफ संकेत है.
12 जनवरी को 12:15 बजे सुप्रीम कोर्ट के 4 सीनियर जज जस्टिस जस्ती चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, कुरियन जोसेफ और मदन बी लोकुर अचानक मीडिया के सामने आए. इन्होंने चीफ जस्टिस के तौरतरीकों पर सवाल उठाए, कहा कि लोकतंत्र खतरे में है. ठीक नहीं किया गया तो सब खत्म हो जाएगा.
चीफ जस्टिस पर आरोप
जस्टिस चेलमेश्वर ने शुरुआत करते हुए कहा कि यह कौन्फ्रैंस करने में हमें कोई खुशी नहीं है. यह बहुत ही कष्टप्रद है. हम ने 2 माह पहले चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा को पत्र लिखा था और शिकायत की थी कि महत्त्वपूर्ण मामले उन से जूनियर जज को न दिए जाएं पर चीफ जस्टिस ने कुछ और ऐसे फैसले किए जिन से और सवाल पैदा हुए. इतना ही नहीं, आज (12 जनवरी) भी हम मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा से मिले और संस्थान को प्रभावित करने वाले मुद्दे उठाए पर वे नहीं माने. इस के बाद हमारे सामने कोई विकल्प नहीं रह गया. अपनी बात देश के सामने रखने का फैसला किया. कल को लोग यह न कह दें कि हम चारों जजों ने अपनी आत्मा बेच दी.
जस्टिस चेलमेश्वर ने कहा कि मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा महत्त्वपूर्ण मामले स्वयं सुनते हैं और दूसरे जजों को इस काम का मौका नहीं देते. देश की व्यवस्था के लिए अहम मामले अपनी पसंद की कुछ खास बैंचों में भेजते हैं. यह कार्य तर्क और विवेक के आधार पर नहीं होता.
चेलमेश्वर ने चीफ जस्टिस को 2 महीने पहले लिखा 7 पेज का पत्र भी जारी किया. इस में केस आवंटन की मनमानी प्रक्रिया के बारे में वर्णन था. चेलमेश्वर ने कहा कि यह सब खत्म होना चाहिए. जस्टिस कर्णन पर दिए गए फैसले में हम में से 2 जजों ने नियुक्ति प्रक्रिया को दोबारा देखने की जरूरत बताई थी, महाभियोग के अलावा अन्य रास्ते भी खोलने की मांग की थी. कोर्ट ने कहा था कि एमओपी में देरी न हो. केस संविधान पीठ में हैं तो दूसरी बैंच कैसे सुन सकती है. कोलेजियम ने एमओपी मार्च 2017 में भेजा पर सरकार का जवाब नहीं आया. मान लें कि वही एमओपी सरकार को मंजूर है.
जब जस्टिस चेलमेश्वर से यह पूछा गया कि क्या यह मुलाकात गैंगस्टर सोहराबुद्दीन मुठभेड़ के ट्रायल जज बृजगोपाल हरकिशन लोया की मौत की जांच जस्टिस अरुण मिश्रा की पीठ को सौंपने के खिलाफ थी जो वरिष्ठता में 10वें नंबर पर हैं?
चेलमेश्वर ने कहा कि आप यह मान सकते हैं.
मालूम हो कि दिल्ली प्रैस समूह की अंगरेजी पत्रिका ‘दी कैरेवान’ ने जज लोया की मौत को संदिग्ध हालत में हुई बताती रिपोर्ट औनलाइन प्रकाशित कर दिया तो हड़कंप मच गया. बृजगोपाल हरकिशन ?लोया मुंबई में सीबीआई के विशेष जज थे. उन की मौत 30 नवंबर और 1 दिसंबर, 2014 की रात को हुई. उस रात वे नागपुर में थे. उस समय सोहराबुद्दीन मामले की सुनवाई चल रही थी जिस में मुख्य आरोपी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह व अन्य लोग हैं.
