नरेंद्र मोदी सरकार ने अपना पहला आम बजट पेश करते हुए चुनाव में बनी अपनी छवि को बरकरार रखने का प्रयास किया है पर बजट में आर्थिक विकास की दिशा नहीं है. अच्छे दिन, सब का हाथ, सब का साथ, विकास की बात भाजपा का कोई भी सुझाव बजट में नहीं है. सरकार के इस पहले बजट में आर्थिक सुधार और विकास का रोडमैप क्या होगा और वित्तीय घाटे को कम करने के लिए क्या उपाय किए गए हैं. कहीं स्पष्ट नहीं है. दूरदृष्टिता व नयापन बिलकुल नहीं है. सामाजिक विकास को दरकिनार कर, गरीब को बस मुंगेरी सपने दिखा कर बरगलाया गया है.

निजीकरण को बढ़ावा

हर क्षेत्र में ऊंट के मुंह में जीरा वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए ज्यादातर योजनाओं को मामूली 100 करोड़ रुपए का आवंटन दे कर संतुष्ट किया गया है. क्या यह सब खानापूर्ति है. बजट में कौर्पोरेट जगत और अमीरों को खुश करने के लिए काम हुआ है. बड़े उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने के लिए सरकारी व निजी क्षेत्र की भागीदारी यानी पीपीपी को बहुत महत्त्व दिया गया है. व्यापारी वर्ग को लाभ पहुंचाने के हरसंभव प्रयास हुए हैं. निजी क्षेत्र को निवेश के लिए इस विश्वास के साथ तैयार किया गया है कि उन को हर हाल में लाभ होगा. बजट में चुपचाप और बहुत चतुराई से पूंजीपति वर्ग को लाभ पहुंचाने और आम आदमी को शब्दों की बाजीगरी में फंसाया गया है.

लंबीचौड़ी घोषणाएं की गई हैं लेकिन उन्हें अमलीजामा पहनाने की राह नहीं सुझाई गई है. किसान, मजदूर, छोटे कारोबारी, बुनकरों, धानुकों सहित निम्न वर्ग को बजट में जगह कम दी गई है. महिलाओं, बुजुर्गों, सैनिकों और कामगार श्रेणी के लोगों को झुनझुना थमा कर शांत रहने को कहा गया है.

सामाजिक सरोकार दरकिनार

भारतीय जनता पार्टी, जो महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लोगों को बड़ेबड़े ख्वाब दिखा कर सत्ता में आई है, ने रेल बजट और आम बजट पेश करते हुए कमोबेश वही शैली अपनाई है जिस के सहारे लोगों को चुनाव में आकर्षित किया और सत्ता की कुरसी तक पहुंची. हाथ में कमंडल और डंडा ले कर अलख जगाने के लिए भगवा पहने बाबा आरामदायक गाडि़यों से संसद तक पहुंच रहे हैं. इन बाबाओं का कोई भी सामाजिक सरोकार नहीं है लेकिन सामाजिक जिम्मेदारियों के निर्वहन के लिए संसद में बैठे हैं. भाजपा इसी जोगलीला के साए में देश के विकास का सपना दिखा रही है. विभिन्न महत्त्वपूर्ण योजनाओं के लिए 100-100 करोड़ रुपए के आवंटन को देखते हुए कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने राजग सरकार के इस बजट को लौंड्री बजट की संज्ञा दी है.

बातों से, ख्वाबों से और भाषणों से वोट पाए जा सकते हैं और सत्ता भी हासिल की जा सकती है, पर आर्थिक विकास के लिए योजनाओं, दूरदृष्टि, दिशानिर्देशों और आर्थिक स्तर पर तार्किक होने की जरूरत पड़ती है जो भाजपा सरकार के बजट में नजर नहीं आती है. कुछ लोग बजट को राहत देने वाला बता रहे हैं और बजट के संतुलित होने की बात भी कर रहे हैं. अच्छाई बजट में है लेकिन संतुलन और राहत के नाम पर सिर्फ खोखले वादे हैं. उस में वास्तविकता नहीं है. सामाजिक विकास की बात करने वाली इस सरकार ने सामाजिक क्षेत्र के उन्नयन के लिए पिछले बजट की तुलना में 96 करोड़ रुपए कम कर के सिर्फ 79 करोड़ रुपए का आवंटन किया है.

