Role of Women in Religion : अकसर धार्मिक कथावाचकों के सामने बड़ी संख्या में हाथ जोड़े महिलाएं ही दिखाई देती हैं. बावजूद इस के कि ये कथावाचक उन्हीं के बारे में अपने प्रवचनों में अनर्गल बातें करते रहते हैं. उन्हें कमतर तो दिखाया ही जाता है, साथ में पुरुषों के अधीन रहने जैसी बातें भी की जाती हैं. फिर भी महिलाएं इन के प्रवचनों को चाव से सुनती हैं, आखिर क्यों?
खुद को आध्यात्मिक गुरु बताने वाले कथावाचक अनिरुद्धाचार्य ने लिवइन को ले कर विवादित बयान दे डाला. उन्होंने कहा कि पहले 14 वर्ष की उम्र में शादी हो जाती थी तो लड़की परिवार में घुलमिल जाती थी जबकि आज लड़कियां लिवइन में रहती हैं और 4-5 जगह मुंह मारने के बाद ब्याह कर आई होती हैं. 25 वर्ष की अविवाहित लड़कियों का चरित्र ठीक नहीं होता. जब वे 25 वर्ष की जवान होती हैं तो जाहिर है कि वे फिसल जाती हैं. अनिरुद्धाचार्य लड़कियों की शादी की उम्र बतातेबताते सारी मर्यादा ही लांघ गए. उन का लड़कियों की शादी की उम्र को ले कर यह वीडियो सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हो रहा है. अनिरुद्धाचार्य के इस बयान से महिलाओं में आक्रोश है. लोगों का कहना है, उन के ऐसे बयान से महिलाओं की गरिमा आहत हुई है. देश के नागरिकों के साथसाथ कानूनी समुदायों ने भी इस टिप्पणी की आलोचना की है.
उन के इस बयान पर बौलीवुड ऐक्ट्रैस दिशा पाटनी की बहन और पूर्व आर्मी औफिसर खुशबू पाटनी ने कहा कि ‘ऐसे लोगों का तो मैं मुंह तोड़ दूंगी.’ खुशबू पाटनी ने यह भी कहा कि अगर ये शख्स मेरे सामने होता तो मैं इसे अच्छे से समझा देती कि मुंह मारना क्या होता है. इसे राष्ट्रविरोधी कहने में कोई हिचक नहीं है. जिस इंसान की सोच इतनी घटिया है उसे मंच मिलना ही नहीं चाहिए. खुशबू पाटनी ने सवाल उठाया कि ‘अगर कोई लिवइन में है तो क्या अकेली लड़की है? क्या लड़के शामिल नहीं होते? ऐसा बयान केवल महिलाओं को नीचा दिखाने के लिए दिया गया है. क्या कोई संत ऐसा बोल सकता है, भला?
महिलाओं के बढ़ते आक्रोश को देख अनिरुद्धाचार्य सफाई देते हुए बोले कि उन के कहने का मतलब वह नहीं था बल्कि उन के विचारों को तोड़मरोड़ कर पेश किया गया है.
महिलाओं पर ओछी टिप्पणियां
सरल शब्दों में कहें तो आध्यात्मिक का अर्थ होता है एक ऐसा व्यक्ति जिस में संत के लक्षण हों, वाणी और व्यवहार में सादगी हो, सरलता हो और विनम्रता हो और जो सब के लिए समान भाव रखता हो, लोगों को सही राह दिखाता हो लेकिन आज के कुछ बाबा और संतों में वह बात नहीं है. बड़ेबड़े आसन पर विराजमान और सुखसुविधाओं से लैस ये बाबा अकसर महिलाओं को ले कर कुछ ऐसी बातें बोल जाते हैं जो अमर्यादित होती हैं.
अनिरुद्धाचार्य के बाद, अब मथुरा के जानेमाने संत प्रेमानंद महाराज ने युवाओं के चरित्र पर उंगली उठाते हुए कहा कि आज के पतिपत्नी एकदूसरे के साथ ईमानदार नहीं हैं. 100 में से दोचार लड़कियां ही पवित्र होती हैं. बाकी सभी बौयफ्रैंड के चक्कर में लगी हुई हैं. उन का कहना है कि आजकल की लड़कियों का चरित्र पवित्र नहीं है. वे छोटीछोटी पोशाकें पहन रही हैं. कैसेकैसे आचरण कर रही हैं. एक के बाद दूसरे, फिर तीसरे से ब्रेकअप करती हैं.