इस की जांच की मांग को ले कर लगी याचिका को बंबई हाईकोर्ट ने स्वीकार कर लिया. इसे अचानक सुप्रीम कोर्ट ने सुनना शुरू कर दिया. चूंकि जस्टिस लोया विवादित सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले की सुनवाई कर रहे थे, इसलिए यह विवाद और गहरा गया क्योंकि इस में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह व कई प्रभावशाली लोग आरोपी हैं.
चारों जजों को इस मामले में भी आपत्ति है. ये जज इस मामले की सुनवाईर् के इच्छुक थे पर चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने इस मामले को मनमाने तरीके से जस्टिस अरुण मिश्रा की पीठ को दे दिया, जिस में जस्टिस एम एम शांतानागौडर शामिल हैं. यह जूनियर अदालत है.
मामले को ले कर बंबई लायर्स एसोसिएशन ने जनहित याचिका दाखिल की है. एसोसिएशन की ओर से वरिष्ठ वकील दुष्यंत दवे ने तो खुल्लमखुल्ला कह दिया है कि हर कोई जानता है कि जस्टिस अरुण मिश्रा के भाजपा और उस के बड़े नेताओं से नजदीकी संबंध हैं. जबकि, इस प्रकार आरोप लगाना सही नहीं कहा जा सकता.
दवे ने यह भी कहा कि यह मामला बंबई हाईकोर्ट में लंबित है और शीर्ष अदालत को इस पर सुनवाई करने से बचना चाहिए. इस पर पीठ ने दवे से कहा कि शीर्ष अदालत को इसे क्यों नहीं सुनना चाहिए. हालांकि, अब जस्टिस अरुण मिश्रा की पीठ इस मामले से हट गई है.
इसी तरह चेलमेश्वर ने एमओपी संविधान पीठ 2016 का जिक्र किया. इस पीठ में जस्टिस चेलमेश्वर और कुरियन जोसेफ थे. चेलमेश्वर ने कहा कि वह फैसले का विषय था तो कोई दूसरी बैंच इसे कैसे सुन सकती है. यह आपत्ति न्यायाधीशों की नियुक्ति संबंधी सरकार के साथ निर्धारित सहमतिपत्र के बारे में है जिस पर एक बार 5 जजों की पीठ से सुनवाईर् हो चुकी थी पर मुख्य न्यायाधीश ने इसे छोटी बैंच को भेज दिया.
सिस्टम में पेंच
चारों जज मैडिकल कालेज घोटाले के उस मामले में भी खफा हैं जिस की सुनवाई भी चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने एक बैंच से ले कर दूसरी को सौंप दी. मामला लखनऊ मैडिकल कालेज छात्र भरती घोटाले से संबंधित है जिसे जस्टिस चेलमेश्वर ने गंभीर मान कर 5-सदस्यीय पीठ गठित कर दी थी और जिसे चलती कोर्ट में रोकने के लिए चीफ जस्टिस ने एक स्लिप भेजी थी पर जस्टिस चेलमेश्वर नहीं माने. लेकिन चीफ जस्टिस ने अगले ही दिन नई बैंच से उसे खारिज कर दिया. इस घोटाले में गंभीर आरोप न्यायपालिका पर भी थे, इसलिए विवाद और गहरा गया.
मैडिकल घोटाले में ओडिशा के दलाल, हवाला कारोबारी शामिल थे. ओडिशा हाईकोर्ट के जज आई एम कुद्दूसी इस मामले में भ्रष्टाचार करने और पद के दुरुपयोग करने के आरोपी हैं. और याचिकाकर्ता कह चुका था कि चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा भी ओडिशा से हैं, इसलिए वह उन की बैंच में केस नहीं लगाना चाहता. इस पर भारी रोष था. बाद में उस पर कोर्ट ने 25 लाख रुपए का जुर्माना लगाया था.
कलकत्ता उच्च न्यायालय के जस्टिस सी एस कर्णन का विवादित मामला भी था. उन्होंने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को 20 भ्रष्ट जजों की लिस्ट भेजी थी लेकिन उन पर तो कोई कार्यवाही नहीं हुई, उलटे जस्टिस कर्णन को अवमानना मामले में जेल भेज दिया गया. जस्टिस कर्णन मामले में 7 जजों की संविधान पीठ बनी. पीठ ने कहा कि वे या तो जजों पर लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोपों का साबित करें या अपनी भूल के लिए माफी मांगें.