प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी के लोगों को खुश करने का प्रयास किया गया है. यह प्रयास भी व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता. गंगा की सफाई के लिए 2,037 करोड़ रुपए दिए गए हैं. बनारस में उद्योग स्थापित कर के लोगों को रोजगार के अवसर देने की कोशिश नहीं हुई है. गंगा की सफाई पर पैसा बहाने की योजना है लेकिन गंगा को मैला करने वाले कारकों से निबटने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया है. हां, बजट में सरकार ने इंटरनैट की पहुंच हर भारतीय तक बनाने के लिए 5 अरब रुपए की डिजिटल इंडिया योजना की घोषणा की है जिस का सभी स्तर पर स्वागत किया जा रहा है.

विदेशी निवेश पर मेहरबान

सत्ता में आने के बाद भाजपा ने अपने विदेशी पूंजी के विरोध के सिद्धांत से भी समझौता किया है. सरकार ने रक्षा, बीमा और 8 हजार किलोमीटर सड़क के निर्माण के लिए विदेशी निवेश की सीमा 49 फीसदी करने का निर्णय लिया है. ये अत्यंत संवेदनशील क्षेत्र हैं जिन की परवा किए बिना विदेशी निवेश को महत्त्व दिया गया है.  बीमा क्षेत्र के लिए भी सरकार ने 49 फीसदी के विदेशी निवेश को मंजूरी दी है. यह उसी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार है जिस ने दिसंबर 2012 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली तत्कालीन सरकार के इस क्षेत्र में विदेशी निवेश बढ़ाने की घोषणा का विरोध किया था. मोदी तब गुजरात के मुख्यमंत्री थे. उन्होंने ट्वीट किया था, ‘‘कांगे्रस देश को बेचने की योजना बना रही है. यह सरकार देश को विदेशियों के हाथों में सौंपने का उपक्रम कर रही है.’’ कमाल देखिए कि कांगे्रस विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाती है तो वह देश को बेचती है और खुद मोदी यह काम कर रहे हैं तो यह राष्ट्रसेवा है.

बजट में आम आदमी को लुभाने का काम हुआ पर वह महंगाई के अनुसार है. आयकर की सीमा 50 हजार बढ़ा कर ढाई लाख की गई है. छोटे निवेश पर छूट की राशि को 1 लाख रुपए से बढ़ा कर डेढ़ लाख रुपए किया गया है. वरिष्ठ नागरिकों के लिए 50 हजार रुपए की छूट और दी गई है. आवास ऋण योजना पर ब्याज पर छूट की दर भी 50 हजार रुपए बढ़ा कर 2 लाख रुपए की गई है.  2 लाख के ब्याज देने पर जो मूल मिलेगा उस से केवल 15-18 लाख का मकान मिल सकता है जो कहीं नहीं बन रहे.

आम आदमी की नजर पूरे बजट के दौरान आयकर छूट से जुड़े अध्याय पर टिकी होती है. उस के लिए चार पैसा बचना ही सब से बड़ी खुशहाली है. जो बचेगा वह महंगाई डायन का हिस्सा है असल में.

सपनों की दुकान

गरीब को लौलीपौप दे कर अपने पक्ष में खड़ा किया जा सकता है. मोदी ने 2022 तक सब को आवास उपलब्ध कराने के अपने वादे को पूरा करने के लिए एक मिशन बनाने का ऐलान किया है पर किस गरीब को घर मिलेगा, सरकार यह नहीं बता रही है और न यह कि कितने गरीबों के पास छत नहीं है. उन्हें छत उपलब्ध कराने के लिए सालाना कितने घरों का निर्माण होगा और उस पर कितना पैसा खर्च होगा. कहने को तो कांगे्रसी सरकारें भी 1947 से ही घर बनवा रही हैं पर कहां हैं वे घर?

वोट का खेल

सरकार का कार्यकाल 2019 तक है. अगले 5 साल के बाद फिर सत्ता में आए, इस के लिए गरीबों के साथ अभी से भावनात्मक खेल शुरू हो गए हैं. सरकार को मालूम है कि अगले चुनाव में इन्हीं गरीबों का आवास मुद्दा होगा और उन का वोट अपने पक्ष में लाया जा सकता है. यहां सिर्फ वोट का खेल होता है.

सड़कों का जाल बुनना भाजपा सरकार की प्राथमिकताओं में रहा है. पिछली भाजपा सरकार यानी कि वाजपेयी के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार के कार्यकाल में सड़क निर्माण को विशेष महत्त्व दिया गया था, उसी समय पूरे देश में सड़कों का संपर्क बढ़ाने की योजना बनी और इस बार भी सरकार ने उसी योजना को आगे बढ़ाने का काम किया है. सड़कों के निर्माण के लिए बजट का 50 से 60 फीसदी हिस्सा दिया गया है. ढांचागत विकास तो ठीक है लेकिन बजट का आधा हिस्सा किसी एक क्षेत्र को मिले तो यह जरूर सवाल खड़ा करता है और यही सवाल आने वाले समय में मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा कर सकता है.

