Culture and Pollution:
पहला सवाल- क्या हम कभी सुधर सकते हैं?
दूसरा सवाल- संस्कृति के नाम पर गंदगी और प्रदूषण जायज क्यों?
प्रसिद्ध भारतीय पत्रकार, स्तंभकार, लेखिका, राजनीतिज्ञ और वर्तमान में तृणमूल कांग्रेस की तरफ से राज्यसभा सांसद सागरिका घोष ने एक्स पर जोय ञ्चजोयदास का एक वीडियो शेयर कर लिखा, ‘‘विदेशों में बसे भारतीय प्रवासी समुदाय को कभी मेहनती, कानून का पालन करने वाले और गरिमामयी माना जाता था. दुख की बात है कि अब यह बदल गया है.’’
जोय ने अपने वीडियो के साथ कैप्शन में लिखा था, ‘‘23 अक्टूबर को भारतीय अमेरिका में दिवाली मना रहे थे. वहां की पुलिस और अग्निशमन विभाग भी इस उत्सव में शामिल होने आए और उन्होंने होली खेली.’’

दरअसल अमेरिका की सड़कों पर दिवाली मनाने उतरे भारतीय पूरी सड़क पर पटाखों का कचरा फैला रहे थे जैसे वे भारत में करते हैं. भारत में तो उन के इस कृत्य को धार्मिक कारनामा माना जाता है. दीवाली की अगली सुबह तमाम सड़कें पटाखों का बारूद और जले हुए कागज व पटाखों के खोखोंं से पटी पड़ी होती हैं. वातावरण पटाखों की बदबू से भरा होता है. यह हमारी भारतीय संस्कृति और धर्म है, जो अमेरिकी पुलिस को कतई रास नहीं आई और उन्होंने फायर ब्रिगेड बुलवा कर दिवाली मना रहे लोगों समेत पूरी सड़क पर जल रहे पटाखों पर ठंडे पानी की मोटी फुहारें छोड़ दिवाली को होली में बदल दिया.
विदेशों में सफाई का अनुशासन सरकार से ज्यादा नागरिकों के भीतर से आता है. वहां का बच्चा स्कूल में यह सीखता है कि सार्वजनिक स्थान उस का अपना घर है. कोई भी व्यक्ति सड़क पर कुछ फेंकता है, तो आसपास के लोग उसे तुरंत टोक देते हैं. सामाजिक शर्म वहां का सब से बड़ा नियंत्रण है. मगर हम भारतीय उन के साफ-सुथरे देश में पहुंच कर वहां भी अपने गंदे संस्कार दिखाना नहीं भूलते.
पानी की खाली बोतलें, चिप्स के खाली रैपर, घर का कूड़ा-करकट सब की नजर बचा कर हमें सड़कों पर ही फेंकना है. ऐसा करने के बाद हमें बड़ी तसल्ली का एहसास होता है. सुकून सा मिलता है. जैसे, कोई बच्चा माली की नजर बचा कर अमरूद के बाग से अमरूद तोड़ लाए. उस चोरी में जो आनंद उसे आता है, कुछ वैसा ही आनंद हमें सब की नजर बचा कर सड़क पर कूड़ा फेंकने में आता है क्योंकि हमारे संस्कार ही वैसे हैं. क्या हम कभी सुधर सकते हैं? Culture and Pollution.