प्रेमानंद कहते हैं, ‘जब जबान पर चार होटलों में खाने की आदत पड़ गई हो तो घर का खाना कहां पसंद आएगा. जब चार पुरुष से मिलने की आदत हो गई है, फिर एक पति को स्वीकार करने की उन में हिम्मत नहीं होगी न, क्योंकि आदतें खराब हो गई हैं. आज अच्छी बहू या दामाद मिलना बहुत मुश्किल है.’ प्रेमानंद लिवइन को गंदगी का खजाना मानते हैं. उन का कहना है कि आज के बच्चेबच्चियां पवित्र नहीं रहे, दोचार को छोड़ कर, सब अपवित्र हो गए हैं.
इसी तरह बागेश्वर बाबा ने भी महिलाओं पर कटाक्ष करते हुए कहा था कि स्त्री की शादी की दो पहचान हैं, पहली मांग में सिंदूर और दूसरी गले में मंगलसूत्र. जिस स्त्री के गले में मंगलसूत्र और मांग में सिंदूर नहीं है तो समझ लो वह प्लौट खाली है और जिस महिला के गले में मंगलसूत्र और मांग में सिंदूर है, समझ जाओ उस प्लौट की रजिस्ट्री हो चुकी है. उन्होंने ब्यूटीपार्लर को भी काफी कोसा कि उन्हें ज्यादा श्राप लगेगा जो जामुन पर इतना क्रीमपाउडर लगा देते हैं. उन का कहना है कि काली लड़कियां ब्यूटीपार्लर में जा कर गोरी बन जाती हैं. उन्हें महिलाओं का चटरपटर दिखना नहीं पसंद. उन का कहना है कि महिलाओं की पहचान उन के गुणों से होनी चाहिए, न कि रूप से.
वैसे, अनिरुद्धाचार्य महिलाओं को ले कर पहले भी विवादित बयान दे चुके हैं. उन के हिसाब से महिलाओं का ग्रेड होता है कि कौन सी महिला किस ग्रेड की है. जो महिलाएं अपने पति से झगड़ा करती हैं, वे थर्ड ग्रेड की हैं. उन्होंने यह भी कहा कि महिलाओं को शांति बनाए रखने के लिए चुप रहना चाहिए. यानी उन का कहना है कि देश की आधी आबादी सिर्फ सुने, कुछ कहे नहीं. अनिरुद्धाचार्य का कहना है कि महिलाओं को नौकरी क्यों करना. जब पति कमा रहा है तो महिलाओं को नौकरी करने की जरूरत क्या. जो महिलाएं नौकरी करती हैं वे अपने बच्चे को अच्छे संस्कार नहीं दे पाती हैं.
उन के हिसाब से जो महिलाएं पार्टी करती हैं या शराबसिगरेट पीती हैं, वे संस्कारी नहीं हैं. उन का कहना है कि महिलाओं को मर्यादित कपड़े पहनने चाहिए. उन्होंने तो यह तक भी कहा कि मां को अपने जवान बेटे के साथ और पिता को अपनी जवान बेटी के साथ अकेले में नहीं रहना चाहिए.
इतनी ओछी बातें उन के दिमाग में आती कहां से हैं, वह भी एक संत हो कर?
भारत के पितृसत्तात्मक समाज में पुरुषों ने महिलाओं को गुलाम बनाए रखने के लिए ही साल में कई सारे त्योहार बनाए, जिन में धर्म व पापपुण्य की दुहाई दे कर स्त्रियों को भूखे रहने के लिए बाध्य किया जाता है और जिन को पवित्र साबित करने के लिए उपवास का नाम दिया गया है. साल का ऐसा कोई महीना और सप्ताह नहीं जाता जब स्त्रियां उपवास न करती हों. मंगलवार, गुरुवार, अमावस्या, पूर्णिमा, एकादशी आदि अनगिनत अवसर आते हैं जिन्हें स्त्रियां अपने पति, बेटे के लंबी उम्र के लिए करती हैं लेकिन शायद ही कोई पुरुष अपनी पत्नी के लिए व्रतउपवास करता होगा.
