केदारनाथ में आए मौत के सैलाब से शिव की नगरी श्मशान में तबदील हो गई. हजारों अंधभक्त, धर्मभीरु श्रद्धालु धर्म के ठेकेदारों की साजिश के तहत अपना घरपरिवार छोड़ कर ऐसी दुर्गम जगहों पर आ कर हादसों को बुलावा देते हैं. इस हादसे से जिंदा लौटे कुछ लोगों की आपबीती और धर्म के धंधेबाजों की मानसिकता पर रोशनी डाल रही हैं बुशरा खान.
4 जून को जबकेदारधाम मंदिर के कपाट खुले तो प्रतीक्षारत श्रद्धालुओं के जत्थे के जत्थे उत्तराखंड की ओर रवाना हो चले. लेकिन बीती 16-17 जून की रात देवभूमि कहे जाने वाले उत्तरकाशी में अचानक आई भीषण तबाही ने हजारों जानों को लील लिया. मांगने गए थे खुशियां व सलामती पर भक्तों को बदले में आंसू, मौत और अपनों के बिछोह का गम मिला. आस्था की उमड़ती हिलोरें चंद ही क्षणों में मौत की सिसकियों में बदल गईं. भक्तों पर सुखसमृद्धि की जगह आसमान से मौत बरस पड़ी.
इस तबाही ने लंबे समय तक अपना तांडव दिखाया. भक्तों सहित देशदुनिया के लोग इस तबाही से सकते में थे. बच्चे मरते रहे, महिलाओं का बलात्कार होता रहा, जेवरात लूटने वाले उन के हाथ काट कर चूडि़यांकंगन उतारते रहे और भगवान चुप बैठा रहा. श्रद्धालु जिस भगवान की जयजयकार करते उस की शरण में अपने दुखों से मुक्ति पाने के लिए गए थे उस भगवान ने भक्तों को मरने के लिए असहाय छोड़ दिया.
स्वयं को भगवान का ठेकेदार बताने वाले पंडेपुजारी भी मैदान छोड़ कर भाग खड़े हुए. धर्म के ठेकेदार चुपचाप अपने सिंहासनों पर बैठे श्रद्धालुओं की मौत का तमाशा देखते रहे. आपदा से किसी तरह बच कर जिंदा लौटे लोगों की आपबीती ने सब को सन्न कर दिया.
दिल्ली के पीतमपुरा इलाके का 19 साल का उदय इस भीषण आपदा से जिंदा लौट कर घर तो आ गया लेकिन अभी भी वह बुरी तरह सहमा हुआ है. यात्रा पर उस के साथ गए उस के ताऊ और ताई का आज तक कोई पता नहीं है. वे कहां हैं, कैसे हैं, कोई नहीं जानता.
उदय ने बताया कि उस के ताऊ व ताई केदारनाथ मंदिर जाने के लिए घोड़ों पर निकले थे. जबकि उदय की तबीयत खराब हो जाने के कारण वह ऊपर नहीं गया. उन के मोबाइल फोन भी उदय के ही बैग में रह गए थे इसलिए उन से कोई संपर्क भी नहीं हो पाया. इस के बाद उदय मीलों पैदल चलता रहा. आखिरकार सेना के जवानों ने उसे ऋषिकेश पहुंचाया जहां से उसे दिल्ली लाया गया.
उदय के पिता का कहना है, ‘‘पुरानी दिल्ली में एक ट्रैवल एजेंसी है जो श्रद्धालुओं को धार्मिक यात्राओं पर ले कर जाती है. मेरे बड़े भाई, भाभी व बेटा उसी टै्रवल एजेंसी के माध्यम से वहां गए थे. ये ट्रैवल एजेंसियां चारधाम यात्रा का पूरा पैकेज देती हैं और जत्थे के जत्थे श्रद्धालुओं को तीर्थयात्राआें पर जाने का प्रबंध करती हैं.’’
दिल्ली के रोहिणी इलाके के निवासी सियाराम गुप्ता भी इन्हीं लोगों में शामिल हैं जिन का 30 वर्षीय बेटा, बहू व 3 वर्षीय पोती केदारनाथ से आज तक नहीं लौटे. बेटे के साथ उस के सासससुर भी यात्रा के लिए निकले थे. आज तक इन में से किसी की कोई खबर नहीं है.
