Bihar SIR : भारत के संविधान ने आजादी मिलने से पहले ही सभी वयस्कों को वोट देने का अधिकार दे दिया था लेकिन आज वोटर लिस्ट में ‘सुधार’ के नाम पर संविधान की भावना को कुचला जा रहा है.

देश के एक महत्त्वपूर्ण राज्य बिहार में होने जा रहे विधानसभा चुनाव से ऐन पहले वोटर लिस्ट का विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर का काम एक तरह से डैमोक्रेसी की नसबंदी जैसा है. जिस तरह से 1975 से 1977 के बीच इमरजैंसी के दौरान जनता की राय के बिना नसबंदी की गई, उस को कहीं आपत्ति दर्ज कराने का मौका नहीं दिया गया उसी तरह से 2014 में केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद उस की अघोषित इमरजैंसी में जनता को अपनी बात कहने का मौका नहीं दिया जा रहा.

नसबंदी की तरह नोटबंदी कर लोगों की मेहनत की कमाई को लूट लिया गया. नोटबंदी के पक्ष में तर्क दिया गया कि इस से आतंकवाद खत्म होगा. जबकि, नोटबंदी के बाद देश में बड़ी आतंकवादी घटनाए हुईं. यानी, नोटबंदी का मकसद कुछ और था, कहा कुछ और गया.

कोरोना संक्रमण के दौरान देश में जबरन तालाबंदी थोपी गई. तालाबंदी के बाद भी कोरोना से मरने वालों की संख्या को रोका न जा सका. तालाबंदी भी तुगलकी फरमान जैसी घोषणा थी. अब इसी तरह का फरमान बिहार चुनाव से पहले वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण का थोपा गया है. इस का भी मकसद कुछ और है, बताया कुछ और जा रहा है. सवाल है कि वर्ष 1952 में संविधान ने वोट देने का जो अधिकार दिया, चार पीढ़ियों के बाद अब उस को इस तरह से कैसे खत्म किया जा सकता है?

राजनीतिक रूप से बेहद संवेदनशील बिहार की कुल आबादी लगभग 13 करोड़ है. इस राज्य में तकरीबन 8 करोड़ वोटर हैं जिन के नाम मतदाता सूची में होने चाहिए. इन में से करीब 3 करोड़ लोगों के नाम 2003 की मतदाता सूची में थे. बाकी 5 करोड़ को अपनी नागरिकता के प्रमाण जुटाने पड़ेंगे. उन में से आधे यानी ढाई करोड़ लोगों के पास वे प्रमाणपत्र न होंगे जिन्हें चुनाव आयोग मांग रहा है. ऐसे में साफ है कि इतनी बड़ी संख्या में लोगों को वोट डालने से रोकने की तैयारी है. चुनाव आयोग ने 73 लाख लोगों की सूची राजनीतिक दलों के साथ साझा की है जिन को वोटर लिस्ट से बाहर किया जा सकता है. इन में 21 लाख लोगों ने गणना फौर्म जमा नहीं किए हैं. 52 लाख लोग या तो मर चुके हैं या फिर उन के नाम किसी दूसरे क्षेत्र से वोटर लिस्ट में जुड़ चुके हैं.

बिहार में वोटर लिस्ट पर हठ क्यों

राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव कहते हैं, ‘चुनाव सुधार के बहाने संविधान और लोकतंत्र पर उसी तरह से चोट की जा रही है जैसे नोटबंदी के समय की गई थी. देश की जनता सब देख रही है. वोटर लिस्ट रिव्यू के नाम पर फर्जीवाड़ा हो रहा है. यह सब एक नियोजित प्लान के तहत हो रहा है कि किनकिन बूथ पर और किनकिन मतदाताओं के नाम काटने हैं जिस से विपक्षी दलों को सत्ता में आने से रोका जा सके. बिहार में इस बार चोरी पकड़ ली गई है. यह अब आगे चलने नहीं दिया जाएगा.’

