Religious loot : न जाने कब से मंदिरों, मजारों, गुरुद्वारों के बाहर खड़ी भिखारियों की भीड़ दानी लोगों के दान, पुण्य और परोपकार के सहारे ही अपना पेट भर रही है. इन धर्मस्थलों के आगे खड़ी लाचार लोगों की लंबी कतारों में बेबस लोगों की न जाने कितनी पीढि़यां खप चुकी हैं. क्या दान की इस भावना में कुछ इंसानियत होती है? क्या इस पुण्य से गरीबी दूर होती है? परोपकार की मानसिकता से फायदा किस का होता है?

दान, पुण्य और परोपकार की कुसंस्कृति न जाने कब से चलन में है. जब से सभ्यता बनी, लोगों ने एकदूसरे को सहयोग करने की आदत का फायदा उठाया और विपत्ति के समय किसी को कुछ दे देना सभ्यता सम झा गया. शुरुआत में जिस ने शिकार किया, फलफूल एकत्र किए या कुछ उपजाया उस ने उन दूसरों को कुछ देना शुरू किया जो शारीरिक कमजोरी की वजह से खुद का खाना जमा नहीं कर पाए. देने वाले को यह एहसास रहता था कि जिसे जो दिया गया वह उस के काम आ सकता है जब वह कमजोरी, बीमारी या प्राकृतिक आपदा के कारण खुद खाना जुटा न सकेगा. यह दान नहीं है, यह पारस्परिक सहयोग है जो सदियों से चलता आ रहा है और यह सभ्यता की मजबूत ईंटों में से एक आदत है.

इस पारस्परिक सहयोग का दुरुपयोग किया गया. हर धर्म के पुरोहितों ने अपने फायदे के लिए धर्म के नियम, कायदे व कानून बनाए और कहानियां गढ़ीं ताकि दान के नाम पर लोगों से धन ऐंठा जा सके. सो, धर्म की कहानियों में दानदक्षिणा का खूब महिमागान किया गया है. अब ईश्वर के नाम पर दान मांगा जाता है. लोगों को यह विश्वास दिलाया जाता है कि दान देने से ईश्वर खुश होता है. लोग ईश्वर के नाम पर ठगे चले जाते हैं. यही कारण है कि हर देश में धर्म की बड़ी दुकान में अथाह दौलत इकट्ठी हो गई है. बड़ेबड़े मंदिर, चर्च और मसजिदें इसी हथकंडे के तहत ही बने हैं. ईश्वर के नाम पर इकट्ठी की गई दौलत से पुरोहित ऐश करते हैं जबकि जनता हमेशा गरीब ही बनी रहती है.

विशेष जाति के लोगों के दान की महिमा का सब से ज्यादा गुणगान हिंदू धर्म ने किया है. आज भी धर्मगुरु ब्राह्मणों को दान देने के नाम पर लोगों को बरगलाते हैं और लोग इन धर्मगुरुओं के  झांसे में आ कर खूब दान करते हैं. लोगों के दान के पैसों से ही रातोंरात बड़ेबड़े आश्रम खड़े हो जाते हैं और दो कौड़ी के बाबा बड़ेबड़े गुरु बन जाते हैं. दान देने वाले आदमी का समय भले न बदले लेकिन दान लेने वाले की तो आने वाली सात पीढि़यों का भविष्य उज्ज्वल हो जाता है.

आसाराम बाबू, राम रहीम, संत रामपाल और सद्गुरु जैसे बाबाओं का इतिहास उठा कर देख लीजिए. ये वे लोग हैं जिन्होंने अपने जीवन में लगातार असफल होने के बाद धर्म का धंधा शुरू किया और आज इन के ब्रैंड का खरबों रुपयों का वार्षिक टर्नओवर है. इन जैसे बाबाओं के बड़े शहरों में जमीनें, बड़ेबड़े आश्रम और कई शहरों में कार्यालय बने हैं. यह सब कैसे हुआ? क्या इतनी दौलत इन्हें ईश्वर ने दी? दरअसल, यह सब भक्तों के पैसों के चलते है, दान के महिमागान का परिणाम है.

