कहते हैं ‘शादी ऐसा लड्डू है जो खाए सो पछताए और जो न खाए वह भी पछताए.’ ‘शादी सात जन्मों का बंधन है’, ‘दो दिलों का एक हो जाना है’ जैसे जुमले सुनाई देते हैं तो वहीं ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जो शादी कर के न फंसने और इस लड्डू को न खाने की सलाह देते हैं. समाज में हजारों ऐसे कपल्स हैं जो सामाजिक कार्यक्रमों में चेहरे पर बनावटी मुसकान ओढ़े एकदूसरे के बेहद नजदीक नजर आते हैं, लेकिन असल में प्रेम इन के बीच नहीं होता. ऐसे कपल्स के मन में पनपने वाले असंतोष की इन सभी कैटिगरी में एक बात जो सब से महत्त्वपूर्ण है और सामान्य भी, वह है एलकेके फैक्टर.
एलकेके यानी लोग क्या कहेंगे के डर से ऐेसे कपल्स चारदीवारी के भीतर कभी आपस में झगड़ा कर लेते हैं और कभी मन ही मन कुढ़ लेते हैं, लेकिन घर की चारदीवारी के बाहर वे यह साबित करने की कोशिश करते रहते हैं कि उन की शादीशुदा जिंदगी बेहद कामयाब और सुखद है. पिछले दिनों इतिहासकार और फेमिनिस्ट लेखिका पामेला हाग की शादी जैसे जटिल मुद्दे पर लिखी गई किताब चर्चा में रही.
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मैरिज कौन्फिडैंशियल
‘द पोस्ट रोमांटिक एज औफ वर्कहौर्स वाइव्स, रौयल चिल्ड्रन अंडरसैक्स्ड स्पाउज ऐंड रिबैल कपल्स हू आर रिराइटिंग द रूल्स’ नामक किताब में लेखिका ने शादियों और उन में आने वाली दिक्कतों को मोटेतौर पर 4-5 हिस्सों में बांटा है. उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की है कि भले ही आज का आम शहरी शादीशुदा कपल एक छत के नीचे रहता है लेकिन ज्यादातर मामलों में उस के भीतर एक तरह की घुटन है और अगर घुटन नहीं भी है तो कम से कम शादी उस के लिए सात जन्मों का बंधन तो नहीं ही है.
कई पतिपत्नी ऐसे हैं जिन्हें लगता है कि उन्हें अपने मन का पार्टनर नहीं मिला. लेकिन जैसे ही उन के मन में इस रिश्ते से अलग होने का विचार आता है, तुरंत वे खुद से सवाल कर बैठते हैं कि अगर इस रिश्ते से अलग हो गए तो क्या गारंटी है कि दूसरा शख्स अपनी पसंद का मिल ही जाएगा. और कहीं इस से भी बुरा मिल गया तो? बस, ऐसी ही कशमकश के बीच जिंदगी आगे बढ़ती रहती है. ऐसे लोगों की समाज में एक आदर्श कपल की इमेज भी बनी होती है जिसे वे खराब नहीं करना चाहते और उसी इमेज को बनाए रखने की खातिर वे एकदूसरे के साथ मजबूरीवश निभाते चले जाते हैं.
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जिन परिवारों में पतिपत्नी दोनों वर्किंग हैं वहां ऐसी हालत होने की संभावना थोड़ी ज्यादा होती है. मोटेतौर पर यह कोई खतरनाक स्थिति नहीं है लेकिन खुश होने जैसा भी इस में कुछ नहीं है. दोनों पार्टनर्स की कुछ सामाजिक बाध्यताएं हैं. उन्हें पूरा करने के लिए वे साथसाथ रहते हैं लेकिन प्रेम नाम की चीज कहीं मिसिंग है. उन के लिए संतोष की बात यह है कि इस बारे में समाज कुछ नहीं जानता. पतिपत्नी के बीच एक अजीब सी स्थिति तब आती है जब उन के मध्य कोई तीसरा आ चुका होता है. तीसरा यानी उन का बच्चा. ऐसे कपल्स की जिंदगी को नजदीक से देखें तो ज्यादातर मामलों में लगेगा कि वे बच्चे की खातिर जिए जा रहे हैं. दोनों पार्टनर्स का लक्ष्य सिर्फ बच्चे का भविष्य बनाना और उसे सैटल करना भर रह गया है. उन की अपनी इच्छाएं, आपसी प्रेम कहीं काफूर हो जाता है. शादी के कई साल साथ गुजार चुके ऐसे लोग अगर एकदूसरे से अलग होने के बारे में सोचते भी हैं तो बच्चे के भविष्य से जुड़े सवाल उन्हें रोक देते हैं. जाहिर है ऐसे कपल्स की जिंदगी की गाड़ी बच्चे के साथ उन दोनों की बौंडिंग की वजह से ही आगे बढ़ रही है. प्रेम नाम की चीज यहां भी मिसिंग है.