सरकार और चुनाव आयोग का हठ वैसा ही है जैसे पौराणिक काल में साधुसंत करते थे. जो उन की बात नहीं मानता था उस को भस्म कर देते थे. चुनाव आयोग पौराणिक काल के संतों जैसा व्यवहार कर रहा है. उस का कहना है कि जो उस की बात नहीं मानेगा, उस का नाम वोटर लिस्ट से काट दिया जाएगा. न्याय का सिद्धांत यह है कि आरोपी को आखिर तक मौका दिया जाए. अगर किसी को फांसी की सजा दी जाती है तो उस से मरने से पहले उस की अंतिम इच्छा पूछी जाती है. चुनाव आयोग बिना वोटर से पूछे या उसे बताए वोटर लिस्ट से उस का नाम काट रहा है. वोटर लिस्ट में नाम गलत तरह से भी शामिल हो गया हो तब भी वोटर से नाम हटाने के पहले उस से पूछना चाहिए, ऐसा नियम है.

लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 के तहत अगर वोटर लिस्ट में गलत तरह से नाम लिखवाया गया है या एक वोटर का नाम 2 जगह लिखा गया है तो उस को एक साल की कैद या जुर्माना या दोनों की सजा का प्रावधान हैं. फौर्म नं. 6 नए मतदाता बनने के लिए है. फौर्म नं. 7 किसी वोटर का नाम शामिल होने पर आपत्ति और नाम हटाने के लिए है. फौर्म नं. 8 मतदाता सूची में मतदाता की प्रविष्टि की किसी त्रुटि को ठीक करवाने के लिए है. फौर्म नं. 8 (क) एक ही विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र में मतदाताओं को मतदान केंद्र बदलने के लिए और फौर्म 6 (ए) विदेशों में रहने वाले भारतीय नागरिकों के लिए है.

अगर चुनाव आयोग को यह लग रहा है कि वोटर लिस्ट में नाम गलत है तो उस वोटर के खिलाफ कानून के हिसाब से काम करना चाहिए. वोटर लिस्ट से सीधे नाम काट देना किसी भी तरह से न्यायसंगत नहीं है. वोट देना वोटर का सब से बड़ा अधिकार है. इसे छीन लेना उस को उसी तरह का अनुभव कराता है जैसे कोई कार चलाने वाला रोल्स रौयस कार खरीद कर सड़क पर निकले और उस को कूड़ा ढोने वाला सरकारी ट्रक टक्कर मार कर चला जाए. वोट ही ऐसा अधिकार है जिस के लिए राजा उस के दरवाजे आ कर घुटने टेकने को मजबूर होता है. चुनाव आयोग और भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार नागरिकों को इस महत्त्व का भी आनंद नहीं लेने देना चाहती है.

बिहार विधानसभा चुनाव के पहले ही सरकार ने वोटर लिस्ट का विशेष गहन पुनरीक्षण कराने का फैसला क्यों लिया? बिहार में पिछले 22 साल में यह पहली बार हो रहा है जब मतदाता सूची में अपना नाम डलवाने के लिए वोटर से नागरिकता साबित करने के कागज मांगे जा रहे हैं. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि खुद को विश्व की सब से बड़ी पार्टी कहने वाली भाजपा की बिहार के चुनाव में दाल नहीं गल रही थी.

बिहार की राजनीति में अगड़ों पर एससी और ओबीसी भारी पड़ रहे हैं. बिहार में भाजपा कभी अपने दम पर सरकार नहीं बना पाई. उसे नीतीश कुमार को बैसाखी के रूप में इस्तेमाल करना पड़ता है. भाजपा इस चुनाव के बाद नीतीश कुमार की बैसाखी को हटाना चाहती है. ऐसे में उस का आखिरी अस्त्र वोटर लिस्ट है, जिस के जरिए वह बिहार की सत्ता को हासिल कर सकती है.

चुनाव आयोग जो भी तर्क दे लेकिन सरकार नोटबंदी और तालाबंदी की तरह मतबंदी करने में पूरी तानाशाही दिखा कर वोट देने के मौलिक अधिकार को छीनने का काम कर रही है. जो काम कभी अंगरेजों ने नहीं किया वह काम लोकतंत्र में एक चुनी हुई सरकार कर रही है. संविधान ने जनता को वोट का अधिकार दिया है. अब हिंदू राष्ट्र निर्माण में लगी भारतीय जनता पार्टी की सरकार जनता के एक बड़े हिस्से को वोट देने से वंचित रखने का कृत्य कर रही है. जो काम अभी बिहार में वोटर लिस्ट सुधार के नाम पर हो रहा है वही काम बाद में दूसरे प्रदेशों और फिर पूरे भारत में होगा.

उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने आरोप लगाया था कि हर विधानसभा की वोटर लिस्ट में समाजवादी पार्टी से 10 से 20 हजार कार्यकर्ताओं के नाम गायब थे. चुनाव आयोग के सामने इस मसले को उठाया गया पर समय रहते चुनाव आयोग ने कदम नहीं उठाए.

इसी तरह का आरोप कांग्रेस नेता और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने महाराष्ट्र चुनाव में लगाए थे. राहुल गांधी ने अपनी पूरी बात को अखबारों में लेख लिख कर समझने का काम किया था. चुनाव आयोग ने इस पर ध्यान नहीं दिया. बिहार में चुनाव से पहले ही वोटर लिस्ट सुधार के नाम पर वोटबंदी का काम किया जा रहा है.

जिस तरह से दूध का जला मट्ठा भी फूंकफूंक कर पीता है उसी तरह से विपक्षी दलों ने बिहार चुनाव में चुनाव से पहले ही वोटर लिस्ट पर नजर रखनी शुरू कर दी थी, जिस की वजह से मतबंदी की यह योजना सामने आ गई. पूरे देश को पता चल गया कि नसबंदी, नोटबंदी और तालाबंदी के बाद अब मतबंदी की जा रही है. एक तरफ इस पार्टी के नेता अपनी मार्कशीट नहीं दिखाने पर अमादा हैं दूसरी तरफ वे दूसरों से कहते हैं कि अपने पेपर दिखाओ. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने आरोप लगाया कि इस रिवीजन से चुनाव आयोग बैकडोर से एनआरसी लागू करने की कोशिश कर रहा है.

मौलिक अधिकार है वोट देना

लोकतंत्र में वोट का अधिकार मौलिक अधिकार है. संविधान लागू होने से पहले सब को वोट देने का अधिकार नहीं था. 1857 के बाद अंगरेजों ने लोकल सैल्फ गवर्नमैंट पौलिसी बनाई थी, जो 1884 में पूरी तरह से लागू हो गई. वर्ष 1908 में लोकमान्य तिलक ने पुणे नगर पालिका के चुनाव में हिस्सा लिया था. इस में उन की विजय हुई थी. इस के बाद भी उन्होंने कभी सभी शहरियों को वोट देने के अधिकार का मुद्दा नहीं उठाया कि जिस के तहत आम नागरिक वोट दे सके. उस समय तक वोटर लिस्ट नहीं बनी थी. बाल गंगाधर तिलक महान माने जाते हैं पर वे औरतों, पिछड़ों और अछूतों की प्राइमरी शिक्षा के भी खिलाफ थे. वही काम आज की भगवाई सरकार कर रही है.

1909 में अंगरेजों के दौर में इलैक्शन एक्ट पारित हुआ. उस के बाद इलैक्शन शुरू हुआ. उस समय वोटर लिस्ट में केवल 50 लोगों के नाम होते थे. ये वे लोग थे जो इलाके के मुखिया, जमींदार, बड़े साहूकार, बड़े काश्तकार यानी कि उस वक्त जो टैक्स के रूप में लगान जमा करते थे वही लोग चुनावी प्रक्रिया में शामिल होने के हकदार थे. वे ही लोग वोटर हुआ करते थे और उन्हीं लोगों में से चुनाव लड़ने वाले होते थे. उन्हीं में से लोग चुनाव जीत कर इलाके के विकास के लिए कार्य करते थे.

50 लोगों की वोटर लिस्ट में से केवल 4 लोगों को चुनाव लड़ाते थे. ये वे लोग होते थे जो उस समय 100 रुपए से अधिक का आयकर या मालगुजारी भरते थे. मुश्किल से गांव के अनुसार 4 या 5 वोट ही होते थे. 4 प्रत्याशी होते थे और 46 वोटर और इन्हीं लोगों में से एक जीत कर लोकल बोर्ड का मुखिया बनता था. 1919, 1935 और 1945 में हर बार ब्रिटिश प्रोविंसों में मतदाताओं की संख्या बढ़ी पर सभी को वोट देने का अधिकार 1952 में ही मिला.