लोगों के दान के पैसों से ही बड़ेबड़े मंदिर, मसजिद व चर्च बनाए गए. इन धर्मस्थलों के अंदर और बाहर दोनों ओर भिखारी होते हैं जो ईश्वर और धर्मरक्षा के नाम पर लोगों से धन ऐंठते हैं. धर्मस्थल के अंदर बैठा भिखारी कहता है कि धर्म के नाम पर खर्च करो, ईश्वर तुम्हें इस के बदले में बहुतकुछ देगा. वहीं, धर्मस्थल के बाहर बैठा भिखारी कहता है कि भगवान के नाम पर दस रुपए दो, वे तुम्हें हजार गुना देगा. अंदर वाले भिखारी के पास खाना, कपड़ा छत, दवाएं सबकुछ है जबकि बाहर वाले के पास कुछ नहीं है. वह अंदर वाले का एजेंट बना बैठा है और मानवीय सहायता करने के गुण का दुरुपयोग करता है.

कोई यह सवाल नहीं करता कि ईश्वर को धन की जरूरत ही क्या है? ईश्वर के पास कौन सा बैंक है जो दस रुपए के इन्वैस्टमैंट के बदले में हजार रुपए देता है? धार्मिक स्थलों की भीड़ में शामिल लोगों के पास तर्कशक्ति नहीं होती. इतना विवेक भी नहीं होता जो वे खुद से यह सवाल पूछ सकें. आखिर पुरोहितों के लिए धन इतना जरूरी क्यों है? भगवान के एजेंटों का खर्च तो भगवान को ही उठाना चाहिए. मंदिर और मसजिद के निर्माण में जनता के खूनपसीने की कमाई क्यों खर्च की जाए? क्या ईश्वर या अल्लाह अपने लिए मंदिरमसजिद नहीं बनवा सकता?

फल, फूल, किसी जानवर के खाने लायक मांस, अनाज, घरेलू सामान, कपड़ा, मकान सब अपनेआप आदमी के हाथ नहीं लगते. हरेक के लिए कठिन मेहनत करनी होती है. कुछ चीजों के लिए तो वर्षों लग लाते हैं. कुछ चीजों को बनाने की कला सीखने में पीढि़यां लग जाती हैं. धर्मस्थल के अंदर दान पाने वाले लोग इन्हें मुफ्त में पा जाते हैं. बाहर बैठे भिखारी इस दान की महिमा गाते रहते हैं.

ये अंदर वालों के प्रचारक होते हैं. बाहर और अंदर मुफ्त सामान पाने वाले यह नहीं सम झते कि मंदिर, मसजिद, चर्च, मठ आसमान से अपनेआप नहीं उतरते, इस के लिए मानव श्रम व बुद्धि की जरूरत होती है. वे मुफ्त के इस माल को ईश्वर का दिया कह कर आम लोगों को बरगलाते हैं. वे बारबार कहते हैं कि ईश्वर इस के बदले उन का घर भरेगा जबकि तथाकथित ईश्वर तो किसी मंदिर, मसजिद, चर्च, मठ को बिना मानवीय श्रम के दान के बनवा ही नहीं सकता.

भिखारी और दानी

भिखारी और दानी दोनों एकदूसरे की जरूरत हैं. भिखारी दानियों को पैदा करता है और दानी लोग मिल कर भिखारियों की भीड़ बढ़ाते हैं. मतलब, दोनों प्रजातियों का अस्तित्व एकदूसरे पर निर्भर है.

विकसित देशों में दान, पुण्य और परोपकार की संस्कृति कम है, इसलिए वहां गरीबी, बेबसी, भूख, कुपोषण और अन्याय भी नहीं है. यही कारण है कि पश्चिम के लोग मानव विकास में हम से कहीं आगे हैं. जब तक इन देशों में ईश्वरीय दान की महिमा थी, ये देश भी गरीब देशों की तरह भूख, बीमारी, महामारी, ठंड, गरमी के कारण त्रस्त रहते थे. आज उन्होंने श्रम के मूल्य के महत्त्व को सम झ लिया है.