कई मामलों में यह भी देखा गया है कि घर चलाने की जिम्मेदारी पत्नी की है. पति या तो नकारा है या कम कमाता है या फिर किन्हीं और वजहों से कमाना नहीं चाहता. ऐसे भी केस हो सकते हैं जहां पति अपने किसी पुराने शौक को पूरा करने के लिए अपने सपने साकार करने में जुटा है. आर्थिक रूप से पत्नी पर निर्भर ऐसे पति के प्रति पत्नी का गुस्सा और असंतोष पनपना स्वाभाविक है. आपसी प्रेम की गुंजाइश यहां भी नहीं है. लेकिन कई कपल्स ऐसे भी हो सकते हैं जो एकदूसरे को तलाक तो नहीं देते लेकिन यह तय कर लेते हैं कि वे अलगअलग रहेंगे. ऐसे लोग समाज की निगाह में पतिपत्नी का जीवन गुजारते हैं, लेकिन असल जिंदगी में उन के रास्ते अलगअलग होते हैं. एलकेके फैक्टर से अपने को उबार नहीं पाते हैं और एक अनजाने चक्रव्यूह में फंस कर जिंदगी गुजारते हैं.
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स्त्रीपुरुष के बीच अंतर
पतिपत्नी के मनमुटाव की वजहें तमाम हो सकती हैं और हर रिश्ते में अलगअलग हो सकती हैं, लेकिन इस के पीछे एक महत्त्वपूर्ण कारण औरत और आदमी के बीच पाए जाने वाले मूलभूत फर्क हैं जिन के होने की बात साइकोलौजिस्ट के साथसाथ जीव वैज्ञानिकों ने भी मानी है. ‘मैन आर फ्रौम मार्स ऐंड वुमन आर फ्रौम वीनस’ किताब में अमेरिकन रिलेशनशिप काउंसलर जौन ग्रे ने औरत और पुरुष के बीच बेसिक अंतर होने की बात कही है. उन्होंने यह साबित किया है कि चूंकि औरत और मर्द की संरचना ही अलगअलग तरीके से विकसित हुई है, इसलिए किसी एक मुद्दे पर दोनों की सोच और प्रतिक्रिया व्यक्त करने के तरीके में जबरदस्त अंतर होना स्वाभाविक है. दिमागी, भावनात्मक और शारीरिक तौर पर औरत और पुरुष के बीच इतने ज्यादा अंतर होते हैं कि इन अंतरों को लगातार समझने की कोशिश किए बिना आप एक खुशहाल शादीशुदा जिंदगी की कल्पना नहीं कर सकते.
अलग होना मुश्किल
शहरीकरण और एकल परिवारों के चलन से भी समस्या पैदा हुई है. एकल परिवारों में संयुक्त परिवारों के मुकाबले तनाव बढ़ने की ज्यादा आशंका होती है. एकल परिवारों में घर में मिलने वाला अकेलापन आक्रोश के लिए एक उपजाऊ जमीन की तरह काम करता है. पतिपत्नी के आपसी झगड़ों की आग पर पानी डालने वाला कोई नहीं होता. दूसरी तरफ, संयुक्त परिवारों में अगर मियांबीवी के बीच झगड़ा हो भी गया तो घर के दूसरे सदस्यों के साथ बातचीत और वक्त बिता कर उस गुस्से के शांत होने की गुंजाइश होती है. इन सभी समस्याओं से निबटने के लिए एक विचार यह भी दिया जाता है कि जब दोनों पार्टनर्स के मन में एकदूसरे के प्रति असंतोष और आक्रोश है और जिंदगी की गाड़ी अटकअटक कर चल रही है तो भलाई इसी में है कि वे अलग हो जाएं. लेकिन भारतीय परिवेश में ऐसी सलाह व्यावहारिक नहीं लगती, हालांकि बढ़ते तलाक के मामलों से जाहिर है कि इस सलाह पर अमल करने वालों की तादाद तेजी से बढ़ रही है.