जब देश आजाद हुआ तो यह तय किया गया कि भारत में लोकतंत्र की स्थापना के लिए अधिक से अधिक लोगों को वोट डालने का अधिकार दिया जाएगा. इस से पहले भारत ही नहीं अन्य देशों में भी अमीरों को ही वोट देने का अधिकार था. भारत ने संविधान लागू होने से पहले ही यह सोच लिया था कि देश में सभी को वोट देने का अधिकार होगा.

ओर्नित शानी की किताब ‘हाऊ इंडिया बिकेम डैमोक्रेटिक’ में लिखा है कि भारत में वयस्क मताधिकार के माध्यम से लोकतंत्र को स्थापित करने का मूर्त रूप दिया गया.

ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली को भारत की इस लोकतांत्रिक व्यवस्था पर संदेह था. उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को लिखा- ‘एशियाई गणराज्य कम हैं और हाल ही में वे स्थापित हुए हैं. ऐसे में सभी को मतदान का अधिकार देना ठीक नहीं रहेगा.’ अंगरेज वकील और शिक्षाविद आइवर जेनिंग्स ने लिखा- ‘सीमित मताधिकार दे कर या प्रतिनिधित्व को संतुलित कर के ही लोकतंत्र के नुकसान को कम किया जा सकता है.’ ब्रिटिश प्रधानमंत्री की सोच स्वतंत्र और लोकतांत्रिक चुनाव कराने की भारतीय अवधारणा- वयस्क मताधिकार- पर आधारित नहीं थी.

1947 से 1950 के बीच वयस्क मताधिकार को वोट का अधिकार देने के लिए संविधान सभा सचिवालय (सीएएस) द्वारा उपाय किए गए. इन में सब से पहले सीएएस ने मतदाता सूची तैयार करना शुरू किया. 17.3 करोड़ नागरिकों को मताधिकार दिया गया. इस तरह से देखें तो मतदाता सूची का पहला मसौदा संविधान लागू होने से ठीक पहले ही सोच लिया गया था. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 326 के तहत देश के नागरिकों, जिन की उम्र 21 वर्ष या उस से अधिक थी, को वोट डालने का अधिकार दिया गया. इस अनुच्छेद को संविधान में शामिल करवाने में वे लोग थे जो हिंदूरक्षक माने जाते थे, आपत्ति करते रहे थे.

28 मार्च, 1989 को 61वें संविधान संशोधन के तहत वोट डालने की न्यूनतम उम्र को घटा कर 18 वर्ष कर दिया गया था. संविधान का अनुच्छेद 326 यह भी सुनिश्चित करता है कि मतदान के अधिकार का प्रयोग करते समय किसी भी नागरिक के साथ धर्म, जाति, लिंग या संपत्ति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा.

भारत के संविधान ने यह तय किया कि जो भी बालिग है वह वोट देगा. उम्र के अलावा कोई बंधन नहीं रखा गया था. इसी के तहत 1951-52 में हुए पहले भारतीय आम चुनाव में करीब 17 करोड़ लोगों ने हिस्सा लिया, जिस में 85 फीसदी लोग न तो पढ़ सकते थे, न लिख. कुल मिला कर करीब 4,500 सीटों के लिए चुनाव हुआ था, जिस में 499 सीटें लोकसभा की थीं. यह पहली बार हुआ कि न केवल पहले के अंगरेजों के अधीन वाले प्रोविंसों में सभी को वोट का अधिकार मिला बल्कि पूर्व राजाओं की रियासतों के नागरिकों को भी पहली बार वोट देने का हक मिला.

वोट के अधिकार से लोगों को वंचित करने का मतलब जनता के मौलिक अधिकारों की कटौती है. आज वोट लिस्ट में तथाकथित सुधार के रास्ते देश को आजादी से पहले की हालत में ले जाने का प्रयास किया जा रहा है जब केवल सलेक्टेड लोग ही वोट दे सकते थे और चुनाव लड़ सकते थे. संविधान ने जो अधिकार जनता को दिया, सरकार उस को मतबंदी के जरिए वापस लेने की फिराक में है. वह दलितों, पिछड़ों और कमजोर लोगों को अपने बराबर बैठे नहीं देखना चाहती. लोकतंत्र में वोट का अधिकार छीन कर इस कृत्य को अंजाम दिया जा सकता है.

