मां को जाना था, चली गईं. सब ने शांति की सांस ली, जैसे मां का रहना सब पर बोझ रहा हो. जबकि मां अपना कोई काम किसी से नहीं कराती थीं. वे खुद ही इतना सामर्थ्य रखती थीं कि दूसरों के दो काम कर सकती थीं. विशेषरूप से बेटू और उस की पत्नी मानसी बेहद प्रसन्न थे क्योंकि उन के सपनों को पंख लग गए थे और अब सफलता कुछ ही कदम की दूरी पर थी. आलीशान 6 कमरों वाली कोठी, कोठी के सामने बड़ा सा हरा मखमली लौन, तरहतरह के पेड़पौधे, लौन में एक झूला, 2 प्रकाश स्तंभ मेन गेट पर और 2 कोठी के मुख्यद्वार पर. ऐसे मृदुल सपने जाने कब से बेटू और मानसी की आंखों में पल रहे थे, लेकिन मां इन सपनों के बीच रोड़ा बनी थीं. उन के रहते उन के सपनों में रंग नहीं भर पा रहे थे. बड़ी खीज होती थी उन दोनों को. उन्हें लगता कि मां सारे धन पर कुंडली मारे बैठी हैं. किसी को कुछ बताती भी नहीं हैं और न किसी से कुछ मांगती हैं. बेटू ने लाख उगलवाना चाहा, लेकिन मां चुप्पी साध गईं. अधिक जिद करने पर कहतीं-

‘बेटू, तू व्यर्थ की जिद न कर. जो बात तेरे जानने की नहीं है, हमेशा उसी को जानने के लिए कलह क्यों करता है? मैं तुझ से कोई उम्मीद तो नहीं रखती.’ ‘मां, यदि मुझे बता दोगी तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाएगा? क्या मैं छीन लूंगा? तुम्हें अपने बेटे पर विश्वास नहीं है?’

‘हां, यही समझ ले कि नहीं है. बस, तू मुझे परेशान मत कर.’

‘नहीं करूंगा. तुम मेरे साथ चलो. यहां अकेली रहती हो. कोई ऊंचनीच हो गई तो कौन देखेगा?’ ‘जो बात हुई ही नहीं उस की चिंता क्यों करता है? फिर ऊंचनीच तो कहीं भी, किसी के साथ भी हो सकती है. यहां इतने अपने लोग हैं. कोई भी संभाल लेगा. रोमेश और उस की बहू मेरा बड़ा ध्यान रखते हैं.’ ‘अपनों से ज्यादा गैरों पर विश्वास करती हो?’ ‘यही समझ ले. गैर एहसान तो नहीं जताते. अपने तो अपने होने का एहसास हर पल कराते रहते हैं. जहां अपने नहीं होते वहां गैर अपनों से ज्यादा होते हैं.’

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मां बहस पर उतर आतीं. बेटू को थक कर चुप हो जाना पड़ता. एक दिन बेटू बोला, ‘मां, सुमित इस कोठी के 1 करोड़ रुपए दे रहा है. इस से ज्यादा कोई क्या देगा? 40 साल पुरानी हो गई है. बेचनी तो पड़ेगी ही. जगहजगह से चूना झड़ रहा है. अब पुणे से हम से बारबार नहीं आया जा सकता.’ ‘तो इस बार निश्चय कर के ही आया है कि कोठी बेच कर ही जाएगा. पर मैं ने कहा था कि मेरे रहते कोठी नहीं बिकेगी. मैं अपनी छत क्यों दूं?’

‘इसलिए कि मैं अपनी छत बना लूं.’

‘क्या गारंटी है कि इसे बेच कर तू अपनी छत बना लेगा. कल मैं भी बिना छत के हो जाऊंगी. आज मेरा एक ठिकाना तो है. कहने को अपना घर है. तू अपनी छत अपनी मेहनत से बना. यह तेरे पिताजी की मेहनत की कमाई से बनी है. वे तो चले गए. अब इसे भी जाने दूं. तू नहीं समझेगा. मुझे इस से अपने प्राणों से भी ज्यादा मोह है. यह घर ही नहीं, मेरा सुरक्षा कवच भी है. बड़ी मेहनत से बनाया है.’

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‘मां, तुम अपनी जिद नहीं छोड़ोगी?’

‘नहीं, छोड़ भी देती यदि तू ने कोई जमीन का टुकड़ा ले कर डाला होता. मुझे लगता कि तू गंभीरता से मकान बनाने की दिशा में आगे बढ़ रहा है. 20 साल हो गए तुझे कमाते. तुझ से जमीन का टुकड़ा नहीं खरीदा गया.’

