वे हिंदी भाषी हैं, हिंदी के हृदय क्षेत्र के एक महत्त्वपूर्ण संसदीय निर्वाचन क्षेत्र की जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं. इस की कोई संभावना नहीं कि रहीम के इस दोहे से उन का परिचय न हुआ हो, ‘रहिमन चुप हो बैठिए देख दिनन का फेर, जब नीके दिन आईहें बनत न लगिहै देर.’ अफसोस कि इस में निहित संदेश को वे समझ नहीं पाए. सरकारी दस्तावेजों में अपनी जन्मतिथि में दिनन के फेर को वे चुप लगा कर देख न पाए. इतना बोले, इतना बोले कि देश के सर्वोच्च न्यायालय को उन्हें चुप कराना पड़ गया. 13 लाख सैनिकों के प्रमुख जनरल विजय कुमार सिंह ने भारत के सेनाध्यक्ष पद की गरिमा के साथ जितना खिलवाड़ किया वह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उन्हें दी गई चुभने वाली टिप्पणियों और परामर्श ने जगजाहिर कर दिया.

सेनाध्यक्ष रहते हुए वे जो कुछ बोले उस से मनमोहन सिंह जैसे चुप रहने वाले प्रधानमंत्री और शांत छवि वाले रक्षामंत्री ए के एंटोनी भी त्रस्त और असहज हो गए. विजय कुमार सिंह कुछ बोलते थे तो यह समझ कर कि इस से सेना की गंभीर जरूरतों के प्रति रक्षा मंत्रालय की उदासीनता और अकर्मण्यता कम होगी. पर वे जब भी बोले उन्होंने मंत्रालय अधिकारियों और सैन्य मुख्यालयों के बीच की खाई को केवल और चौड़ा व गहरा किया.

किसी भी गणतंत्र में नागरिक प्रशासन और सरकार के समग्र दिशानिर्देशन और नीतिनिर्धारण के तहत ही सेनाओं को आचरण करना होता है. ऐसा न होने पर क्या होगा, जानने के लिए कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं. पाकिस्तान, म्यांमार, थाईलैंड आदि हमारे बहुत निकट हैं. वहां हम बहुत बार देख चुके हैं कि फौजी गाड़ी जब गणतंत्र के घोड़े के आगे जोत दी जाती है तो जनता की आकांक्षाएं बलि चढ़ा दी जाती हैं. पर इस के विपरीत हमारे देश में सैन्य मुख्यालयों में उच्चपदस्थ सैन्य अधिकारियों को अपने समकक्ष सिविल अधिकारियों के आगे नितांत आवश्यक समस्याओं के निदान के लिए भी याचक की तरह जाने की परंपरा बन गई है. उन के कद घटा कर इतने छोटे कर दिए गए हैं कि उन की चीख भी फुसफुसाहट से अधिक असर नहीं करती.

सेना मुख्यालय और रक्षा मंत्रालय के संबंध याचक और दाता के सांचे में ढल गए हैं. एक नए और अधिक संतुलित एवं तर्कपूर्ण सैन्य मुख्यालय और रक्षा मंत्रालय में सामंजस्य के लिए जितने धैर्य, दूरदृष्टि, परिपक्वता, पैनी समझ और कूटनीतिक क्षमता की आवश्यकता है उस का जनरल सिंह में थलसेनाध्यक्ष के पद पर आसीन होने के पहले से ही नितांत अभाव दिखता रहा था. जब उन्होंने एक कर्तव्यनिष्ठ, जिम्मेदार सेनाध्यक्ष की तरह सरकार को भारतीय थलसेना को उपलब्ध आयुध एवं शस्त्रास्त्र की चिंतनीय स्थिति पर खुलेआम आगाह किया तो उस का प्रभाव उलटा ही पड़ा. संदेश पसंद न आने पर संदेशवाहक को सूली पर चढ़ा देने की ऐतिहासिक परंपरा का पालन हुआ.

सेनाध्यक्ष की सियासतबाजी

थलसेनाध्यक्ष के पद पर आसीन जनरल सिंह ने अपनी निजी समस्याओं को ले कर सरकार के विरुद्ध मोरचा खोला. उसी के परिणामस्वरूप न वे उस में अपने लिए कोई विजय पा सके न अभावों से तरसती सेना के लिए कुछ हासिल कर पाए. कुल मिला कर यही हो पाया कि सेना मुख्यालय और रक्षा मंत्रालय के ठंडे और लचर संबंध कटु से बढ़ कर विषाक्त हो गए.