जस्टिस कर्णन ने अपने मामले की सुनवाई करने वाली संवैधानिक पीठ के सातों जजों के खिलाफ जातिगत भेदभाव के आरोप लगाए. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की बहुत विचित्र हालत देखी गई.
प्रैस कौन्फ्रैंस में जो इन मामलों का जिक्र सामने आया है, वे पहले भी उठते रहे हैं.
असल में यह तो न्याय के इस महासागर में ऊपर दिखने वाला एक छोटा सा हिमखंड है. भीतर कितना बड़ा आइसबर्ग छिपा है, अंदाजा लगाया जा सकता है. चारों जजों की चीफ जस्टिस से कोई व्यक्तिगत लड़ाई नहीं है. वे निजी खुंदक की बात नहीं कर रहे हैं. यह पदप्रतिष्ठा की लड़ाई भी नहीं है. प्रैस कौन्फ्रैंस करने वाले 4 जजों में से 3 इसी साल रिटायर हो जाएंगे. ये सभी वरिष्ठ जज विधि व्यवस्था की बात करते हैं.
न्यायपालिका पर सवाल
समयसमय पर उच्च न्यायपालिका पर उंगली उठती रही है. कुछ सालों पहले ‘अंकल जजेज सिंड्रोम’ चर्चित हुआ था. 2009 में भारत के विधि आयोग ने अपनी 230वीं रिपोर्ट में उच्च न्यायालयों में ‘अंकल न्यायाधीशों’ की नियुक्ति के मामले में उल्लेख किया था कि न्यायाधीशों, जिन के परिजन उच्च न्यायालय में प्रैक्टिस कर रहे हैं, को उच्च न्यायालय में नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए.
उसी समय सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के बारे में कहना पड़ा था, ‘‘समथिंग इज रौटन इन द इलाहाबाद हाईकोर्ट.’’
यह मशहूर पंक्ति शेक्सपियर के हैमलेट में है जिस में कहा गया है कि ‘डेनमार्क के राज्य में कुछ सड़ा हुआ है.’ यह पंक्ति उच्च स्तरों में भ्रष्टाचार औैर नैतिकता की कमी का उल्लेख करने के लिए मानक वाक्य बन गई है.
असल में एक मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के कुछ जजों के भ्रष्टाचार की शिकायतों पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू और ज्ञानसुधा मिश्रा की पीठ ने यह टिप्पणी की थी. सुप्रीम कोर्ट में शिकायतें आ रही थीं कि कुछ न्यायाधीशों के पास अपने दोस्त और रिश्तेदार हैं जो अदालत में वकील के रूप में प्रैक्टिस करते हैं.
पीठ ने कहा था कि प्रैक्टिस शुरू करने के कुछ समय बाद ही जजों के बेटे और रिश्तेदार मल्टी मिलेनियर बन जाते हैं. वे आलीशान बंगले, बैंक बैलेंस, शानदार कार के मालिक बन जाते हैं.
उसी दौरान सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एस एच कपाडि़या ने हाईकोर्ट के 20 जजों के तबादले कर दिए थे.
2003 में बार कौंसिल औफ इंडिया यानी बीसीआई ने सभी जजों से मांग की थी कि यदि उन के करीबी रिश्तेदार उसी अदालत में प्रैक्टिस करते हैं तो वे पहले से जानकारी दें. बार कौंसिल को पता चला था कि उच्च न्यायालय में बड़ी संख्या में ऐसे न्यायाधीश हैं. बीसीआई ने एक वकील के लिए व्यावसायिक आचरण और शिष्टाचार के मानक के रूप में नियम निर्दिष्ट किया था. नियम के अनुसार, किसी अधिवक्ता और न्यायाधीश के पिता, दादा, पुत्र, पोते, चाचा, भाई, भतीजे, चचेरे भाई, पति, पत्नी, मां, बेटी, बहन, सास, चाची, भतीजी, दामाद या भाभी के रूप में संबंधित हैं.