दान की शब्दावली

कुछ धार्मिक देश, जहां मुफ्त का मानव श्रम या किसी आवश्यक वस्तु का प्राकृतिक भंडार नहीं है, आज भूख और बीमारी के बुरी तरह शिकार हैं. उन का ईश्वर उन से लड़नेमरने या भूख व बीमारी के जरिए उन की जान लेता है पर उन के दान के बदले उन्हें देता कुछ नहीं है. ये देशदुनिया के नक्शे पर हैं इसलिए कि यहां के लोग भी अपने श्रम से, ईश्वर की कृपा के बिना, कुछ न कुछ करते हैं व जी भी रहे हैं और उन की संख्या कम भी नहीं होती. सभ्यता ने उन्हें इतनी तकनीक दे दी है कि एक व्यक्ति के श्रम से चारपांच लोग जी सकें चाहे जिंदगी जानवरों जैसी ही हो. शब्दों की भी अपनी फिलौसफी होती है. हर शब्द का अपना मनोविज्ञान होता है. दान, पुण्य और परोपकार जैसे शब्दों के पीछे भी फिलौसफी है और मनोविज्ञान है जिसे सम झने की जरूरत है.

हमें यह सम झना होगा कि सृष्टि के हर तत्त्व में कुछ गुण होते हैं जिन से उस की पहचान होती है. जैसे शेर का गुण है कि वह हिरण को मार कर खाता है तो उस का यह गुण उस की पहचान भी है और उस के अस्तित्व के लिए जरूरी भी. इसी तरह मानव के भी कुछ गुण हैं जो उसे दूसरे जीवों से अलग बनाते हैं. मानव होने का सब से बड़ा गुण है मानव का सामाजिक होना. करोड़ों वर्षों के विकासक्रम के दौरान इंसान एक सामाजिक प्राणी बना. मनुष्य ने जाना कि सामाजिकता से ही वह सुरक्षित रह सकता है और उन्नति कर सकता है. इस तरह आगे चल कर मानव प्रजाति के अस्तित्व में बने रहने के लिए उस का सामाजिक प्राणी बने रहने का गुण ही उस की सब से बड़ी जरूरत बन गई.

सामाजिक प्राणी होने से सामूहिक चेतना का विकास हुआ. खानाबदोश जीवन में संघर्ष के दौरान ज्यादा श्रम के बदले उसे थोड़ाकुछ मिलता था तो सामाजिक हो जाने के बाद कम श्रम के बदले ज्यादा कुछ मिल जाता था. इस से इंसान का बहुत सारा समय बच जाता था. इस नए सामाजिक तानेबाने का मानव पहले से ज्यादा सुरक्षित था, जिस से उस के लिए बौद्धिक उन्नति के मार्ग खुल गए. कुछ लोग जो सामाजिकता की इस संस्कृति में फिट नहीं बैठते थे. वे अराजकता पैदा करते थे. सो, डर, भय, दंड और लालच द्वारा समाज के इन अराजक तत्त्वों को काबू में किया जाता था. कुछ लोग प्राकृतिक आपदाओं की वजह से मुख्यधारा से पिछड़ जाते थे तो सहयोग की संस्कृति द्वारा उन पिछड़े हुए लोगों को मुख्यधारा से जोड़ा जाता.

इस तरह शुरुआती सामाजिक नियमों का निर्माण हुआ और भय, लालच, दंड और सहयोग की परंपरा का विकास हुआ. और यहीं से सहयोग मानव का गुण बन गया जो मनुष्य के सामाजिक प्राणी बने रहने के लिए बेहद जरूरी था. सामाजिक प्राणी बनाए रखने में राजाओं के कानून का हाथ ज्यादा रहा, धर्म के नियमों-उपदेशों का कम. धर्म तो दंड मृत्यु होने के बाद देते हैं. तमाम धर्म स्वर्ग व नर्क की बात करते हैं, हिंदू और बौद्ध धर्म पुनर्जन्म की जो इस जन्म के कर्म पर आधारित होता है.

आगे चल कर आबादी बढ़ी तो समाज की जरूरतें भी बढ़ीं और सामाजिकता को व्यवस्थित रखने की चुनौतियां भी. इस से कई बड़ीछोटी सभ्यताओं का उदय हुआ. प्रत्येक सभ्यता के नए नियमकानून बने जो आगे चल कर परंपराओं में बदल गए. जैसेजैसे मानवता समृद्धि की ओर बढ़ी, सामाजिकता को बनाए रखने के लिए नए नियमों की जरूरत भी बढ़ती चली गई. मनुष्य के यहां तक पहुंचने में समाज की सब से अहम भूमिका थी.