सड़क निर्माण क्षेत्र में बड़े स्तर पर भ्रष्टाचार होता है, ठेकेदार और इंजीनियरों की मौज होती है. ठेकेदार के हलके गारेसीमेंट को पैसे के बल पर मजबूती का प्रमाणपत्र मिलता है. यह आम बात है. हर मंत्री और नेता इसे समझता है, इसलिए आसानी से कहा जा सकता है कि सरकार ने अपने खाने का जुगाड़ अच्छे से कर लिया है. सड़कें गांव में बनती हैं और उन में ज्यादा हेराफेरी हुई तो मोदी की लोकप्रियता के समीकरण बिगड़ सकते हैं.

कर्ज और किसान

कृषि ऋण सीमा को बढ़ा कर सरकार ने 2014-15 के लिए 8 लाख करोड़ रुपए कर दिए हैं. किसानों को अल्प ब्याज दर पर यह ऋण मिलता है और यदि समय पर किसान ऋण की किस्त का भुगतान करता है तो उसे 3 प्रतिशत की दर से ब्याज पर और छूट देने का प्रावधान है.

हर सरकार किसान का ऋण माफ कर जाती है जिस से बैंकों को भारी नुकसान होता है. इस से जो किसान ईमानदारी से ऋण लौटा रहा होता है वह भी बेईमानी पर उतर आता है और ऋण की किस्तों का भुगतान करना बंद कर देता है. बैंक का पैसा मारा जाता है इसलिए बैंकों के शाखा प्रबंधक ज्यादातर यही कोशिश करते हैं कि किसानों को ऋण न दिया जाए. वे नियमों में बंधे होते हैं इसलिए खुल कर नहीं लेकिन परदे के पीछे से इस ऋण स्कीम को निष्क्रिय बनाए रखने का प्रयास करते हैं. यहां ईमानदारी भी नहीं है. फर्जी दस्तावेजों के जरिए फर्जी काम के वास्ते किसान ऋण लेता है और उसे पूरा भुगतान भी नहीं मिलता. आधा पैसा बैंक के संबंधित अधिकारी रिश्वत के रूप में डकार जाते हैं.

कहीं उजड़ न जाएं गांव

स्मार्ट शहरों के विकास के नाम पर इस सरकार ने भी गांव की जमीन को छीनने की पुख्ता व्यवस्था की है. पहले विशेष आर्थिक क्षेत्र यानी एसईजेड बनाए गए थे जिन में किसानों की जमीनें हड़पी गईं. हरियाणा में 10 एसईजेड के विकास के लिए जमीन किसानों से खरीदी गई थी लेकिन अब तक सिर्फ 3 क्षेत्र ही विकसित किए गए हैं. शेष 7 क्षेत्रों की जमीन का इस्तेमाल नहीं हो रहा है, इसलिए इस जमीन को किसान को लौटाने की व्यवस्था की जानी चाहिए.

भाजपा सरकार की 100 नए शहर बसाने की योजना है. उस के लिए 71 अरब रुपए की राशि आवंटित किए जाने की योजना है. मतलब यह कि गांवों के विकास का सपना दिखाने वाली भाजपा सरकार गांवों को ही उजाड़ने में जुट गई है.

सरकार ने गांव से पलायन रोकने की कोई योजना नहीं बनाई है. कहा गया है कि रोजगार के अवसर बनाए जाएंगे लेकिन यह खुलासा नहीं हुआ है कि रोजगार कहां और कैसे बढ़ेंगे. गांवों में रोजगार के अवसर उपलब्ध क्यों नहीं कराए जा रहे हैं? आईआईटी, आईआईएम और एम्स विकसित किए जा रहे हैं लेकिन वहां उन के लिए ढांचागत विकास की सुविधाओं का अभाव है, जिसे दूर नहीं किया जा रहा है.

कुल मिला कर नई सरकार के पहले बजट में खास और नया कुछ भी नहीं है. यह बजट पूर्ववर्ती सरकार के जैसा ही है. उस में वादे किए गए हैं, सपने दिखाए गए हैं, बड़ीबड़ी बातें की गई हैं जबकि उन पर अमल करना व उन्हें पूरा करना सरकार के लिए सपना देखने जैसा ही साबित होगा और तब आम जनता एक बार फिर खुद को ठगा सा महसूस करेगी.

-साथ में राजेश यादव

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