थलसेनाध्यक्ष पद से मुक्त होने के बाद अपने पुनर्स्थापन के चक्कर में उन्होंने खूब फेरे लगाए. कभी अन्ना हजारे के मंच पर अन्ना के चश्मे में उन की छवि दिखी तो कभी रामदेव के साथ उन्होंने गोटी फिट करने का प्रयास किया. किसानों के आंदोलन में घुसना चाहा और नरेंद्र मोदी के साथ भूतपूर्व सैनिकों के सम्मेलन में भी दिखाई पड़े. यहां आ कर उन्हें लगा कि उन्होंने आखिर में सही जगह जा कर मोरचा खोला है. लाखों भूतपूर्व सैनिकों की आकांक्षाओं का यूपीए सरकार निर्ममता से हनन करती चली आ रही थी. ‘एक रैंक एक वेतन’ की उन की ऐसी मांग, जिसे हर सोपान पर अदालतों ने उचित ठहराया, को सरकार वर्षों तक ठुकराती रही. वेतन आयोग की सिफारिशों को नागरिक सेवाओं के बाबुओं ने बिना सेना की विशेष परिस्थितियों को समझे कुतर्कों से तोड़ामरोड़ा. सैन्य सेवाओं के कर्मचारियों की जायज और न्यायोचित मांगों को सिविल सर्विस के हितों की

रक्षा में प्राणपन से समर्पित मंत्रालय अधिकारियों ने नजरअंदाज कर रखा था. इन सब की स्वाभाविक प्रतिक्रिया समझ पाने में जहां तत्कालीन सरकार पूरी तरह से असफल रही वहीं सैन्य कर्मचारियों के गिरते हुए मनोबल को भाजपा के जमीनी सचाइयों से जुड़े हुए कार्यकर्ता और शीर्ष नेता, सभी ठीक से आत्मसात कर पाए. स्थल, जल और वायु सेना तीनों में कुल मिला कर 17-18 लाख लोग सेवारत हैं. पूरे देश के कोनेकोने से आने वाले ये वरदीधारी और उन के परिवार व संबंधी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर एक बहुत विशाल संख्या में थे. सरकार की अनदेखी से संतप्त उन के परिवारों और स्वजनों के गिरते मनोबल व बढ़ते असंतोष का दुष्परिणाम सत्तारूढ़ दल के प्रत्याशियों को भुगतना पड़ेगा, इसे भाजपा ने पहचाना.

इधर सेनाध्यक्ष पद पर आसीन होने वाले दिनों की कड़वी याद जनरल वी के सिंह के आहत अभिमान की ज्वाला को बुझने नहीं दे रही थी. उधर भाजपा को इतने व्यापक क्षेत्र में तत्कालीन सरकार की अनदेखी का प्रचार करने के लिए इतना कद्दावर भूतपूर्व सैनिक कोई और उपलब्ध नहीं था. फिर क्या जरूरत थी जनरल साहब को नीके दिनों के आने की प्रतीक्षा में चुप हो कर बैठने की? वे मुखर तो थे ही, अब और वाचाल हो गए.

सेनाध्यक्ष पद से निवृत्त होने के बाद उन के उस पद पर आसीन रहते हुए किए गए कई हैरतंगेज कारनामों में सेना के टैक्निकल सपोर्ट डिवीजन की आड़ में रक्षा मंत्रालय में गुप्तचरी का आरोप सब से विस्मयकारी था. पर यह भी सच है कि एक प्रमुख अंगरेजी दैनिक में एक ऐसी घटना को ले कर तिल का ताड़ बनाया गया कि जानकारों को यह एक बेहद बचकाना प्रयास लगा. गणतंत्रदिवस के आसपास कुछ सैन्य टुकडि़यों के नियमित रूप से होते रहने वाले युद्धाभ्यास में कुछ इकाइयों द्वारा दिल्ली के आसपास की गई गतिविधियों की आधीअधूरी जानकारी ले कर कुछ लोग चिल्ला पड़े, कौआ कान ले गया और कुछ कान के कच्चे लोग बिना कनपटी को टटोलते कौए के पीछे दौड़े भी.

पर कुल मिला कर इस बेसिरपैर के नाटक का कोई प्रभाव जनमानस पर नहीं पड़ा. पर जनरल साहब को दूसरों द्वारा अपनी जड़ें खोदने की क्यों चिंता हो जब वे स्वयं अपनी जड़ें खूबसूरती से खोद लेते हैं. इसलिए जहां उन के नेतृत्व में सेना द्वारा सत्तापलट करने की बात को किसी ने गंभीरता से नहीं लिया वहीं उन के इस कथन ने कि सेना जम्मूकश्मीर में अपने खुफिया कोष से राजनीतिक दलों के नेताओं को धन बांटती थी, सब को स्तब्ध कर दिया.