इसलिए मनुष्य ने समाज की इस अहमियत को हर युग में पहचाना और परिष्कृत किया. सामाजिक भावनाओं ने सामाजिक वर्चस्व की मानसिकता को जन्म दिया जिस से एक इंसानी समाज दूसरे इंसानी समाज से होड़ करने लगा. सामाजिक वर्चस्व की इसी मानसिकता के कारण सभ्यताएं साम्राज्यों में बदलीं और साम्राज्यवाद का उदय हुआ जिस की वजह से लाखों युद्ध हुए. इस भयंकर अराजकता में अपनेअपने वर्चस्व के लिए सभी साम्राज्यों को फिर से नए नियमों की जरूरत पड़ी.

इसी दौरान धर्मों के उपदेशों से करुणा, मैत्री, सद्भाव, अहिंसा और क्षमा जैसे शब्द भी इंसानी सभ्यताओं का हिस्सा बने. ये पहले उस काल्पनिक ईश्वरीय शक्ति के लिए उपयोग किए जाते थे जिसे बिचौलियों ने चुना था. आगे चल कर ये तमाम शब्द इंसान के सामाजिक प्राणी होने के गुण बन गए. जिन में इन मानवीय गुणों का अभाव होता वह समाज के लिए खतरा बन जाता. इसलिए लगभग सभी सभ्यताओं ने मानवीय गुणों को स्वीकार कर लिया और आगे चल कर इन्हीं मानवीय गुणों की विवेचना अनेक दार्शनिकों ने की और इसी मानवीय दर्शन पर बड़ेबड़े दर्शनशास्त्र लिखे गए.

इन तमाम मानवीय शब्दों के पीछे की फिलौसफी और इन के पीछे का मनोविज्ञान यही था कि सामाजिक व्यवस्था में अराजकता खत्म हो और मानवता निर्बाध रूप से आगे बढ़ती चली जाए. ये तमाम शब्द एक इंसान द्वारा दूसरे इंसान के शोषण के खिलाफ ही बने थे ताकि सामाजिकता कायम रहे, समाज का हर इंसान समाज में खुद को सुरक्षित महसूस करे और प्रत्येक मनुष्य सामाजिक उत्थान में उपयोगी साबित हो सके. खेद इस बात का रहा है कि ये शब्द कोरे हवाहवाई रह गए क्योंकि उन्हें कहने वाले धर्मों और उन के कहने पर चलने वाले राजाओं ने अपने से अलग लोगों को हिंसा, अत्याचार का निशाना बनाया. उन्होंने अपने ही कमजोर लोगों और सभी स्त्रियों को निशाना बनाया.

लंबे वक्त तक फिर से इंसानी समाज करुणा, मैत्री, सद्भाव, अहिंसा, क्षमा और सहयोग जैसे मानवीय गुणों के सहारे आगे बढ़ता चला गया. इन्हीं मानवीय गुणों की बदौलत ही इंसानी सभ्यताओं ने विज्ञान, प्रौद्योगिकी, लोकतंत्र और न्यायव्यवस्था की नई इबारतें लिखीं जिन पर चल कर आज हम यहां तक पहुंचे हैं लेकिन इतिहास के हर पड़ाव पर राजाओं और धर्मगुरुओं ने इन व्यवस्थाओं में विकार पैदा किया. लूट,  झूठ, शोषण और पाखंडवाद की मानसिकता ने सामाजिक तानेबाने को विकृत रूप दे दिया. जिस में औरतें सब से बड़ी शिकार थीं.

इस संस्कृति ने संपन्नता और विपन्नता की खाई को पैदा कर दिया. जब समाज में उत्पादन बहुत होने लगा तो समाज का एक हिस्सा सभी संसाधनों का मालिक बन बैठा, जिस से एक बहुत बड़ा वर्ग इन संसाधनों की पहुंच से दूर छिटक कर हाशिए पर जा पहुंचा. मिस्र के फैरो के शुरू में जो हिंदू पौराणिक कहानियों तक में अमीरों की ही बात की गई जिन्होंने करुणा, मैत्री, सद्भाव का नहीं बल्कि दान और टैक्स का भरपूर प्रचार किया. सो, मंदिर बने, महल बने.