संविधान को दरकिनार करने की साजिश

बिहार में वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण के बहाने इस तरह की व्यवस्था को बनाने का काम हो रहा है जिस में वोटर लिस्ट में वे लोग होंगे जो पौराणिक व्यवस्था को मानेंगे. जो पौराणिक व्यवस्था को चुनौती देने वाले होंगे उन के वोट देने के अधिकार को वोटर लिस्ट से उन के नाम काट कर खत्म कर दिया जाएगा. देश को संविधान लागू होने से पहले के कालखंड में ले जाया जा रहा है. नागरिकता को वर्णव्यवस्था से जोड़ने की साजिश की जा रही है. यह काम केवल बिहार तक ही सीमित नहीं रहेगा, आगे पूरे देश में ऐसा किया जाएगा.

बिहार विधानसभा चुनाव में वोटर लिस्ट विवाद के बाद चुनाव आयोग ने कहा कि ‘वोटर लिस्ट में जांच का काम देश के हर राज्य में किया जाएगा. इस में घरघर जा कर मतदाताओं की पुष्टि की जाएगी. इस के जरिए चुनाव आयोग यह चाहता है कि कोई गैरभारतीय वोटर लिस्ट में न रहे.’

2029 में लोकसभा चुनाव से पहले सभी राज्यों की वोटर लिस्ट की स्क्रीनिंग पूरी करने की योजना है. भाजपा अब यह नहीं चाहती कि उस की जगह पर कोई और दल सत्ता में आए. ऐसे में वोटर लिस्ट से विरोधियों के नाम ही काट दिए जाएं.

इस को दक्षिणापंथी लोगों की उस मांग से जोड़ कर देखा जा सकता है कि जो भारतीय न हो उस को वोट देने का अधिकार न हो. यही उद्देश्य एनआरसी यानी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का भी था. जनगणना में भी केंद्र सरकार इसी तरह का कोई हेरफेर कर सकती है. उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव कहते हैं- ‘जातीय जनगणना के आंकड़ों और वोटर लिस्ट के मामले में भाजपा सरकार पर भरोसा नहीं किया जा सकता.’

बिहार वोटर लिस्ट प्रक्रिया में चुनाव आयोग की भूमिका पर सवाल उठ रहे हैं, उस के पहले महाराष्ट्र के चुनाव में वोटर लिस्ट की गड़बड़ी जाहिर हो चुकी है. इस से यह साफ दिखने लगा है कि हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए कुछ भी संभव है. इस को देख कर यह कहा जा सकता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में अगर भाजपा को 400 से अधिक सांसद मिल गए होते तो वह कानून बना कर इस तरह के काम करती जिन्हें अब उस को पिछले दरवाजे से करने की कोशिश करनी पड़ रही है.

क्या है वोटर लिस्ट विवाद

बिहार विधानसभा चुनाव से पहले चुनाव आयोग ने वोटर लिस्ट को अपडेट करने का काम शुरू किया. इस को वोटर लिस्ट का विशेष गहन पुनरीक्षण नाम दिया गया. इस के तहत नए मतदाताओं के नाम जोड़े जा रहे हैं और जो वोटर नहीं हैं, उन के नाम हटाए जा रहे हैं. इस में सभी मतदाताओं को सत्यापन का एक फौर्म भरना पड़ रहा है, जिस में उन्हें अपने बारे में कुछ जरूरी जानकारियां देनी होती हैं.

चुनाव आयोग जो जानकारी मांग रहा है उस में 2 प्रावधान किए गए हैं, जैसे 2003 या उस के बाद पैदा हुए मतदाताओं को अपना जन्मप्रमाण पत्र या मातापिता के वोटर आईडी का एपिक नंबर देना होगा, जबकि 2003 से पहले पैदा हुए लोगों को कोई दस्तावेज नहीं देना है.

असल में जिन का भी नाम 2003 की सूची में नहीं था, उन सब को फौर्म भरने के साथ प्रमाणपत्र भी लगाने होंगे. जिन का जन्म 1 जुलाई, 1987 के पहले हुआ था उन्हें सिर्फ अपने जन्मतिथि और जन्मस्थान का प्रमाण देना होगा. जिन का जन्म 1 जुलाई, 1987 से 2 दिसंबर, 2004 के बीच हुआ था उन्हें अपने और अपने मातापिता में से किसी एक का प्रमाणपत्र देना होगा. जिन का जन्म 2 दिसंबर, 2004 के बाद हुआ है उन्हें अपने और अपने माता व पिता दोनों का प्रमाणपत्र देना होगा. अगर माता और पिता का नाम 2003 की सूची में था तो उस पेज की फोटोकौपी से उन के प्रमाणपत्र का काम चल जाएगा लेकिन तब भी आवेदक को अपनी जन्मतिथि और जन्मस्थान का प्रमाण तो लगाना ही पड़ेगा.

