Justice System: न्याय तभी सार्थक होता है जब गुनहगार को सजा और बेगुनाह को रिहाई समय पर मिले. भारत जैसे विशाल देश में न्याय में देरी होना कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन कई मामलों में न्याय में इतनी देरी हो चुकी होती है कि उसे न्याय कहना ही बेमतलब हो जाता है. समाज में व्यवस्था बनाए रखने के लिए कानून का मजबूत होना जरुरी है लेकिन कानून का इस्तेमाल लोगों को न्याय दिलाने के लिए होना चाहिए न कि परेशान करने के लिए. न्याय के कई मामलों में दशकों तक जेलों में सड़ने के बाद कुछ लोग बाइज्जत बरी होते हैं क्या यह न्याय के नाम पर भद्दा मजाक नहीं है?
83 साल के जागेश्वर अवधिया ने न्याय कि जो कीमत चुकाई है वह हमारी न्याय व्यवस्था की वास्तविकता को उजागर करने के लिए काफ़ी है. मध्य प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम (MPSRTC) के पूर्व बिलिंग सहायक जागेश्वर प्रसाद अवधिया 1986 में 100 रुपए की रिश्वत के मामले में लोकायुक्त के जाल में फंसे. भ्रष्टाचार के आरोप में मुकदमा दर्ज हुआ और यह मुकदमा 18 साल तक निचली अदालत में ही अटका रहा.
अवाधिया को 2004 में निचली अदालत ने दोषी ठहराया था. निचली अदालत के फैसले के खिलाफ जागेश्वर छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट पहुंचे. हाई कोर्ट में 21 साल मुकदमा चला और फिर हाई कोर्ट ने सबूतों के अभाव में और तमाम खामियों के आधार पर जागेश्वर को दोषमुक्त कर दिया. अदालत ने कहा कि केवल नोटों की बरामदगी से ही वे दोषी साबित नहीं होते. उम्र के अंतिम पड़ाव पर पहुंच चुके अवाधिया के लिए यह फैसला खोखली जीत से ज्यादा और कुछ नहीं है.
ललितपुर के थाना महरौनी के गांव सिलावन निवासी विष्णु तिवारी की उम्र इस वक्त 46 साल है और वो 19 वर्षों से जेल में बंद थे. विष्णु को दुष्कर्म के झूठे आरोप में आजीवन कारावास की सजा हुई थी. विष्णु के परिवार की आर्थिक स्थिति खराब थी इसलिए वो लोग हाईकोर्ट में अपील न कर सके. विधिक सेवा प्राधिकरण ने विष्णु के मामले की पैरवी हाईकोर्ट में की और 19 साल बाद हाईकोर्ट ने विष्णु को निर्दोष करार देते हुए रिहा करने के आदेश दिए. इस तरह जिंदगी के 19 साल जेल में गुजारने के बाद विष्णु ने बाहर की दुनिया देखी लेकिन इस बीच विष्णु ने बहुत कुछ खो दिया था. जेल में रहने के दौरान विष्णु के दो भाई, मां और पिता गुजर चुके थे और विष्णु इन में से किसी के अंतिम संस्कार में नहीं पहुंच पाए थे.
1982 में मच्छी सिंह और उन के परिवार के सदस्यों पर हत्या का मुकदमा दर्ज हुआ था. करीब 30 साल बाद, 2012 में, सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें दोषमुक्त कर दिया.
मच्छी सिंह का मुकदमा भी दो दशक तक निचली अदालतों में अटका रहा फिर हाई कोर्ट में अपील हुई यहां भी वर्षों की सुनवाई चली आखिरकार मामला सुप्रीम कोर्ट गया जहां सुबूतों के अभाव में मच्छी सिंह और उन का परिवार दोशमुक्त साबित हुआ.
भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) और आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के तहत कोई व्यक्ति दोषमुक्त तब होता हाई जब अभियोजन पक्ष अपराध को “युक्तियुक्त संदेह से परे” साबित नहीं कर पाता.
रुदुल शाह बनाम बिहार राज्य (1983) का एक ऐतिहासिक मुकदमा
भारत में गलत सजा के लिए मुआवजे का प्रावधान बेहद सिमित है इस के लिए भी कोर्ट के चक्कर लगाने पड़ते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने कुछ मामलों में मुआवजे का आदेश दिया है. इन में सब से महत्वपूर्ण मामला रुदुल शाह बनाम बिहार राज्य (1983) का मामला है.
यह मामला भारतीय संविधान के इतिहास में एक ऐतिहासिक निर्णय है, जो अवैध हिरासत और मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए राज्य को उत्तरदायी ठहराने तथा मुआवजे के अधिकार को मान्यता देने के लिए जाना जाता है. यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुच्छेद 32 के तहत दायर जनहित याचिका (पीआईएल) पर आधारित था, जिस में मौलिक अधिकारों के सीधे उल्लंघन पर अदालत में सीधी अपील का प्रावधान है.