धर्म का आधार?
यह कहना गलत नहीं होगा कि धर्म के माध्यम से ही औरतों को गुलाम बनाया गया. आज जब लड़कियां और महिलाएं आसमान छू रही हैं, पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं तो यह बात कुछ पुरुष समाज को रास नहीं आ रही है. वे औरतों को फिर से गुलामी की जंजीरों में जकड़ना चाहते हैं. उन्हें फिर से घर की चारदीवारी में कैद कर देना चाहते हैं. चाहते हैं, शादी कर के वे बच्चे पैदा करें और पति व सासससुर की सेवा करें क्योंकि यही एक महिला का धर्म है.
अपनी एक कथा में अनिरुद्धाचार्य ने कहा था कि औरत की मांग में सिंदूर भरते ही पति उस का मालिक बन जाता है और वह पति की संपत्ति बन जाती है. एक औरत कैसे जिए, क्या पहने, कहां जाए, कहां नहीं, नौकरी करे या नहीं, यह सब उसे उस का पति बताता है, क्योंकि उसे लगता है वह उस का मालिक है. सो, हर काम उसे पति से पूछ कर करना चाहिए.
एक पति ने अपनी पत्नी के साथ अंतरंग क्षणों का वीडियो सोशल मीडिया पर बिना पत्नी की सहमति के शेयर कर दिया और उसे अपने चचेरे भाई को भी भेज दिया. उसे लगा वह उस का मालिक है, जो चाहे कर सकता है लेकिन पत्नी ने इस पर एतराज जताया और उस ने पति के खिलाफ थाने में प्राथमिकी दर्ज करा दी. इस पर पति बहुत गुस्सा हुआ और उस ने प्राथमिकी को रद्द करने की मांग को ले कर हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की. याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति ने कहा कि पत्नी पति की जागीर नहीं है, बल्कि वह एक स्वतंत्र व्यक्ति है, जिस के अपने अधिकार, इच्छाएं और निजता हैं.
एक धोबी के कहने पर सीता को अपनी पवित्रता साबित करने के लिए अग्निपरीक्षा देनी पड़ी थी लेकिन इस के बावजूद राम ने अपनी पत्नी सीता को स्वीकार नहीं किया और उन्हें वनवास भेज दिया वह भी उस समय जब वे उन के बच्चे की मां बनने वाली थीं.
5 पति अपनी पत्नी द्रौपदी को जुए में हार गए. बात तो यही है कि पत्नी को एक संपत्ति के रूप में ही देखा जाता रहा है, जिसे जैसे चाहे यूज कर सकते हैं. कोई अपनी पत्नी को जुए में हार गए और किसी ने एक धोबी के कहने पर पत्नी को देशनिकाला दे दिया.
महिलाओं के चरित्र पर निशाना
फ्रांस की महारानी रिचारडे अपने पति लुईस द स्टाउट (839-888) द्वारा चारित्रिक संदेह किए जाने पर अपनी निर्दोषिता साबित करने के लिए मोम में डुबोया हुआ एक गाउन पहन कर दहकती आग के ऊपर चलने को बाध्य की गई थी. सीता की तरह यह महारानी भी इस परीक्षा में सफल हो गई लेकिन उस ने अपने पति का ही त्याग कर दिया और उसे छोड़ कर एक महिला आश्रम में रहने चली गई.
कई सदियों से बेचारी ुमहिलाओं को ‘अग्निपरीक्षा’ जैसी स्थितियों से गुजरना पड़ा है, जोकि उन के चरित्र और पवित्रता को साबित करने के लिए एक कठोर परीक्षण है. यह सिर्फ एक मुहावरा नहीं है, बल्कि एक ऐसी प्रथा है जो आज भी कुछ समुदायों में प्रचलित है, जहां महिलाओं को अपनी निर्दोषिता साबित करने के लिए शारीरिक यातना सहनी पड़ती है.