नहीं है कारगर उपाय
इस के बाद बीसीआई ने केंद्रीय कानून मंत्रालय को 21 उच्च न्यायालयों में 131 ‘अंकल जजों’ और उन के 180 अधिवक्ताओं की और उन के रिश्तों के नाम के साथ सूची भेजी थी. लेकिन अभी तक न तो न्यायपालिका और न ही सरकार इस पर कोई कारगर उपाय कर पाई.
प्रसंगवश यह सामने आया है कि चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा पूर्व चीफ जस्टिस रंगनाथ मिश्रा के भतीजे हैं. चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने विवादित लोया मामला अरुण मिश्रा की पीठ को सौंपा है. जो कि 10वें नंबर पर जूनियर हैं, इस पर भी विवाद है.
असल में लोकतंत्र में न्याय के साथ खिलवाड़ इंदिरा गांधी के समय से ही शुरू हो गया था. 70 के दशक में इंदिरा गांधी ताकतवर हो कर उभर रही थीं पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उन्हें झटका दिया तो न्यायतंत्र से सर्वशक्तिमान बनने की कोशिश के रूप में उन्होंने देश पर इमरजैंसी थोप दी. अंदरूनी तौर पर न्यायपालिका में गोपनीयता और मौन के नाम पर अनगिनत लूपहोल नजर आते हैं पर अदालत और न्यायपालिका के सम्मान के नाम पर चुप्पी साध ली जाती है.
देश के जो प्रसिद्ध वकील हैं, यह नहीं कि वे कानून के ज्यादा विशेषज्ञ हैं, राजनीतिक रसूख की वजह से जजों के साथ उन की अच्छी सांठगांठ होती है. कौर्पोरेट और राजनीतिक दलों के साथ अंदरूनी खेल चलते रहते हैं.
अपने 3 वर्षों के शासन के दौरान भाजपा सरकार न्यायपालिका का विभाजन करने में सफल रही है. सरकार ने आते ही कोलेजियम सिस्टम को बदलने का प्रयास किया. 1993 से लागू कोलेजियम व्यवस्था को बदलने के लिए 2014 में सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग यानी एनजेएसी कानून पारित किया था लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार दे दिया. जस्टिस जे एस खेहर, जे चेलमेश्वर, एम बी लोकुर, कुरियन जोसेफ तथा ए के गोयल की 5 सदस्यीय संविधान पीठ ने एनजेएसी कानून को सर्वसम्मति से खारिज किया था.
इस फैसले से सुप्रीम कोर्ट और 24 हाईकोर्टों में जजों की नियुक्ति तथा तबादले की 2 दशकों से भी पुरानी कोलेजियम व्यवस्था फिर से बहाल हो गई. एनजेएसी कानून में जजों की नियुक्ति और तबादलों में सरकार की प्रमुख भूमिका रहती पर यह खत्म हो गया.
कोलेजियम व्यवस्था के बदले नई व्यवस्था के लिए 99वें संविधान संशोधन को भी असंवैधानिक करार दे दिया गया. पीठ ने उच्च न्यायपालिका में नियुक्ति के लिए सुप्रीम कोर्ट के 1993 और 1998 के फैसलों को समीक्षा के लिए भेजने का सरकार का आग्रह भी ठुकरा दिया.
इसे ले कर सरकार ने फिर से कोशिश की पर हल्ला मचा कि सरकार उच्च न्यायपालिका में हस्तक्षेप कर रही है. अब 4 जजों के मुख्य न्यायाधीश के कामकाज के प्रति विरोध प्रकट करना बताता है कि उन पर सत्ता का प्रभाव है. न्याय व्यवस्था में अब हालात सही नहीं हैं.
उच्च न्यायपालिका में अनियमितता गहरी है. संविधान, कानून अलग बातें हैं पर धार्मिक, जातीय पूर्वाग्रह अदालतों में आज भी कायम है. न्याय प्रभावशाली सामाजिक वर्ग के पक्ष में होता है. समयसमय पर यह बात बाहर आती रही है. फैसले पूर्वाग्रहपूर्ण होते हैं, यह बात कई बार सामने आती है. अमीरी, गरीबी, जाति, धर्म देख कर निर्णय होते रहे हैं. कभीकभी ‘न्याय’ विधिसम्मत से ऊपर धर्मसम्मत दिखते हैं.