जनता के बड़े वर्ग को काबू में रखने के लिए समृद्ध वर्ग तीन भागों में विभाजित हुआ. राजनीतिक वर्ग, धार्मिक वर्ग और पूंजीपति वर्ग. तीनों के आपसी गठजोड़ ने इस सामाजिक असंतुलन को बरकरार रखने के लिए कई नए नियम रच डाले ताकि वंचित वर्ग में कभी विद्रोह की भावना पैदा न हो सके. दान और टैक्स की महिमामंडन इस का बड़ा हिस्सा था. इन दोनों के कारण एक बड़ा वर्ग भिखारी बन गया. पाकिस्तान की 25 करोड़ जनता में से 4 करोड़, वहां के समाचारपत्र डान के अनुसार, भीख मांगने का धंधा करती है. हमारे यहां तो गिनती भी नहीं होने देते कि उन में दान पाने वाले न आ जाएं.

परोपकारियों का जमावड़ा

समाज ऐसे दानवीर, दयावान, पुण्यात्मा और परोपकारी महात्माओं की भीड़ से भर गया जिन में दया तो थी लेकिन वे परिस्थितियों को नहीं बदल सकते थे. वे दान तो दे सकते थे लेकिन उत्थान नहीं कर सकते थे. वे पुण्य तो कर सकते थे लेकिन परिवर्तन करने की क्षमता उन में न थी. वे परोपकार तो कर सकते थे लेकिन किसी अभागे का समय नहीं बदल सकते थे क्योंकि महानुभावों की यह विशाल भीड़ ईश्वर के नियमों से बंधी थी.

ये महानुभाव मानते थे कि हालात में बदलाव करना उन के बस की बात नहीं है. वे तो बस, महान बनने के लिए पैदा हुए हैं और सदा महान बने रहने के लिए उन्हें दानी, दयालु, पुण्यात्मा और परोपकारी बने रहना जरूरी है. दान, दया, पुण्य और परोपकार के लिए ऐसे लोगों की भी जरूरत है जिन पर दया, दान, पुण्य और परोपकार कर महान बना जा सके.

इसी मानसिकता ने गरीबी कभी खत्म नहीं होने दी क्योंकि गरीब और गरीबी के प्रति जो मानवीय संवेदनाएं होनी चाहिए वे दान, दया, पुण्य और परोपकार की मानसिकता के कारण कभी पनपी ही नहीं. करुणा, सहयोग, न्याय और संवेदनशीलता के मानवीय गुण को हम ने दया, दान, पुण्य और परोपकार में बदल दिया जिस से एक मानव की दूसरे मानव के प्रति कर्तव्य की भावना समाप्त हो गई और एक मानव दूसरे के लिए महान बनता चला गया.

दान, पुण्य और परोपकार की भावना से पैदा होती है गरीबी

हम ने करुणा, मैत्री, सद्भाव और सहयोग के मानवीय गुण को त्याग कर दान, दया, पुण्य और परोपकार का मार्ग अपना लिया जिस से परिस्थितियों में बदलाव की जरूरत ही खत्म हो गई क्योंकि दान, दया, पुण्य और परोपकार की इस मानसिक प्रवृत्ति से शोषक और शोषित दोनों वर्ग संतुष्ट हो गए. एक का मुफ्त में पेट भरने लगा और दूसरा पराए पर किए गए इस उपकार से महान बनने लगा.

इसी मानसिकता ने भीख, भंडारा, जकात, इमदाद और खैरात जैसी कुत्सित सोच को जन्म दिया जिस के द्वारा समृद्ध तबका परस्पर सहयोग की भावना से आजाद हो कर महान हस्ती की श्रेणी में पहुंच गया. महान बनने की इसी होड़ की वजह से गरीबी और गरीबों की जरूरत बनी रही और गरीबी बहुसंख्यक आबादी की सोच और संस्कृति का अभिन्न हिस्सा बन कर सदा के लिए स्थायी हो गई.

दान और भीख पाने वाला निकम्मा होता गया. दान और भीख देने वाले को व्यापार और उद्योग के सहारे जनता को लूटने का लाइसैंस मिल गया. लोग भूखे न मरें, इस के लिए मंदिरों के साथ गरीबों को दान करने की आदत डाल दी गई जो धर्म और राजा के टैक्स के अलावा अपनी इच्छा के अनुसार दिया गया पैसा होता है.