1953 में रुदुल शाह पर उन की पत्नी की हत्या का आरोप लगा और उन्हें गिरफ्तार किया गया. निचली अदालत में 15 सालों तक मुकदमा चलता रहा इस बीच रुदल शाह कारावास में रहे. आखिरकार मुजफ्फरपुर के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने 3 जून 1968 को उन्हें निर्दोष घोषित कर रिहा करने का आदेश दिया. निचली अदालत से रिहाई का आदेश मिलने के बावजूद बिहार राज्य की जेल प्रशासन ने रुदुल शाह को अगले 14 वर्षों तक (1968 से 1982 तक) कैद में रखा. 1982 में उन्हें रिहा किया गया. इस बीच बिना किसी जुर्म के रुदल शाह 29 वर्षो तक कैद में रहे.
रुदुल शाह ने सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 32 के तहत याचिका दायर की जिस में उन्होंने अपने पुनर्वास और अवैध हिरासत के लिए मुआवजे की मांग की.
1 अगस्त 1983 कोर्ट ने स्पष्ट किया कि रुदुल शाह की 14 वर्षों की अतिरिक्त हिरासत संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का घोर उल्लंघन है.
यह पहला मामला था जिस में सुप्रीम कोर्ट ने अवैध हिरासत के लिए राज्य को मुआवजा देने का आदेश दिया था. कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 32 के तहत न केवल अधिकारों की रक्षा की जा सकती है, बल्कि नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन होने पर उन्हें आर्थिक मुआवजा दिया जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर रुदुल शाह को 30,000 रुपए का मुआवजा राज्य सरकार को देने का आदेश दिया.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से मानवाधिकार उल्लंघनों के मामलों में मुआवजे की राह खुली और इस निर्णय ने भारत में “संवैधानिक टोर्ट” (constitutional tort) की अवधारणा को जन्म दिया, जहां मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए राज्य मुआवजा देने पर बाध्य हुआ. यह बाद के मामलों जैसे डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997) और नीलाबती बेहरा बनाम उड़ीसा राज्य (1993) का आधार बना.
भारत के न्यायालयों में लंबित मामले
भारत की न्यायपालिका दुनिया की सब से सुस्त और धीमी न्याय व्यवस्थाओं में से एक है जहां लाखों करोड़ों मामले लंबित पड़े हैं.
2023 के आंकड़ों के अनुसार, भारत के सभी अदालतों (सुप्रीम कोर्ट, उच्च न्यायालय और जिला अदालतें) में 5.02 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं. यह संख्या लगातार बढ़ रही है, और जिला अदालतों में ही लगभग 4.4 करोड़ मामले अटके हुए हैं. सुप्रीम कोर्ट में लगभग 80,000 मामले लंबित हैं, जिन में से कई मामले तो दशकों पुराने हैं. हाई कोर्ट में 43 लाख से अधिक मामले अटके हैं इन में भी हजारों मामले दो और तीन दशक पुराने हैं.
न्याय व्यवस्था की इस सुस्त और धीमी गति का एक बड़ा कारण है कर्मचारियों की कमी. जिला स्तर के न्यायिक पदों पर ही 28% पद खाली पड़े हैं, हालांकि न्याय की गति तेज करने के लिए सरकार और न्यायपालिका द्वारा ‘फास्ट-ट्रैक कोर्ट’ और डिजिटल केस मैनेजमेंट सिस्टम बनाए जा रहे हैं लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि जजों की संख्या दोगुनी करने और मुकदमे की प्रक्रियाओं को सरल बनाने से ही स्थायी समाधान संभव है.
लंबे समय तक जेल में रहने के बाद दोषमुक्त हो कर रिहा हुए व्यक्ति को समाज में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. वर्षों जेल में काटने के बाद वह जब समाज में वापस लौटता है तब तक उस की दुनिया बदल चुकी होती है. अपने सगे रिश्ते भी बोझ समझने लगते हैं. दोस्त, रिश्तेदार और सगे संबंधी ऐसे लोगों से दूरी बना लेते हैं. रोजगार पाना मुश्किल हो जाता है. ऐसे में आदमी कहीं का नहीं रहता. यदि मुआवजा मिल भी जाए तो उस मुआवजे की रकम से जिंदगी के कीमती समय की भरपाई नहीं हो पाती और न ही आगे की जिंदगी आसान हो पाती है.
सवाल यह है कि आज के समय डीएनए साक्ष्य और फोरेंसिक जांच जैसे वैज्ञानिक तरीकों के उन्नत होने बावजूद दोष साबित होने में या दोशमुक्त होने में इतना वक्त क्यों लगता है? Justice System