कुछ समुदायों में ‘अग्निपरीक्षा’ आज भी एक प्रथा के रूप में मौजूद है, जहां महिलाओं को अपने चरित्र पर संदेह होने पर अग्नि में प्रवेश करने या अंगारों पर चलने जैसी परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है. यह परीक्षा महिलाओं के चरित्र और पवित्रता को साबित करने का एक तरीका है और अकसर सामाजिक दबाव या संदेह के कारण होती है लेकिन पुरुषों को कभी कोई ऐसी प्रथा से नहीं गुजरना पड़ता है.
महिलाओं को अग्निपरीक्षाएं आज भी देनी पड़ रही हैं लेकिन परीक्षण के तौरतरीके में बदलाव हो गया है. यहां सब से बड़ा सवाल है कि आखिर महिलाओं के संदर्भ में पवित्रता का मतलब क्या है और महिलाओं की पवित्रता का मालिक और रक्षक पुरुष ही क्यों है? महिलाओं के संदर्भ में ‘पवित्रता’ का मतलब महिलाओं की यौनिकता से जोड़ कर देखते हैं. पितृसत्तात्मक सोच है कि किसी भी महिला की कामुकता पर सिर्फ और सिर्फ उस के पति का ही हक है. यह इसलिए भी किया जाता है ताकि महिला पितृसत्ता द्वारा बनाए गए दायरों से बाहर न जा पाए.
अनिरुद्धाचार्य का कहना है कि सीता अति सुंदर थीं, इसलिए रावण उन्हें हर ले गया. द्रौपदी का अति सुंदर होना ही उन का चीरहरण का कारण बना. यानी दोषी यहां राम, रावण या कौरव-पांडव नहीं हैं बल्कि सीता, द्रौपदी का अति सुंदर होना था? तो क्या किसी का सुंदर होना या न होना व्यक्ति के अपने हाथ में है? उन का कहना है, स्त्रियों की सुंदरता उन के पति के लिए होनी चाहिए, न कि गैरमर्दों के लिए, वरना उन में और वेश्याओं में फर्क ही क्या रह जाएगा?
रामदेव ने भी महिलाओं को ले कर अभद्र टिप्पणी की थी. उन्होंने कहा था कि महिलाएं साड़ी और सलवारसूट में ही अच्छी लगती हैं और अगर वे कुछ न पहनें तो और अच्छी लगती हैं. बाद में उन्होंने अपने बयान पर माफी भी मांगी लेकिन सवाल उठता है कि आखिर कब तक, कब तक महिलाओं को टारगेट किया जाता रहेगा? और क्यों नहीं ऐसी अभद्र भाषा का इस्तेमाल करने वालों पर कोई कार्यवाही की जाती है? क्या एक माफी मांग लेने से बात खत्म हो जाती है?
वैसे, इन सब के लिए कुछ औरतें भी कम जिम्मेदार नहीं हैं क्योंकि ज्यादातर औरतें ही ऐसे सैल्फमेड बाबाओं को बढ़ावा देती हैं. आप ने देखा होगा, बाबाओं के प्रवचन और सत्संग में ज्यादातर महिलाएं ही होती हैं.
अभी एक साल पहले ही हाथरस में भोले बाबा उर्फ सूरजपाल जाटव के सत्संग में शामिल हुए कई भक्त भगदड़ में मारे गए. उस भगदड़ में 121 लोगों की मौत हो गई थी. मरने वालों में 113 महिलाएं थीं. तो समझ सकते हैं कि ऐसे कर्मकांडों में ज्यादातर महिलाएं ही शामिल होती हैं. एक व्यक्ति का कहना है कि भोले बाबा उर्फ सूरजपाल के सत्संग में जो भगदड़ हुई उस में उस की मां घायल हो गई और ताई और मौसी की जान चली गई लेकिन इतने पर भी उस व्यक्ति की मां यह मानने को तैयार नहीं है कि इन सब में बाबा की गलती है. उस की मां का कहना है कि जब भी बाबा का सत्संग होगा, वह फिर जाएगी.
मीडिया रिपोर्ट बताती है कि सत्संग खत्म होने के बाद भोले बाबा उर्फ सूरज जाटव ने ऐलान किया था कि भक्त उन के जाने के बाद उन के पैरों की धूल उठा सकते हैं. भीड़ बेकाबू हो कर जब उन के पैरों की धूल लेने को आगे बढ़ी तो भगदड़ मच गई जिस से कई लोगों की जानें चली गईं.