आंकड़े बताते हैं कि देश की अदालतों में 3 करोड़ से ज्यादा मामले लंबित पड़े हैं. न्याय व्यवस्था में ऊपर से नीचे तक भेदभाव देखा जाता है. लाखों गरीब, दलित, पिछड़े छोटेछोटे मामलों में वर्षों से जेलों में बंद हैं या अदालतों के चक्कर लगा रहे हैं.
असल में यह हमारी प्राचीन न्यायिक व्यवस्था की सोच का असर है. प्राचीन भारतीय समाज में कानून अथवा धर्म, जिस का अनुपालन हिंदुओं द्वारा किया जाता था, मनुस्मृति द्वारा प्रतिपादित था. यह निष्पक्ष नहीं, वर्णव्यवस्था पर आधारित था. महाभारत में मनुस्मृति को कई जगह सर्वोच्च धर्मशास्त्र व न्यायशास्त्र घोषित किया गया है. यही वजह है कि यहां न्याय गरीबों, वंचितों, निचलों, किसानों, आदिवासियों के लिए नहीं है. कौर्पोरेट, अपराधी, राजनीतिबाजों की सांठगांठ न्यायिक व्यवस्था में उजागर होती रही है.
समाज व सरकार में दरार
भारत की न्याय व्यवस्था विश्व में श्रेष्ठ मानी जाती है. मुसलिम देशों में धर्म की तानाशाही, अमानवीय न्याय संवैधानिक न्याय बना हुआ है. धार्मिक कानून वाले देशों को छोड़ दें तो विकसित अमेरिका, यूरोप के देशों के संविधान विज्ञान व प्राकृतिक आधारित हैं.
एक बार सुप्रीम कोर्ट का मतभेद सार्वजनिक हो जाने के बाद अब लगता नहीं कि यह दरार फिर से भर पाएगी. सुप्रीम कोर्ट के सभी 24 जज परस्पर एक रह पाएंगे, अब मुश्किल होगा. हर एक पर किसी न किसी का ‘आदमी’ होने का ठप्पा लगेगा. अब पीठें बनेंगी तब भी जजों के मतभेद उभरेंगे.
सुप्रीम कोर्ट, अटौर्नी जनरल और बीसीआई सब कहते हैं कि मामला घर का है और सुलझा लिया गया है पर घर में, एक बार मतभेद दुनिया के सामने आ जाने के बाद, वापस वही प्रतिष्ठा आ पाना कठिन है.
दरअसल, समाज और सरकार में जो दरार पड़ी है उस का असर अब न्याय व्यवस्था पर भी पड़ रहा है, इस दौर में व्यापक पैमाने पर सामाजिक विभाजन हुआ है. समूचे देश में हिंदूमुसलमानों के बीच खाई बढ़ी है. दलितों और पिछड़ों, पिछड़ों और मुसलमानों के मध्य तनाव, हिंसा बढ़ी. यही नहीं, पिछड़ी जातियों के बीच भी परस्पर वैमनस्य बढ़ा है. जाटों, गुर्जरों, राजपूतों, पटेल, पाटीदारों में एकदूसरे से दूरियां हुईं. समाज को बांटने वाली अनगिनत घटनाएं पिछले समय हुईं.
इस विभाजन को पाटने के लिए न तो राजनीतिक दल, न सामाजिक संगठन और न ही एनजीओ ने कोई प्रयास किया.
यह समस्या भारत में ही नहीं, विश्वव्यापी है. यह विघटन की दरार सामाजिक, राजनीतिक क्षेत्र से होती हुई उच्च न्यायपालिका तक जा पहुंची, जो दिखने भी लगी है. आजादी के इतने सालों बाद भी समाज में न्याय का सिद्धांत पूरी तरह लागू नहीं है. 1947 में स्वतंत्रता के बाद भारतीय संविधान में जिस समानता, स्वतंत्रता, न्याय का सपना देखा गया था वह ध्वस्त होता दिख रहा है. न्याय की अवधारणा पर चोट पहुंचती रही है.
