पुरी की जगन्नाथ रथयात्रा धार्मिक आडंबर और अंधविश्वास का ऐसा भव्य आयोजन है जो वनसंपदा और जनता की मेहनत की कमाई से फलताफूलता है. देश की आर्थिक संपदा को बरबाद करते इस पाखंड को धर्म के ठेकेदारों ने धर्मभीरुओं को पापपुण्य और मोक्ष का लालच दे कर किस तरह राष्ट्रीय व धार्मिक आयोजन में तबदील कर दिया है, बता रहे हैं सुरेश प्रसाद.
भारत अंधविश्वासों का देश है. ये अंधविश्वास यहां के पर्वत्योहारों में झलकते हैं. ऐसे उत्सवों में से एक है ओडिशा के पुरी की विश्वप्रसिद्ध जगन्नाथ रथयात्रा. आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को हर वर्ष जगन्नाथ रथयात्रा का आयोजन किया जाता है. रथयात्रा का दर्शन करने के लिए देशविदेश से लाखों लोग आते हैं और यहां के अंधविश्वास में विभोर हो जाते हैं. इस रथयात्रा में लाखों लोग बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं. इस बार यह रथयात्रा 10 जुलाई से 18 जुलाई तक चली.
पुरी के जगन्नाथ मंदिर के बारे में यह धारणा है कि यहां कथित ‘भगवान’ कृष्ण, जगन्नाथ के रूप में विराजमान हैं और उन के साथ उन की बहन सुभद्रा व उन के बड़े भाई बलभद्र (बलराम) भी विराजते हैं. किंवदंती है कि एक बार सुभद्रा के आग्रह पर दोनों भाई उन्हें भ्रमण कराने के लिए द्वारका ले गए थे. उसी यात्रा की याद में हर वर्ष यह भव्य रथयात्रा निकाली जाती है. माना जाता है कि आज के दिन कथित भगवान जगन्नाथ अपनी मौसी के घर जाते हैं.
रथयात्रा के दौरान सब से आगे बलभद्र का रथ ‘तालध्वज’ चलता है. उस के पीछे सुभद्रा का रथ ‘दर्पदलम’ व सब से पीछे जगन्नाथ का रथ ‘नंदिघोष’ चलता है. हर रथ में 4 काष्ठ के अश्व व सारथी रहते हैं. अर्थात रथ में सजीव घोड़े न हो कर लकड़ी के बने घोड़ों का इस्तेमाल होता है. सारथी भी पंडेपुजारी न हो कर लकड़ी के ही होते हैं.
वनसंपदा का अपव्यय
लकड़ी से बनाए गए जगन्नाथ का रथ 35 फुट लंबा, 35 फुट चौड़ा व 45 फुट ऊंचा होता है. बलभद्र का रथ 44 फुट लंबा व 43 फुट ऊंचा होता है. जगन्नाथ के रथ में 16 पहिए, बलभद्र के रथ में 14 व सुभद्रा के रथ में 12 पहिए होते हैं. हर रथ का भार 60 टन से भी अधिक होता है. ये रथ प्रतिवर्ष नए बनाए जाते हैं. इन के निर्माण में लकड़ी का भारी अपव्यय होता है क्योंकि हर साल इन के निर्माण में टनों लकड़ी बरबाद हो जाती है. वनसंपदा की बरबादी का आलम यह है कि तीनों रथों पर जो मूर्तियां विराजमान होती हैं वे भी काष्ठनिर्मित होती हैं और इन मूर्तियों को हरेक मलमास (लीप इयर) में बदला जाता है, यानी पुरानी मूर्तियों को मंदिर परिसर में जमींदोज कर नई लकड़ी मूर्तियों का निर्माण किया जाता है.
हरेक रथ के निर्माण में लगभग 60 टन लकड़ी लगती है. मूर्तियां हर 3 साल (हिंदू कैलेंडर के मुताबिक हर 3 साल पर मलमास या लीप इयर होता है) बाद बदली जाती हैं. अगर 3 मूर्तियों का वजन सम्मिलित रूप से 60 टन मान लें तो औसतन प्रतिवर्ष 20 टन लकड़ी उस में भी लगी, यानी प्रतिवर्ष 3 रथ व मूर्ति में 200 टन लकड़ी इस्तेमाल हुई. इस तरह इस धार्मिक आयोजन में करोड़ों रुपए यों ही बरबाद होते हैं. यह कीमत सिर्फ कच्चे माल (महज लकड़ी) की ही हुई. इतनी लकडि़यां जुटाने के लिए हर वर्ष सैकड़ों पेड़ काटने पड़ते होंगे. इस तरह अकेले पुरी की रथयात्रा पर ही लगभग करोड़ों की वनसंपदा प्रतिवर्ष नष्ट हो रही है.
गौरतलब है कि पुरी की रथयात्रा के समानांतर देशभर में रथयात्राओं का आयोजन किया जाता है. सो, देशभर में वनसंपदा की क्षति का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है. एक ऐसे ‘बीमारू’ राज्य ओडिशा में, जहां की लगभग दोतिहाई आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रही हो, प्रतिवर्ष करोड़ों की वनसंपदा नष्ट करना, वह भी धर्म व अंधविश्वास के नाम पर, बेवकूफी नहीं तो और क्या है? उस पर तुर्रा यह कि हम विश्व की ‘आर्थिक महाशक्ति’ बनने को आतुर हैं. क्या देश का पर्यावरण एवं वन मंत्रालय इस तरफ ध्यान नहीं देता? वनों के इर्दगिर्द रहने वाले आदिवासी जब ईंधन के लिए लकड़ी काटते पाए जाते हैं तब वनरक्षक उन पर गोली तक चला देते हैं. उन गरीब आदिवासियों पर ‘वन्य संरक्षण कानून’ लागू हो जाता है और उन्हें दंडित किया जाता है.