‘मां, कुछ बचता ही नहीं.’

‘यह तेरी सिरदर्दी है. बचाना चाहेगा तभी बचाएगा न. वहां परदेस में पड़ा क्या कर रहा है, यहीं लौट आ.’

‘मां, तुम बेसिरपैर की बातें करती हो. यहां आ कर क्या करूंगा? वहां का जमाजमाया काम छोड़ कर बच्चों को भूखा मार दूं?’

‘नहीं आ सकता तो वहीं रह. मेरा सिर न खा.’ भिन्ना उठा बेटू और फिर कभी न लौट कर आने की कसम खा कर चला गया. उस दिन से मां ने भी किसी से कोई उम्मीद करनी छोड़ दी. अपनी अकेली दुनिया में ही जीने लगीं. मन को समझा लिया कि जिन के बेटाबेटी नहीं होते या परदेस में जा कर बस जाते हैं वे क्या मर जाते हैं? कुछ दिन के लिए जीवन में ठहराव सा आ गया. मन थोड़ा परेशान रहा, लेकिन वे वक्त की गर्द झाड़ उठ खड़ी हुईं. जीवन फिर राह पर आ गया. शांत प्रकृति की शांता व्यर्थ के आडंबरों से दूर अपनी दुनिया में मस्त रहतीं. ज्यादा शोरगुल, ज्यादा बातचीत उन्हें कभी नहीं सुहाती. उन के पति श्यामलाल भी उन्हीं की तरह शांत प्रकृति के थे. उन के जाने के बाद शांता और भी शांत हो गईं. उन्हें लगा कि जीवनभर वे अपने लिए जीती रहीं, ओढ़तीबिछाती रहीं, जिस समाज ने उन्हें सम्मान, घरपरिवार दिया, उस के प्रति भी कुछ फर्ज बनता है. अब कोई जिम्मेदारी भी नहीं है, थोड़ा वक्त भी है. यह सोच कर उन्होंने एक एनजीओ की सदस्यता ले ली और बच्चों को हस्तशिल्प का प्रशिक्षण देने लगीं. बेकार पड़ी चीजों से वे काम की चीजें बनवा लेतीं. यह शौक उन्हें पहले से था. उन्हें पता ही न चलता कि वक्त कैसे खिसक रहा है. धीरेधीरे शांता अशक्त होने लगीं. उम्र अपना प्रभाव छोड़ने लगी. उन्होंने एनजीओ जाना तक बंद कर दिया. घर पर ही बच्चों को सिखाने लगीं. कुछ अतिरिक्त आमदनी भी हो जाती. वरना श्यामलाल द्वारा छोड़े गए पैसों से ही घरखर्च चलातीं. बूंदबूंद रिसने से भरा घड़ा भी खाली होने लगता है. वह तो उन्होंने होशियारी से काम लिया. श्यामलाल द्वारा छोड़े गए पैसों की बैंक से एफडीआर बनवाई और उस से मिलने वाले ब्याज से वे अपना काम चलातीं. घर में एक किराएदार भी रख लिया. देखभाल के साथ किराए की आमदनी भी हो जाती. फिर भी खूब मितव्ययिता से खर्च करतीं, पर जरूरतमंद की सहायता अवश्य करतीं. यह जीवन भी उन्हें रास आ रहा था. कभीकभी बेटी समिधा उन के पास आ जाती या वे उस के पास चली जातीं. समिधा ज्यादा दूर नहीं थी. इस बार समिधा आई तो मां को मोबाइल खरीद व उस में पैसे डलवा कर दे गई. मां को मोबाइल चलाना भी सिखा गई. जरूरी नंबर उस में डाल दिए. अब शांता के लिए आसानी हो गई. अब वे फोन कर के इलैक्ट्रीशियन या प्लंबर को बुला लेतीं. स्वयं उन्हें दौड़ना न पड़ता, न किसी पड़ोसी को परेशान करना पड़ता. किराने का सामान भी फोन पर ही लिखवा देतीं. दुकान का नौकर सामान रख जाता. समिधा के साथसाथ वे अन्य रिश्तेदारों से भी बातें कर लेतीं. यानी टूटते संपर्क फिर से ताजगी से भर गए.