कुछ समय से देश में धर्मविशेष राष्ट्र बनाने की मुहिम चल रही है. अखंड भारत कहलाने वाला यह देश वह है जहां राजा को न्याय की सलाह पुरोहित देते रहे हैं. शंबूक वध का उदाहरण है जहां पुरोहितों के कहने पर राजा राम ने शूद्रों के लिए निषिद्ध तप करने पर उस का सिर कलम कर दिया.
डर है कि कहीं न्यायतंत्र जातिविशेष और सत्ता की कठपुतली न बन जाए. जजों का यह कहना कि लोकतंत्र खतरे में है, यह कोर्ट का आंतरिक मामला नहीं है. हर भारतीय के लिए यह चिंता का विषय होना चाहिए.
जजों से निबटने की जटिल प्रक्रिया
मौजूदा व्यवस्था में उच्च या सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के खिलाफ केवल महाभियोग का ही प्रावधान है. पर यह प्रक्रिया जटिल है. आज तक किसी जज को इस प्रक्रिया के जरिए हटाया नहीं जा सका. महाभियोग के अलावा उच्च न्यायालय के किसी जज को दंडित करने के नाम पर एक राज्य से दूसरे राज्य में भेजा जा सकता है.
इसलिए यह चर्चा समयसमय पर उठती रही है कि जजों के मामले में कुछ ऐसे प्रावधान होने चाहिए जो न तो महाभियोग जितने कठोर और जटिल हों और न ही इतने हलके कि दोषी सिर्फ तबादला पा कर बच निकले.
जस्टिस कर्णन मामले में ऐसे किसी विकल्प का सुझाव देने को कहा गया था. इस संबंध में यूपीए सरकार के समय जुडिशियल स्टैंडर्ड्स ऐंड अकाउंटेबिलिटी बिल-2010 लाया गया था. इस बिल में एक ऐसी समिति के गठन का प्रावधान था जो जजों के खिलाफ आने वाली शिकायतों को दर्ज कर उन की जांच करती. कोई भी व्यक्ति किसी भी जज के व्यवहार या अक्षमताओं से संबंधित मामले की शिकायत इस समिति में कर सकता था. बिल में दोषी पाए जाने वाले जजों के खिलाफ कार्यवाही किए जाने के भी प्रावधान थे.
2012 में यह बिल लोकसभा से तो पारित हो गया पर राज्यसभा में इस में कई बदलाव किए गए. न्यायपालिका को भी इस के कई प्रावधानों पर आपत्ति थी. इसलिए यह बिल करीब 4 साल लंबित रहा और फिर 2014 में लोकसभा भंग होने के साथ ही लैप्स हो गया. ऐसे में आज भी किसी उच्च या सर्वोच्च न्यायालय के जज के खिलाफ कार्यवाही करने के लिए महाभियोग जैसे लगभग असंभव विकल्प के अलावा दूसरे विकल्प मौजूद नहीं हैं.
जजों का पत्र
प्रिय मुख्य न्यायाधीश,
दुख और चिंता के साथ हम ने यह उचित समझा कि आप को पत्र लिख कर कुछ न्यायिक आदेशों को रेखांकित किया जाए जिन से न्याय वितरण व्यवस्था का कार्य न सिर्फ विपरीत रूप से प्रभावित हुआ है, हाईकोर्टों की आजादी के प्रभावित होने के अतिरिक्त चीफ जस्टिस के प्रशासनिक कार्य को भी प्रभावित किया है. कोलकाता, बंबई और मद्रास हाईकोर्ट के स्थापित होने के बाद कुछ परंपराएं और रूढि़यां कायम हुई थीं और उन्हें लगभग एक शताब्दी के बाद बने सुप्रीम कोर्ट ने भी अपनाया है. इन में से एक परंपरा यह है कि चीफ जस्टिस रोस्टर के मास्टर होते हैं. इस के अंतर्गत वे केसों को वितरण करते हैं. पर यह, चीफ जस्टिस को अन्य साथी जजों पर कोई कानूनी वरिष्ठता प्राधिकार नहीं देता.