सुप्रीम कोर्ट में चुनाव आयोग का हलफनामा

वोटर लिस्ट का विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर विवाद को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने वाली कई याचिकाओं के जवाब में चुनाव आयोग ने 88 पेज का जवाबी हलफनामा दे कर अपनी बात रखी. चुनाव आयोग ने इस में कहा कि वोटर लिस्ट में नाम शामिल करने के लिए वोटर कार्ड, आधार और राशन कार्ड को वैध दस्तावेज के रूप में मंजूर नहीं किया जा सकता है. वोटर लिस्ट का विशेष गहन पुनरीक्षण जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 के नियम 21 (3) के तहत नए सिरे से वोटर लिस्ट बनाने की प्रक्रिया है. यह वोटर कार्ड मौजूदा सूची की प्रविष्टियों पर आधारित है और स्वयं पुनरीक्षण के अधीन है.

चुनाव आयोग ने अपने हलफनामे में कहा कि आधार कार्ड को वोटर लिस्ट में शामिल करने के लिए वैध दस्तावेज के रूप में मान्यता नहीं दी जा सकती क्योंकि यह नागरिकता स्थापित नहीं करता, यह केवल पहचान का प्रमाण है. इसी तरह से चुनाव आयोग ने राशन कार्ड को भी स्वीकार्य दस्तावेज की सूची से बाहर करने की वजह बताते कहा, राशन कार्ड फर्जी बने हुए हैं.

केंद्र सरकार ने 7 मार्च को अपनी एक प्रैस कौन्फ्रैंस में कहा कि उस ने 5 करोड़ फर्जी राशन कार्ड निरस्त कर दिए हैं. इस का मतलब यह हुआ कि केंद्र सरकार 80 करोड़ लोगों को जो राशन दे रही थी वह फर्जी लोगों को दे रही थी. कल को केंद्र सरकार कहेगी कि आधार तो मुफ्त राशन पाने का भी दस्तावेज नहीं है. यह सुविधा वापस ली जा सकती है.

चुनाव आयोग का तर्क है कि वोट का अधिकार जनप्रतिनिधत्व अधिनियम 1950 की धारा 16 और 19 के साथ संविधान के अनुच्छेद 326 और जनप्रतिनिधत्व अधिनियम 1951 की धारा 62 से प्राप्त होता है. इस में नागरिकता, आयु और सामान्य निवास के संबंध में कुछ योग्यताएं निधारित हैं. अपात्र व्यक्ति को वोट देने का अधिकार नहीं है. इसलिए वह संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 के तहत मिले अधिकारों का उल्लंघन नहीं है. चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि उसे वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण में एक माह से अधिक का समय नहीं लगेगा जिस से वह समय पर अपना काम कर लेगा.

चुनाव आयोग का कहना है कि 2003 के बाद की वोटर लिस्ट में गड़बड़ी है. अब सवाल उठता है कि अगर 2003 के बाद के चुनावों की वोटर लिस्ट में गड़बड़ी है तो इस के बाद बिहार में हुए विधानसभा और लोकसभा के चुनाव को अवैध क्यों नहीं माना जाना चाहिए? उन चुनावों को रद्द कर देना चाहिए.

उन चुनावों के बाद सरकारों ने जो भी फैसले लिए वे भी कूड़ेदान में डाल देने चाहिए. जब वोटर लिस्ट ही गलत थी तो उस के द्वारा चुनी सरकार भी गलत थी और उस के आधार पर लिए गए फैसले भी गलत ही थे. सभी सांसदों, विधायकों को दिए गए वेतन वापस ले लिए जाने चाहिए. सारे कानून जो उस दौरान बने, रद्द माने जाने चाहिए.

चुनाव आयोग ने एक माह में ही वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण के काम को पूरा करने का दावा किया है. सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई कर रही बैंच के न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया ने कहा कि न्यायालय को चुनाव आयोग की समयसीमा पर गंभीर संदेह है. उन्होंने कहा कि जनगणना में ही एक वर्ष लग जाता है और ईसीआई की समयसीमा सिर्फ 30 दिन है जिस के अंदर कैसे यह काम हो सकता है.