सियाराम के घर में मातम पसरा था. मांबहनों का रोरो कर बुरा हाल था. सियाराम आपदा राहत केंद्र में अपनी शिकायत भेजभेज कर थक चुके, मगर कहीं से कोई खबर नहीं मिली. वे कहते हैं, ‘‘हम तो बहुत धार्मिक प्रवृत्ति वाले लोग हैं, सोचा भी नहीं था कि यात्रा पर बच्चों को ऐसी भीषण आपदा का सामना करना पड़ेगा.’’
सुल्तानपुरी में अपना क्लिनिक चलाने वाले डा. विजय यादव और उन की पत्नी अनीता यादव सहित उन के परिवार से कुल 7 लोग चारधाम यात्रा पर निकले थे. उन के साथ बस में 27 अन्य लोग भी थे. इस आपदा में सब बिछड़ गए. विजय ने आप बीती सुनाते हुए बताया, ‘‘हम केदारनाथ के एक होटल में ठहरे हुए थे. होेटल वालों ने चिल्ला कर कहा कि सब ऊपर चढ़ जाएं. कुछ अनहोनी होने वाली है. लोग बदहवास हो कर होटल की छत की ओर दौड़ पड़े. कुछ ही देर में चारों ओर लाशें ही लाशें बिखरी पड़ी थीं.
डा. विजय की पत्नी सुनीता ने बताया, ‘‘हम ने तो उम्मीद ही छोड़ दी थी कि ऐसी भीषण आपदा से बच कर जिंदा घर लौट पाएंगे. हजारों लोग वहां मर चुके थे और मर रहे थे. यदि थोड़ी देर हम और वहां फंसे रहते तो जल्द ही भूखप्यास से दम तोड़ देते.’’
ऐसी ही मार्मिक कहानी अलीगढ़ के ओमप्रकाश की है जिन्होंने अपनी आंखों के सामने अपनी पत्नी व छोटेछोटे 3 बच्चों व अपने परिजनों को दम तोड़ते देखा. शायद ही ओमप्रकाश इस सदमे से अब कभी उबर सकें.
केदारनाथ से मौत के मुंह से बच कर लौटे दिल्ली के जीटीबी नगर के निवासी दुर्गाप्रसाद दुबे व उन की पत्नी ज्ञानदेवी केदारधाम के एक होटल में ग्राउंड फ्लोर पर ठहरे हुए थे. दूबे अपनी पत्नी व 3 अन्य लोगों के साथ चारधाम की यात्रा पर निकले थे. उन के अनुसार, ‘‘सुबह के समय अचानक तेज धमाका हुआ और इस से पहले कि कोई कुछ सम?ा पाता तेज वेग से पानी खिड़की और दरवाजों से कमरे में घुसने लगा. पानी का वेग इतना अधिक था कि कमरे के अंदर पड़े बैड व सारा सामान पानी में तैरने लगा.’’
इस आपदा में बरबाद हुए हजारों घरों की आपबीती लगभग एक जैसी है. इस हृदयविदारक मंजर को देख कर भक्तों का विश्वास देवीदेवताओं से उठना चाहिए था. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, उलटे बच कर आए लोग इसे प्रभु की कृपा और मौतों को नियति बता कर अपने दिल को तसल्ली दे रहे हैं. होनी को कौन टाल सकता है, सोच कर भक्त फिर भगवान से मोक्ष और कल्याण मांगने चल पड़े हैं. भक्त हैं कि सबक नहीं सीखते. कैसी अंधश्रद्धा है. भक्तों के अनुसार भगवान तो कहता है कि वह कणकण में मौजूद है और विपदा के समय अपने भक्तों की रक्षा करता है. तो फिर जब छोटेछोटे मासूम बच्चे और लाचार बूढे़ मर रहे थे तो वह कहां छिप गया था.
शासनप्रशासन की निंदा करने के बजाय उन असली दोषियों यानी धर्मगुरुओं का बहिष्कार होना चाहिए था जिन के माथे पर इन हजारों मौतों के बाद भी कोई शिकन दिखाई नहीं देती बल्कि केदारधाम में मरने वालों को वे भाग्यशाली बता कर लीपापोती करने में लग गए. खुद अपने द्वारा बरगला कर तीर्थों पर बुलाए गए भोलेभाले लोगों को मरते देख भाग खड़े हुए. हद तो तब हो गई जब वे इस आपदा के लिए उलटे उन भक्तों को ही यह कह कर दोषी ठहरा रहे हैं कि परंपराओं का पालन नहीं हो रहा और भक्त यहां अच्छी भावना से नहीं आते इसलिए भगवान नाराज हैं.