देश की न्यायपालिका में यह स्थापित है कि मुख्य न्यायाधीश बराबरी वालों में सब से ऊपर हैं. न इस से अधिक और न इस से कम. सभी जज रोस्टर के अनुसार केस सुनने के लिए बाध्य हैं. इन नियमों के खिलाफ जाना न सिर्फ नाखुशी की बात होगी, अवांछनीय भी होगा और इस से पूरे कोर्ट की सत्यनिष्ठा पर संदेह पैदा होंगे. इस से जो हंगामा उत्पन्न होगा उस की बात करना आवश्यक नहीं है.
हमें दुख है कि पिछले दिनों 2 नियमों की बात हुई, उन का पालन नहीं किया जा रहा है. ऐसे उदाहरण हैं कि देश तथा संस्थान के लिए दूरगामी प्रभाव वाले केस मुख्य न्यायाधीश द्वारा उन की पसंद के जजों को दे दिए गए जबकि इन के पीछे कोई तर्कशील कारण नहीं था. इस से हर हालत में बचना चाहिए. हम संस्थान को फजीहत से बचाने के लिए इन केसों को विस्तार नहीं दे रहे हैं पर यह जरूर कहते हैं कि इस तरह के फैसलों से संस्थान की छवि को पहले ही कुछ हद तक नुकसान पहुंच चुका है.
इस बारे में हम यह उचित समझते हैं कि आप को 27 अक्तूबर, 2017 के केस (आर पी लूथरा बनाम भारत सरकार) में पास आदेश के बारे में बताया जाए. इस आदेश में था कि व्यापक जनहित में एमओपी (उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति का ज्ञापन) को अंतिम रूप देने में कोई देरी न की जाए. जब एमओपी संविधान पीठ (इस पीठ में जस्टिस चेलमेश्वर और जस्टिस जोसेफ थे) के फैसले का विषय था तो यह समझना काफी मुश्किल हो रहा है कि कोई दूसरी बैंच इसे कैसे देख सकती है. इस के अलावा संविधान पीठ के निर्णय के बाद आप को मिला कर कोलेजियम के 5 जजों ने एमओपी पर विचार कर उसे अंतिम रूप दिया और तब के चीफ जस्टिस ने उसे मार्च 2017 में भारत सरकार को भेजा.
सरकार ने इस का कोईर् जवाब नहीं दिया और सरकार की इस चुप्पी को देखते हुए यह माना जा सकता था कि सरकार ने कोलेजियम का एमओपी स्वीकार कर लिया है. इस के बाद बैंच के लिए ऐसा कोई अवसर नहीं था कि वह एमओपी को अंतिम रूप देने के लिए अपनी टिप्पणियां करे या यह मामला अनिश्चित समय के लिए लटका रहे.
4 जुलाई, 2017 को 7 जजों की बैंच ने जस्टिस कर्णन के मामले में फैसला दिया. इस मामले में हम में से 2 जजों ने टिप्पणियां कीं कि जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया को फिर से देखे जाने की जरूरत है और कोई ऐसा तंत्र बनाया जाए जिस में जजों को सुधारने के लिए महाभियोग से कम की सजा का प्रावधान हो. इस दौरान सातों में से किसी भी जज ने एमओपी के बारे में कोई शब्द नहीं कहा था. इस बारे में एमओपी से जुड़ा कोई भी मुद्दा चीफ जस्टिस और फुल कोर्ट की बैठक में उठाया जाना चाहिए था. अगर इसे न्यायिक पक्ष में उठाया जाना ही था तो कम से कम इसे संविधान पीठ के सामने उठाया जाना चाहिए था. यह घटनाक्रम बहुत गंभीर है.
चीफ जस्टिस इस बात के लिए बाध्य हैं कि वे स्थिति को ठीक करें और कोलेजियम के अन्य सदस्यों के साथ विचार कर उचित सुधारात्मक कदम उठाएं. अगर जरूरत पड़े तो वे अन्य जजों से भी बात करें.
आदर सहित,
जस्टिस जस्ती चेलमेश्वर
रंजन गोगोई
मदन भीमराव लोकुर
कुरियन जोसेफ
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