यह उस भीड़ की ओर इशारा करती है जिस का जिक्र जरमन लेखक एलियस कनेटी ने अपनी किताब ‘क्राउड्स एंड पावर’ में किया था. वे लिखते हैं कि धर्म एक आज्ञाकारी भीड़ चाहती है. लोगों की ऐसी भीड़ जिसे भेड़ माना जाए और उन की विनम्रता के लिए उन की प्रशंसा की जाए.
जर्नल साइंस की एक रिसर्च बताती है कि पुरुषों के मुकाबले महिलाएं जादुई घटनाओं, चमत्कार, किसी अनहोनी जैसी चीजों पर अधिक भरोसा करती हैं. इस के पीछे उन की परवरिश होती है. रिसर्च के मुताबिक, पुरुष हमारे समाज में इस तरह से बड़े होते हैं जहां उन्हें तर्कसंगत होने और निर्णय लेने के लिए भावनाओं या भावनाओं के उपयोग से इनकार करने के काबिल बनाया जाता है. इसलिए वे किसी चीज पर तुरंत भरोसा करने की जगह विश्लेषण और सोचविचार करने को प्राथमिकता देते हैं, जबकि महिलाओं में ऐसी बात नहीं होती है.
जानकारी के अभाव में महिलाएं बाबाओं के चंगुल में फंसती चली जाती हैं और बाबा खुद को भगवान का दूत बता कर अपना उल्लू सीधा करते हैं. गुरमीत राम रहीम, नित्यानंद, आसाराम बापू आदि कुछ सैल्फमेड बाबा हैं जिन पर हत्या, फ्रौड और यौनशोषण के मामले दर्ज हैं लेकिन इतना होने पर भी बाबाओं की भक्तों में कमी नहीं दिखती और न ही इन बाबाओं पर उन के भक्त कोई आरोपप्रत्यारोप लगाते हैं.
नारीवादी लेखिका सिमोन द बोउवा लिखती हैं कि धर्म या धार्मिक कर्मकांड महिलाओं को नम्र बनने, असमानता और शोषण सहने के लिए प्रोसाहित करते हैं. उन्हें बताया जाता है कि अगर वे ऐसा करेंगी तो मरने के बाद उन्हें इस का फल मिलेगा. धार्मिक कर्मकांडों में शामिल होने और सत्संग जाने वाली महिलाओं को समाज ‘अच्छी महिलाओं’ की श्रेणी में रखता है.
डा. संजोत सेठ इस पूरे प्रकरण को सत्ता से जोड़ कर देखती हैं. वे कहती हैं, ‘‘हमारे समाज में महिलाओं के पास कोई सत्ता नहीं होती. उन्हें शुरू से यही सीख दी जाती है कि वे जितनी अधिक भक्ति में लीन होंगी, उन्हें उतना अधिक अच्छा माना जाएगा. उन्हें इस मापदंड पर तोला जाता है कि वे धर्म और भगवान के प्रति कितनी समर्पित हैं.’’
पूजा, सत्संग, प्रवचन कई महिलाओं के लिए अपने जीवन के खालीपन को भरने का एक जरिया भी हो सकता है क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज ने महिलाओं को खुल कर अपनी बात कहने की, पढ़नेलिखने और अपने हिसाब से जीने की आजादी ही कहां दी. ऐसे में ये धार्मिक आयोजन इस खालीपन को भरने का जरिया बनता चला गया.
और, अब तो सोशल मीडिया और टीवी भी एक बड़ा माध्यम बन गया है जिस के जरिए ये बाबा लोगों के घरों तक पहुंच रहे हैं. कुछ महिलाएं न सिर्फ इन आयोजनों में शामिल होती हैं बल्कि इन बाबाओं से जुड़ा कंटैंट भी इंटरनैट पर देखती हैं.
महिलाओं का सब से अधिक शोषण धर्मों द्वारा ही किया गया लेकिन फिर भी ये सब से अधिक कर्मकांडों में उलझी होती हैं. उन्हें यह भान ही नहीं है कि जिन धार्मिक परंपराओं को वे मान रही हैं वह सब उन्हें गुलाम बनाए रखने का षड्यंत्र है.