सवाल यह भी उठता है कि अगर सरकार इतनी ही सक्षम है तो जनगणना का काम अब तक क्यों नहीं पूरा किया गया? उसे लगातार टाला क्यों जा रहा है? पिछली बार जनगणना 2011 में हुई थी. 14 साल हो चुके हैं. इतने समय में तो राम का वनवास भी खत्म हो गया था. सरकार ने अभी भी जनगणना के लिए 2027 तक इंतजार करने को कहा है.

वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण का काम वही सरकारी नौकर कर रहे हैं जिन्होंने राशन कार्ड बनाए थे, जिन को फर्जी बताया जा रहा है. वोटर लिस्ट बनाने वाले कर्मचारी राज्य सरकार के ही बाबू श्रेणी के हैं. ये अभी नीतीश सरकार के अधीन ही काम कर रहे हैं. चुनाव आयोग के अधीन तब होते हैं जब चुनाव आचार संहिता घोषित होती है. देश की बाबूशाही कितनी ईमानदार है, सभी जानते हैं. यह रिश्वत लेने में सब से आगे होती है. हर तरह का लाइसैंस और प्रमाणपत्र फर्जी तरह से बन जाता है. बीएलओ के रूप में शिक्षक, लेखपाल, कानूनगो और क्लर्क श्रेणी के कर्मचारी काम करते हैं जो राज्य सरकार के अधीन होते हैं. चुनाव आयोग का काम करने के लिए इन को अतिरिक्त भत्ता मिलता है. इसी भत्ते के लालच में ये चुनाव आयोग का अतिरिक्त काम करते हैं. इन की बनाई वोटर लिस्ट पर कभी भी भरोसा कैसे किया जा सकता है.

वोटर लिस्ट से नाम काटने का अधिकार बीएलओ का नहीं है. चुनाव आयोग वोटर लिस्ट में गलत तरह से नाम लिखवाने वाले को पहले अपने पास बुलाए. उस के खिलाफ मजिस्ट्रेट के यहां शिकायत हो. फिर वह दोनों पक्षों को सही तरह से सुने व समझाए कि उस की गलती है जिस के कारण उस के नाम को काटने का काम क्यों न किया जाए. बिना वोटर को सुने उस का नाम काटना गलत है. चुनाव आयोग वोटर की सुन ही नहीं रहा है. वह सीधे वोटर लिस्ट से नाम काटना चाहता है. यह तानाशाही है- नसबंदी वाली, नोटबंदी वाली, तालाबंदी वाली.

असल में चुनाव आयोग की मंशा वह नहीं है जो वह बता रहा है. अगर चुनाव आयोग की मंशा वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण की होती तो कोई दिक्कत नहीं थी. जैसे, नसबंदी का मकसद फैमिली प्लानिंग नहीं था, लोगों को डरा कर उन के मुंह को बंद करना था. जैसे नोटबंदी का मकसद खास लोगों को लाभ पहुंचाने का था, आतंकवाद और रिश्वतखोरी बंद करना तो बहाना था. जैसे, कोरोना में तालाबंदी का मकसद तबलीगी जमात जैसों को परेशान करने का था.

वैसे ही मतबंदी का काम वोटर लिस्ट को सही करना नहीं है, इस के बहाने गरीब व विरोधी मतदाताओं को मताधिकार से वंचित करना है. जो हिंदू राष्ट्र बनने की राह में बाधा बन सकते हैं उन को वोट देने के अधिकार से वंचित करने का है. बिहार का यह मौडल पूरे देश में ले जाया जाएगा.

आधार नहीं रहा आधार

चुनाव से ठीक पहले प्रदेश के 7.9 करोड़ मतदाताओं से यह कहना कि वे अपनी पात्रता को सत्यापित करें, एक तरह से हजारों वोटर्स को मतदान करने से रोकने की कोशिश है. आधार कार्ड को स्वीकार न करना पूरी तरह से नागरिकता जांच की कवायद है.