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समिधा कुछ पोस्टकार्डों पर पते लिख कर और दोचार बौलपैन भी मां की अलमारी में रख गई और कह गई कि मां, चिंता न करना. बीचबीच में आती रहूंगी. पुत्री का स्नेह पा कर पुत्र की तरफ से जो परेशानी उन के दिमाग पर छा गई थी, दूर हो गई. समिधा हर महीने मां का मोबाइल रिचार्ज करा देती. वक्त अपनी गति से चलने लगा. काफी समय से समिधा को मां का न फोन मिला, न पत्र, मां का मोबाइल भी स्विच औफ आता. कई बार सोचा कि जा कर मां का हालचाल ले लूं. पर चाह कर भी गृहस्थी से न निकल पाई. वह रिश्तेदारों से फोन कर मां की कुशलता लेती रहती. उन्हीं से पता चला कि मां का मोबाइल खो गया है. शांता को हमेशा पुत्र का भय लगा रहता. रोज ही अखबार में ऐसी खबरें पढ़ने को मिलती थीं कि पुत्र ने संपत्ति के लिए पिता को गोली मार दी, मां और भाई को फावड़े से काट डाला आदि. बेटू की नीयत पर उन्हें हमेशा शक रहता. जब भी बेटू आता, वे बेशक बाहर से बोल्ड बनी रहतीं लेकिन अंदर ही अंदर डरती रहतीं और उन्हें अपनी जान का खतरा बना रहता. पता नहीं बेटू कब, क्या कर दे. यह नहीं कि वे बेटू को प्यार नहीं करती थीं, लेकिन प्यार का यह मतलब नहीं कि बेटू से सम्मान और आदर की जगह गालियां खाएं, अपना अपमान और निरादर कराएं. उस की हरकतों के चलते उन का मन उस की तरफ से हटने लगा था, पर वे अपनी मनोस्थिति किसी पर भी प्रकट न करतीं.

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हां, इन दिनों उन्होंने वकील से मिल कर अपनी समस्त चलअचल संपत्ति की वसीयत समिधा के नाम बनवा दी. बैंक में जितना भी पैसा था, सब में समिधा को नौमिनी बनवा दिया. समिधा को आर्थिक मदद की जरूरत थी क्योंकि उस के पास कोई और सहारा नहीं था. धैर्य जब गर्भ में था तभी संयम एक दुर्घटना में चल बसे थे और तभी से समिधा अपना संघर्ष अपनेआप कर रही थी. समिधा का दुख उन्हें चैन से बैठने न देता. वे अपने मन की बात केवल समिधा से ही कर सकती थीं. अभी भी उस की मदद करती रहतीं. बेटू हमेशा इसी ताकझांक में रहता कि मां अपना सबकुछ बेटी को न पकड़ा दें और वह हाथ मलता ही रह जाए. इसीलिए वह समस्त संपत्ति अपने नाम कराने के लिए तरहतरह के हथकंडे अपनाता. ऐसा नहीं कि शांता कुछ समझती न थीं. बेटू में तो इतना भी अपनापन नहीं था कि कभी बहन का सुखदुख बांटता. वे उस की लालची प्रवृत्ति से परिचित थीं. लेकिन उन्होंने अपनी सोचों की भनक किसी को भी न लगने दी. वे समिधा के नाम वसीयत करा कर और अपने खातों में उसे नौमिनी बना कर निश्ंिचत हो गईं कि यदि वे चली भी गईं तो समिधा को परेशानी नहीं होगी. उस का जीवन आराम से कट जाएगा. अभी बैंक से लौट कर बैठी सुस्ता ही रही थीं कि डोरबैल बजी. उन्होंने उठ कर दरवाजा खोला. सामने बेटू खड़ा था.

‘तू, इस समय?’ उसे अचानक अपने सामने देख कर शांता अचंभित हो गईं.

‘क्या मैं यहां नहीं आ सकता? आप इस तरह क्यों चौंक गईं?’

‘क्यों नहीं आ सकता लेकिन जब भी आता है फोन कर के आता है. इस बार अचानक बिना बताए…?’

‘मां, दिल्ली काम से आया था. सोचा आप से भी मिल लूं.’

‘अच्छा किया, आ, अंदर आ, आराम से बैठ.’

