Coaching Institutes : देश में कोचिंग व्यवसाय का सब से ज्यादा जाना जाने वाला शहर कोटा अब काफी समय से विवादों में है क्योंकि वहां पढ़ने वाले लाखों छात्रों में से कुछ तनाव न झेल पाने के कारण आत्महत्या कर लेते हैं. अब कोचिंग कंपनियों का कीकर के जंगल की तरह बढ़ना और फीस के नाम पर उन का लाखों रुपए सालाना चार्ज करना सब को अखरने लगा है. इस बीच राजस्थान सरकार ने कोचिंग सैंटरों के कंट्रोल और रैगुलेशन पर एक नए कानून बनाने का प्रस्ताव रखा है.

जैसा सरकारें करती हैं, किसी भी समस्या को हल करने के लिए एक कानून बना कर पेश कर देती हैं. नए बनाए गए हर कानून में रिश्वत वसूलने के बीसियों तरीके रहते हैं. राजस्थान सरकार के इस प्रस्तावित कानून में भी ऐसा ही है. इस में मुख्य काम रजिस्ट्रेशन है. हर कोचिंग संस्थान को सरकार के पास अपना रजिस्ट्रेशन कराना पड़ेगा लेकिन यह रजिस्ट्रेशन छात्रों का तनाव आखिर कैसे दूर करेगा, यह कहीं स्पष्ट नहीं है.

राज्य सरकार का प्रस्तावित कानून कोचिंग सैंटरों पर सुरक्षा के प्रबंध करने, ज्यादा अच्छी शिक्षा देने, उन के समुचित विकास की जिम्मेदारी डालने जैसे महान वाकयों से भरा है पर उन से समस्या कैसे हल होगी, यह सम झाना असंभव है.

हर सरकारी कानून किसी न किसी पर एक अतिरिक्त आर्थिक बोझ डालता है और कोचिंग संस्थानों के रजिस्ट्रेशन पर होने वाला खर्च, जिस में मोटा खर्च रिश्वत का होगा, किसी न किसी तरीके से छात्रों से ही वसूला जाएगा. इस कानून के बनने से इंस्पैक्टरों, रजिस्ट्रेशन दफ्तरों, कंट्रोलिंग अथौरिटी की मौज तो हो जाएगी पर अपने बच्चों को कोचिंग के लिए भेजने वाले मांबापों की जेबें और ज्यादा हलकी होंगी. कुकुरमुत्तों की तरह खुलने वाले कोचिंग संस्थानों पर नियंत्रण बाजार का होना चाहिए, सरकार का नहीं. बाजार में अगर महंगे कोचिंग सैंटर, जिन की फीस देना हरेक के बस का नहीं है तो कुछ सस्ते भी पनप जाएंगे जहां पढ़ कर कुछ गरीब छात्रों को लगेगा कि शायद वे नीट, आईआईटी, क्लैट, आईआईएम की परीक्षाएं अपनी मेहनत व कोचिंग की पढ़ाई से पास कर लेंगे. सड़कछाप कोचिंग सैंटर हो सकता है बेकार हों लेकिन उन का होना भी जरूरी है.

समस्या तो यह है कि हमारे स्कूल क्या कर रहे हैं जो अपने स्टूडैंट्स को कोचिंग संस्थानों के स्टूडैंट्स जैसे रैडी नहीं कर पा रहे? ऐसे स्कूलों को दंड देने के कानून क्यों न बनाए जाएं? स्कूलों का तो रजिस्ट्रेशन अनिवार्य है तो फिर वे ऐसे छात्र क्यों नहीं पैदा कर पाते जो स्कूली शिक्षा के आधार पर ही प्रतियोगी परीक्षाओं को क्वालीफाई कर सकें? व्यावसायिक संस्थानों में एडमिशन के लिए जो परीक्षा प्रणाली है, वह 10वीं, 12वीं तक की शिक्षा का आधार क्यों नहीं बनाई जाती?

देशभर के स्कूलों के 10वीं से 12वीं तक के वे शिक्षक जिम्मेदार हैं जो मोटा वेतन पा कर भी अधपढ़े छात्र बना रहे हैं. इन्हें कंट्रोल और रैगुलेट करने के कानून क्यों नहीं बनते? दरअसल इसलिए नहीं बनते क्योंकि उन का दर्जा तो गुरुओं का है. वे तो पूजनीय हैं. छात्र उन की तनमनधन से सेवा करें, यह उन का सांस्कारिक कर्तव्य है. राजस्थान का प्रस्तावित कानून इसी महान संस्कृति को और मजबूत करेगा, कानून प्रबंधकों, जो व्यवसायी हैं, को कंट्रोल करेगा. टीचर्स को नहीं, जो पूजनीय की श्रेणी में आते हैं. छात्रों की आत्महत्याएं तो एक बहाना है, सिर्फ.

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