हालात कैसे बदलेंगे

देश बनता है गांवों से, कसबों से. लेकिन गांवोंकसबों की स्थिति जा कर देख आइए, चारों ओर बदहाली, परेशानी और लाचारी का अंबार मिलेगा. गांवों के सक्षम लोग कसबों में बस गए. कसबों के सक्षम लोग शहरों की ओर भाग गए और शहरों के सक्षम के लोग विदेशों में जा कर बस रहे हैं. कोई अपने मूल स्थान के हालात को बदलने के लिए कुछ नहीं करता. लेकिन मंदिरों में भंडारा बांट कर लोग परोपकार खूब करते हैं.

विदेशों में बसने वाले लोग जब वहां की मानवतावादी सभ्यता में रचबस जाते हैं तो सदा के लिए वहीं के हो कर रह जाते हैं क्योंकि उन देशों में सामाजिक सुरक्षा, न्याय और परस्पर सहयोग की उत्कृष्ठ व्यवस्था कायम है जिस में उन्हें अपनी पीढि़यों का भविष्य सुरक्षित नजर आता है. उन देशों में रहने वाले भारतीय लोग कभी यह नहीं सोचते कि हमारा देश ऐसा क्यों नहीं बन सकता.

दान की मनोवृत्ति परस्पर सहयोग की भावना को खत्म कर देती है. पुण्य की मानसिकता से परिवर्तन की आवश्यकता खंडित होती है और परोपकार की सोच से एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के प्रति कर्तव्य की सार्थक चेष्टा नष्ट हो जाती है. मानवता के विकास में करुणा, सहयोग परिवर्तन और कर्तव्य की अहमियत है. इस के उलट, दान, पुण्य और परोपकार की मानसिकता मानवता के मार्ग में बाधक ही साबित होती है.

अगर हम मानवता के वास्तविक मूल्यों को पुनर्स्थापित करना चाहते हैं तो हमें मानवता के बुनियादी उसूलों को ही अपना धर्म बनाना होगा जिस में एक इंसान का दूसरे इंसान के प्रति कर्तव्य सर्वोपरि होगा. तभी हम समता, न्याय, प्रेम, सहयोग और मानवीय संवेदनाओं पर आधारित उत्कृष्ट सामाजिक व्यवस्था कायम कर पाएंगे और फिर उस नई मानवीय व्यवस्था में दान, पुण्य और परोपकार जैसी मनोवृत्ति के लिए कोई जगह न होगी.

साजिश के तहत पैदा की गई गरीबी

राजनीतिक गिरोह ने वंचित तबके को शारीरिक व सामाजिक सुरक्षा और कुछ सुविधाओं के नाम पर हमेशा भ्रम में रखा तो धार्मिक गिरोहों ने उसे सम झाया कि तुम्हारे दुखों की असली वजह तुम्हारा भाग्य है या ईश्वर की नाराजगी है. तुम्हारे वर्तमान के दुख पिछले जन्म का परिणाम हैं. सुख भोगने वाले लोगों ने दुख भोगने वाले लोगों को सम झाया कि आज अब उन के जीवन में दुख ही दुख है तो मरने के बाद स्वर्ग में या अगले जन्म में सुख ही सुख होगा. अल्लाह को गरीब पसंद हैं, जितना दुख  झेलोगे, खुदा आखिरत में इंसाफ करेगा और तुम्हें जन्नत में उस से बेहतर सुखसुविधाएं प्रदान करेगा जिस की चाह तुम दुनिया में रखते हो.

इस तरह के विचारों के ओवरडोज में गरीब की पीड़ा खत्म हो गई और वह गरीबी को एंजौय करने लगा. बहुसंख्यक शोषित वर्ग मुफलिसी में मुसकराना सीख गया और फिर शासक और शोषक वर्गों द्वारा बनाई गई विघटनकारी नीतियों का शिकार हो कर शिक्षा, न्याय, समता और उन्नति के मार्ग से सदा के लिए दूर हो गया. सभ्यता की नींव का हिस्सा दया, दान, सहयोग और परोपकार की मानसिकता को लूट का हथियार बना डाला गया, जिस के सहारे वंचित समाज में शोषक वर्ग के प्रति प्रतिकार की भावना को खत्म कर दिया गया और वंचित समाज में इस लूट का विरोध करने की जगह लुटेरे के प्रति कृतज्ञता का भाव भर दिया गया.