समिधा के पास अचानक एक दिन चाची का फोन आया कि समिधा, दीदी नहीं रहीं. पिछले कई दिनों से तबीयत थोड़ी ढीली चल रही थी. हम ने बेटू को भी फोन कर दिया है. यह सुन कर समिधा सन्न रह गई. मां ऐसे कैसे जा सकती हैं? जरूर मां के साथ ऐसा कुछ घटा है जिसे मां ने किसी को नहीं बताया. समिधा कहां रुकने वाली थी. बेटू से पहले उसे मां के पास पहुंचना था. समिधा सूचना मिलने के 2 घंटे में ही मां के पास पहुंच गई. उस के पहुंचने के पहले ही आसपास के रिश्तेदार आ चुके थे. मां को देख कर समिधा फूटफूट कर रोने लगी. आज मां ही नहीं, उस का मायका भी समाप्त हो गया. दुखी मन से मां के पास बैठी समिधा को अचानक याद आया कि मां रोज डायरी लिखा करती थीं. उस ने तुरंत मां की अलमारी खोल कर डायरी निकाल ली. और अंतिम पृष्ठ खोल कर पढ़ने लगी. उस पर 2 दिन पहले की तारीख पड़ी थी. मां ने लिखा था-

‘‘आज बेटू आया है. उस ने सारा गुस्सा थूक दिया है. बड़े प्यार से मिला है. घर का सारा सामान भी लाया है. प्रेमपूर्वक कुशलक्षेम भी पूछा है. बाजार से गाजर का जूस लाया है. उस ने 2 गिलासों में डाला है. मेरे गिलास में कुछ डाला है, कह रहा है मसाला है, इस से स्वाद बढ़ जाएगा. अपने जूस में दूसरी पुडि़या से मसाला डाला है. हम दोनों ने जूस पिया है. मुझे स्वाद कुछ अच्छा नहीं लगा. बेटू ने गिलास धो कर रख दिए हैं. ‘‘‘मां, जरा बाहर घूम आऊं. थोड़ी देर में आता हूं. आप दरवाजा बंद कर लेना,’ कह कर बेटू बाहर चला गया. मैं दरवाजा बंद करने के लिए उठती हूं. दरवाजा बंद कर डायरी लिखने बैठ जाती हूं. मन शांत है पर हलकेहलके चक्कर आ रहे हैं. अब मैं डायरी बंद कर लेट रही हूं.’’

इस के आगे के पृष्ठ खाली हैं. यानी बेटू ने ही जूस में कुछ मिला कर… समिधा का सिर घूमने लगा. इस का मतलब मां की मृत्यु को 2 दिन हो गए और बेटू यहीं कहीं है और शीघ्र ही आ जाएगा. उस ने मोबाइल खोजा. मोबाइल बिस्तर के नीचे छिपा कर रखा गया था पर औफ था. उस ने उसे औन कर के देखा. मां ने 4 माह पहले किसी न पहचाने नंबर पर कई बार बात की थी. समिधा ने फोन किया, ‘‘मैं समिधा, कांताजी की बेटी बोल रही हूं. आप को मां फोन करती थीं. आप कौन हैं…’’

‘‘अच्छा, आप समिधा हैं? कांताजी कैसी हैं.’’

‘‘मां का कल देहांत हो गया.’’

‘‘ओह, बहुत अफसोस हुआ. आप को एक बात बताने के लिए कांताजी ने कहा था. आप मुझे अपने फोन से फोन करें.’’ समिधा ने उस नंबर पर बात की. उस के रोंगटे खड़े हो गए पूरी बात सुन कर. उस का मन हुआ, बेटू के आने से पहले डाक्टर और पुलिस को फोन कर दे. मां का पोस्टमार्टम होना चाहिए. मां मरी नहीं मारी गई हैं. मातृहंता को जेल की सलाखों के पीछे होना चाहिए. अचानक दूसरा विचार मन में उठा. यदि बेटू सलाखों के पीछे चला जाता है तो उस के परिवार का क्या होगा? मां तो लौट कर आने से रहीं. और यदि यह सिद्ध नहीं हुआ कि बेटू ही…? शायद मां की गति ऐसे ही होनी थी. सब मां की मौत को स्वाभाविक ही मान रहे हैं. समिधा ने जा कर मां की अलमारी टटोली. उस में से मां की चैकबुक, पासबुक और जेवर गायब थे. हां, थोड़ी नकदी जरूर रखी थी. समिधा का मन हुआ कि चीखचीख कर सब को बता दे कि मां स्वाभाविक मौत नहीं मरी हैं. मां का असली हत्यारा कौन है. वह अलमारी बंद कर मुड़ी तो पीछे बेटू को खड़ा पाया. उस की आंखों में ऐसा कुछ था कि समिधा सहम गई.

‘‘तू इतनी जल्दी पुणे से कैसे आ गया, बेटू?’’

‘‘मैं तो यहां परसों ही आ गया था और कल मामाजी के यहां चला गया था. वहीं मां की मृत्यु की सूचना मिली. तू मां की अलमारियों में क्या तलाश रही थी?’’

‘‘जो तू नहीं तलाश सका. मां की मौत के दस्तावेज,’’ कह कर समिधा मां के पास जा कर बैठ गई.

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