दूसरी तरफ रथयात्रा के आयोजन के नाम पर धार्मिक लुटेरे प्रतिवर्ष सैकड़ों पेड़ काट डालते हैं तो सरकार चूं तक नहीं बोलती. क्या इन धार्मिक लुटेरों पर ‘वन्य संरक्षण कानून’ लागू नहीं होता? यह नक्सलवाद देशभर में अकारण ही अपने पैर पसार रहा है. नक्सलियों में ज्यादातर गरीब आदिवासी हैं. अगर उन की उपेक्षा होगी तो उन के पास और क्या चारा रह जाता है, क्योंकि उन की रोजीरोटी पर ये धार्मिक लुटेरे हावी हो जाते हैं.
रथ खींचने की होड़
ऐसा अंधविश्वास है कि इस रथयात्रा में रथों को खींचने से सारे पाप धुल जाते हैं और मरणोपरांत मोक्ष की प्राप्ति होती है. यही कारण है कि देशविदेश से आए कथित श्रद्धालुओं के बीच रथ खींचने की होड़ लगी रहती है ताकि उन के सारे कुकर्म माफ हो जाएं यानी रथ खींचो और पापमुक्त हो जाओ. कई बार तो रथयात्रा के दौरान भगदड़ मच जाती है और लोगों की जानें तक चली जाती हैं. काष्ठ मूर्ति पर भारी सुरक्षा व्यय हर बार की तरह इस बार भी रथयात्रा के लिए प्रशासन ने सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए. इस बार सुरक्षा को ले कर रैपिड ऐक्शन ऐंटी टैरेरिस्ट स्क्वायड और कोस्ट गार्ड के जवानों को तैनात किया गया. पूरे रास्ते पर सीसीटीवी कैमरे लगाए गए.
दिमागी दिवालिएपन का नजारा
पुरी की रथयात्रा के अलावा पूरे देश में अपनीअपनी अलग रथयात्राओं की धूम रहती है. पुरी के अलावा मुंबई, जयपुर, अहमदाबाद सहित कई दूसरे शहरों व कसबों में भी जगन्नाथ यात्रा धूमधाम से निकाली जाती है. गुजरात के मुख्यमंत्री अहमदाबाद के जमालपुर स्थित मंदिर के बाहर रथयात्रा के मार्ग को बुहारते हैं.
मीडिया भी रथयात्रा के कब्जे में
धार्मिक उत्सवों के प्रसारण में खबरिया चैनल एकदूसरे से होड़ लेते दिखाई देते हैं. कई चैनल तो इस का सीधा प्रसारण भी दिखाते हैं. एक धर्मनिरपेक्ष देश में किसी भी धर्म के उत्सवों का सीधा प्रसारण नहीं होना चाहिए क्योंकि इस से अंधविश्वास को बढ़ावा मिलता है. और तो और, लोग कथित ‘मोक्षप्राप्ति’ के लिए अनर्गल क्रियाकलापों (मसलन, रथ खींचना वगैरह) के प्रति प्रेरित होते हैं. देश का संविधान जहां वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने की सीख देता है वहीं देश का मीडिया लोगों में धार्मिक उत्सवों के प्रसारण के जरिए अंधविश्वास फैला रहा है.
मजे की बात तो यह है कि कोई भी सांसद संसद में इस मुद्दे पर कुछ नहीं बोलता, जबकि अपने वेतनभत्ते बढ़ाने के लिए पक्षविपक्ष के सभी सांसद एक हो जाते हैं. हों भी क्यों न, जनता अंधविश्वासी बनी रहेगी तो वह माननीयों के घोटालों को भी ‘ईश्वरीय प्रकोप’ मान बैठेगी.
रथयात्रा का औचित्य
सब से महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि 21वीं सदी के तकनीकी युग में ‘रथयात्रा’ जैसे खर्चीले आयोजनों का औचित्य क्या है? ईश्वर को क्या वास्तव में काष्ठ निर्मित रथों की जरूरत है? लोग काष्ठ के रथ को पूज रहे हैं या फिर अपने इष्ट को? इन रथों के निर्माण पर जो वनसंपदा नष्ट हो रही है, आखिर वह संपदा है तो ओडिशा के लोगों की ही न. सवाल यह भी है कि क्या एक ही बार निर्मित रथों से हर साल रथयात्रा का आयोजन नहीं किया जा सकता? आखिर एक इंसान की उम्र भी 100 साल आंकी गई है, तो रथों की उम्र महज 3 साल क्यों? क्या ये रथ भी 100 साल इस्तेमाल नहीं किए जा सकते? जबकि इन रथों पर स्वयं ईश्वर विराजते हैं? ये ईश्वर अपने पुण्यप्रताप से इन रथों को अनंतकाल तक इस्तेमाल योग्य क्यों नहीं बना देते?
अंतिम सवाल यह है कि देवीदेवताओं को भला पर्यटन करने की जरूरत क्यों आन पड़ी? वे तो ‘सर्वव्यापी’ होते हैं व ‘सर्वशक्तिमान’ भी. फिर ये रथों की यात्रा क्यों करें व उन रथों को जनता क्यों खींचे? उन के जो परमभक्त (पंडेपुजारी) हैं वे ही रथों को खींचें और उन रथों के निर्माण पर सार्वजनिक धन का दुरुपयोग न किया जाए. बेहतर यह होगा कि हम ऐसे मूर्खतापूर्ण आयोजनों से बाज आएं और गरीबी मिटाने व खुशहाली के लिए काम करें, जोकि रथयात्राओं से नहीं बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने से ही संभव हो सकेगी.