समाजसेवी संगठनों की बढ़ती तादाद

आज इसी मानसिकता की वजह से देश में 31 लाख रजिस्टर्ड एनजीओ खड़े हो चुके हैं जो दया, दान, पुण्य और परोपकार की मानसिकता को साथ ले कर ‘महान’ कार्य करने में जुटे हुए हैं. देश में स्कूलों की संख्या 15 लाख है और इन गैरसरकारी संस्थाओं की संख्या 31 लाख. दुनिया के कई देशों की आबादी से ज्यादा तो हमारे देश में समाज सुधारने वाले संगठन काम कर रहे हैं. फिर भी स्थिति जस की तस है क्योंकि गरीब और गरीबी दूर करने वाली इन सरकारी और गैरसरकारी संस्थाओं के पास योजनाएं तो बहुत हैं लेकिन उन योजनाओं में संवेदनाएं सिरे से गायब हैं.

जो देश मानवता के सब से उत्कृष्ट पायदान पर खड़े हैं वहां के कल्चर में दया, दान, पुण्य और परोपकार की मानसिकता नहीं है, इसलिए न तो वहां थोक के भाव में महात्मा पैदा होते हैं और न ही वहां समाज सुधार करने वाले लाखों संगठनों की जरूरत पड़ती है. फिर भी वहां गरीबी, कुपोषण, लाचारी और अन्याय का नामोनिशान नहीं है क्योंकि उन की सभ्यता वास्तविक मानवीय गुणों को सम झती है जो करुणा, मैत्री, सद्भाव, न्याय, समानता और सहयोग पर आधारित है. इन्हीं सारे शब्दों को मिला कर एक शब्द बनता है मानवता. और जहां दया, दान, पुण्य और परोपकार होता है वहां मानवता के ये सभी गुण निष्क्रिय हो जाते हैं.

एक परोपकारी अगर जीवनभर भंडारा चलाए तो उस से किसे फर्क पड़ता है? भंडारा खा कर उसे सुबह शौच में बदलने वाली जनता वैसी की वैसी बनी रहती है और भंडारा चलाने वाला वह आदमी महान हो जाता है. सड़कों पर भीख मांगते लाखों बच्चों को मिठाई खिलाने के बजाय आप इन में से मात्र एक बच्चे को भी शिक्षित कर कामयाब बना दें तो आगे चल कर वही बच्चा कइयों को गुरबत के भयंकर दलदल से बाहर निकाल सकता है. इसे ही वास्तविक परिवर्तन कह सकते हैं और यही संवेदनशीलता गरीबी की इस भयंकर समस्या को सदा के लिए मिटा भी सकती है. वरना मिठाई खिलाखिला कर दया, दान, पुण्य और परोपकार करते रहिए, कुछ नहीं होगा. हां, आप महान जरूर बन जाएंगे.

ठीक ऐसे ही जकात, खैरात, इमदाद बांटने वाली मानसिकता से भी हालात नहीं बदलते. जो जितना जकात देता है वह उतना ही बड़ा दानी तो हो जाता है लेकिन गरीब मुसलमानों के हालात नहीं बदलते. ग्रीनलैंड की पूरी आबादी के डेढ़ गुना यानी करीब 73 हजार बच्चे राजधानी दिल्ली की सड़कों पर भटक रहे हैं और इसी राजधानी में करोड़पतियों की संख्या इन बच्चों से ज्यादा है. अगर एक करोड़पति परिवार एक बच्चे की ही जिम्मेदारी उठा ले तो इन 73 हजार बच्चों का भविष्य सुधर सकता है. लेकिन ऐसा वे क्यों करेंगे? उन के पास जो है वह उन के ‘परमात्मा’ ने दिया है तब वे अपने उस खुदा की भक्ति क्यों न करें जिस ने उन्हें धनवान बनाया है, और उन के अनुसार, सड़कों पर भटकते ये बच्चे अपने पिछले जन्मों का कर्मफल ही तो भोग रहे हैं.

फिर ये लोग अपने ईश्वर की बनाई इस व्यवस्था से खिलवाड़ भला कैसे कर सकते हैं? देश को गुरबत की सड़ांध में धकेलने के लिए यही मानसिकता जिम्मेदार है और इस मानसिकता के लोग ही दया, दान, पुण्य और परोपकार पर आधारित इस व्यवस्था को बनाए रखना चाहते हैं. इसी वजह से इस सनातन विकृति में कभी परिवर्तन नहीं हो पाता. Religious loot

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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