आधार कार्ड में 12 अंकों की एक पहचान संख्या होती है जिसे भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण द्वारा जारी किया जाता है. यह प्रत्येक भारतीय की पहचान और उस के निवास स्थान का प्रमाण है. आधार कार्ड की मान्यता बैंकिंग, स्कूल एडमिशन, सरकारी योजनाओं का लाभ लेने से ले कर अस्पतालों में इलाज कराने तक सभी जगहों पर है. वोट देने के समय भी यह पहचानपत्र के रूप में मान्य था.

सवाल उठता है कि जब आधार पहचानपत्र के रूप में वोट डालने के लिए प्रयोग किया जा सकता है तो वोटर लिस्ट की जांच में इस को क्यों माना नहीं जा रहा है? चुनाव आयोग का कहना है कि वोटर लिस्ट अपडेशन में आधार कार्ड को प्रमाण नहीं माना जा सकता क्योंकि यह नागरिकता का प्रमाणपत्र नहीं है.

यह बात अब साफ होती नजर आ रही है कि आधार कार्ड को नागरिकता का प्रमाणपत्र नहीं माना जा सकता. इस का लाभ उठा कर हिंदू राष्ट्र बनाने वाले उन लोगों को वोट के अधिकार से वंचित कर रहे हैं जो गरीब हैं, जिन की कोई सुनने वाला नहीं है. यानी, केवल वे लोग वोट दे सकें जो वोटर लिस्ट में दर्ज हैं. जिन लोगों से विरोध का डर है उन को इस बहाने वोटर लिस्ट से बाहर किया जा सकता है. वोटर लिस्ट में उन के नाम ही होंगे जो भाजपाई होंगे, हिंदू राष्ट्र को मानने वाले होंगे.

संविधान कहता है कि वोटर बनने के लिए सिर्फ इतना चाहिए कि व्यक्ति भारतीय नागरिक हो, मानसिक रूप से अस्वस्थ न हो, किसी कानून के तहत वोट डालने से रोका न गया हो. एक बार जब किसी का नाम वोटर लिस्ट में आ जाता है तो उसे हटाने के लिए बाकायदा एक तय प्रक्रिया अपनानी चाहिए. अगर आप के पास वोटर आईडी है तो आप ने जरूरी दस्तावेज पहले ही दिए होंगे.

जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 के तहत आधार को पहचान साबित करने वाले दस्तावेजों में गिना गया है तब इस को चुनाव आयोग की दी गई सूची में शामिल क्यों नहीं किया गया?

नोटबंदी व तालाबंदी की अगली कड़ी वोटबंदी

वोटर लिस्ट सुधार के नाम पर जो तानशाही की जा रही है वह नसबंदी, नोटबंदी और तालाबंदी की अगली कड़ी मतबंदी है. इस से बहुत बड़ी संख्या में मतदाताओं को उन के मताधिकार से वंचित कर दिया जाएगा. यह चुनावों में सभी को बराबरी का मौका देने के सिद्धांत के खिलाफ है. यह काम संविधान के खिलाफ और भेदभावपूर्ण है.

इस का सब से ज्यादा असर हाशिए पर जीने वाले लोगों, जैसे प्रवासी मजदूर, ट्रांसजैंडर और अनाथ लोगों पर पड़ेगा. जिन भी लोगों को जीवन में पढ़ाई के अवसर नहीं मिले उन के साथ यह भेदभाव है. इस का असर यही होगा कि औरत, गरीब, प्रवासी मजदूर और दलित, आदिवासी व पिछड़े वर्ग के लोग प्रमाणपत्र देने में पिछड़ जाएंगे और उन का नाम/वोट कट जाएगा.

जो सरकार 2021 में होने वाली जनगणना को 2026-27 तक टालने का काम कर रही है वह एक माह में वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण का काम कैसे कर लेगी, सहज रूप से समझ जा सकता है. साल 2003 में वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण के काम में डेढ़ साल लगे थे. अब यह काम एक माह में हो जाएगा? असल में ये झांसे में रखने वाली बातें हैं. इस के जरिए भाजपा बिहार में सत्ता पाने का रास्ता तलाश रही है, जो लोकतंत्र की हत्या जैसा काम है. ऐसे में यह होना चाहिए कि 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव पुरानी वोटर लिस्ट के जरिए ही कराए जाएं. जब जनगणना हो कर नई वोटर लिस्ट बन जाए तब नई वोटर लिस्ट के जरिए चुनाव कराए जाएं.

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