केदारधाम में भक्तों के सड़ते शवों की परवा किए बगैर पूजापाठ के अधिकार को ले कर आपस में लड़ने लगे. शंकाराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती, संत समाज व केदारनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी रावल के बीच मंदिर में पूजा के अधिकार को ले कर धर्मयुद्ध छिड़ गया.
दरअसल, सारा ?ागड़ा धर्म के नाम पर तीर्थस्थल पर चढ़ाए जाने वाले उन करोड़ों रुपयों का है जो यहां आने वाले भक्तों द्वारा दानदक्षिणा के रूप में चढ़ाया जाता है. इसी पैसे के दम पर पंडेपुजारी ऐश करते हैं. लोगों के बीच तीर्थ के ?ाठे महत्त्व बताने वाले व कल्याण व मोक्ष के लिए भगवान की शरण में जाने की सलाह देने वाले धर्मगुरु सदा से लोगों की आस्था को भुनाते आए हैं. ये लोगों की आंखों पर अंधी आस्था की पट्टी बांध उन्हें लूटते हैं. इन के बहकावे में आ क र भक्त अपनी व अपने परिवार वालों की जानों को जोखिम में डाल कर दुर्गम यात्राओं पर चल पड़ते हैं, जहां धर्म के धंधेबाज आस्था के नाम पर उन को लूटने के लिए भगवा धारण कर अपनी दुकानें सजाए बैठे होते हैं.
दरअसल, धर्म का मार्केटिंग नैटवर्क बहुत सुदृढ़ है. किसी ने कह दिया कि फलां देवीदेवता के मंदिर या तीर्थस्थल में जाने या साधुसंत या गुरु को मानने से कल्याण हो जाएगा, मंशा पूरी हो जाएगी. तो सुनने वाला कल्याण और मंशा पूर्ति के लालच में वैसा ही किए बिना नहीं रहेगा. बात एक से दूसरे, तीसरे, चौथे व्यक्ति से होते हुए हजारोंलाखों लोगों तक पहुंचेगी. इस तरह धर्मस्थलों का प्रचार बढ़ता जाता है. लोग जुटते जाते हैं. गाडि़यों में भीड़ शहरों से होते हुए धर्मस्थलों तक जाती है तो वहां की सारी व्यवस्था चरमरा उठती है. आस्था में अंधे हुए लोगों को यह सब जाननेसम?ाने का विवेक नहीं रहता और हादसे हो जाते हैं.
उत्तरकाशी में भी यदि इतनी अधिक संख्या में भक्तों का जमावड़ा न होता तो हजारों जानें बच जातीं. इस भीड़ के चढ़ावे से धर्मस्थलों की तिजोरियां तो भर जाती हैं पर भक्तों को जानें और जेबें गंवानी पड़ती हैं. इन धर्मगुरुओं के एजेंटों के रूप में काम करने वाले धार्मिक ट्रैवल एजेंसियां खोल कर, गलीमहल्लों में जा कर लोगों को तीर्थस्थलों पर ठेलने का काम करते हैं. इन्हीं के द्वारा श्रद्घालुओं के जत्थे के जत्थे धार्मिक यात्राओं पर धकेले जाते हैं और पूरी यात्रा के दौरान धर्म के नाम पर वे जीभर कर लूटे जाते हैं. इसी कारण हमारे देश में ऐसे निकम्मे लोगों की एक बड़ी फौज बन गई है. साधुसंत गृहत्याग का बहाना बना धर्म की आड़ में बिना हाथपांव हिलाए पेट भरते हैं.
अचंभा तो तब होता है जब इस तरह की घटनाओं में जानें गंवानेके बाद भी लोग बाज नहीं आते. इतिहास गवाह है धर्म के नाम पर जितने लोगों की जानें गई हैं उतनी किसी अन्य कारण से नहीं. सभी धर्मों के हाथ खून से रंगे हैं.
ये हादसे एक सबक हैं उन लोगों के लिए जो आंख मूंद कर धर्म के सौदागरों की बातों में फंस कर अपना सबकुछ लुटा देने को तैयार रहते हैं. धर्म के नाम पर पंडोंपुजारियों की ?ोलियां भर देते हैं.