बयानों की जुगाली

जनरल साहब के इस बयान से जहां सरकारी हलकों में खलबली मच गई वहीं देश की अखंडता के शत्रुओं को भारत की भर्त्सना करने के लिए एक सशक्त डंडा मिल गया. उन के इस वक्तव्य से सब से अधिक क्षुब्ध अगर कोई हुआ तो स्वयं सेना के अधिकारी और जनरल सिंह के वे प्रशंसक जो अभी तक उन की स्पष्ट वक्तता और ईमानदारी के गुण गाते थे.

सिविल सेवाओं में आने वाला हर अधिकारी मेजर जनरल के समकक्ष पद संयुक्त सचिव तक पहुंचता ही है पर 90 प्रतिशत सैन्य अधिकारी उपसचिव के समकक्ष पद तक पहुंच कर चूक जाते हैं. ऐसे में थलसेनाध्यक्ष के इकलौते पद पर एक सेना अधिकारी 3-4 दशक लंबी लड़ाई जीत कर ही पहुंचता है. विजय सिंह अपने प्रबंधन, नेतृत्व और कार्यकुशलता के गुणों का समुचित परिचय मेजर जनरल और लैफ्टिनैंट जनरल के पदों पर देने के बाद ही इस सर्वोच्च पद तक पहुंचे थे. इसलिए उन की योग्यता पर सवालिया निशान लगाना गलत होगा. पर पद की मर्यादा का पालन करने में वे पूरी तरह असफल रहे हैं.

यह कैसा आचरण

लैफ्टिनैंट जनरल के पद पर आसीन अगले सेनाध्यक्ष के पद के लिए मनोनीत अधिकारी की तुलना चोरडाकुओं के सरगना से करने से बढ़ कर अधिक असंतुलित और बचकाना आचरण क्या होगा. लैफ्टिनैंट जनरल दलबीर सिंह सुहाग संप्रति मनोनीत सेनाध्यक्ष हैं.

13 लाख की विशाल संख्या वाली भारतीय थलसेना विश्व के समस्त देशों में अपनी बहादुरी, राजनीति से असंबद्धता और अपने प्रोफैशनलिज्म अर्थात व्यावसायिक गुणवत्ता के मानक स्थापित करती है. उस के सर्वोच्च पद पर आसीन होने के लिए जिस व्यक्ति का चुनाव पिछली सरकार कर चुकी है और जो राजग की सरकार को भी मान्य है, उस के विषय में जनरल वी के सिंह का कथन है कि अगर यूनिट निर्दोषों को मारती है, डकैती करती है और उस के बाद संगठन के प्रमुख उन्हें बचाने की कोशिश करते हैं तो क्या उन्हें आरोपी नहीं ठहराना चाहिए? क्या अपराधी खुले घूमेंगे? जब स्वयं जिस सरकार में जनरल विजय कुमार सिंह मंत्री हैं उसी का रक्षा सचिव सर्वोच्च अदालत में हलफनामा दे कि लैफ्टिनैंट जनरल सुहाग की पदोन्नति पर प्रतिबंध उन के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही सरासर गलत थी तो इस प्रतिबंध के लगाने वाले का खिसियानी बिल्ली जैसा आचरण हास्यास्पद नहीं बल्कि घृणित प्रतीत होता है.

निजी स्वार्थों से बचें

देश अपने नेताओं से यह अपेक्षा रखता है कि अपने निजी कार्यकलाप में वे क्षुद्रता और निजी स्वार्थों में लिप्त होने का संकेत न दें. छोटी अदालत से ले कर सर्वोच्च न्यायालय तक की परंपरा है कि न्यायाधीश अपने किसी सगेसंबंधी का मुकदमा आने पर स्वयं उस मुकदमे को नहीं सुनता है. जब सब को मालूम है कि लैफ्टिनैंट जनरल सुहाग जो योग्यता और सीनियरिटी दोनों ही दृष्टियों से सेनाध्यक्ष पद के लिए योग्य पाए गए हैं. येनकेन प्रकारेण उन्हें इस पद के लिए ठुकराया गया तो स्वाभाविक रूप से यह पद जनरल विजय सिंह के समधी साहब लैफ्टिनैंट जनरल अशोक सिंह की झोली में जा गिरेगा तो जनरल विजय सिंह को शालीन असंबद्धता की मर्यादा निभाते हुए जनरल सुहाग की भर्त्सना करने से बचना चाहिए था. पर अपने निजी एजेंडे के आगे जनरल सिंह ने थलसेना ही नहीं सारी सशस्त्र सेनाओं के मनोबल और स्वाभिमान की चिंता नहीं की.

हाल में केंद्रीय मंत्रिपरिषद के गठन के समय लगभग सभी रक्षा कर्मचारियों को भय था कि कहीं रक्षा मंत्रालय उन के हाथ में न सौंप दिया जाए. गनीमत है सशस्त्र सेनाओं से जनरल साहब को दूर ही रखा गया.

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