Social Media : यह कतई हैरानी की बात नहीं होगी अगर कल को नशा मुक्ति केंद्रों की तर्ज पर गलीगली सोशल मीडिया मुक्ति केंद्र खुले दिखाई दें. ऐसे `विशेषज्ञ` भी पैदा हो सकते हैं जो घंटों में शर्तिया सोशल मीडिया की लत से हमेशा के लिए छुटकारा दिलाने का दावा इश्तिहारों के जरिये करते दिखाई दें. जानकर हैरत होती है कि बेंगलुरु स्थित निम्हान्स यानी नैशनल इंस्टीटयूट फोर मेंटल हैल्थ में सोशल मीडिया एडिक्शन वार्ड संचालित होने लगा है.

देश में मोबाइल फोन इस्तेमाल करने वालों की तादाद इस साल बढ़ कर कोई 115 करोड़ हो जाने का सरकारी अनुमान इस लिहाज से चिंता की बात है कि इन में से अधिकतर स्मार्ट फोन का उपयोग करेंगे. जिस का इस्तेमाल आजकल बात करने के कम सोशल मीडिया का बेजा इस्तेमाल करने के काम में ज्यादा लिया जाता है. यह बिलकुल शराब, सिगरेट, तम्बाकू, अफीम और गांजे सरीखी लत है. जिस की चपेट में परिवार के परिवार घोषित तौर पर हैं.

परिवारों की बदहाली का आलम तो यह है कि सदस्यों को एक दूसरे के नम्बर भी याद नहीं. बिना फोन बुक खोले 2 – 4 के अलावा कोई किसी को काल नहीं लगा सकता. एक तरह से याददाश्त पर लकवा है जिस की गिरफ्त में वे लोग भी आ गए हैं जिन्हें कुछ साल पहले ही दर्जनों नम्बर रटे रहते थे. उस से भी पहले लेंड लाइन फोन के युग में तो औपरेटर के नम्बर प्लीज कहते ही झट से सैकड़ों नम्बर में से वांछित नम्बर बता दिया करते थे. फोन नम्बर ही क्यों अब तो लोगों को अपने विभिन्न तरह के पास वर्ड भी याद नहीं रहते जिन में केप्चा लगाना अनिवार्य सा हो गया है. इसलिए पास वर्ड डालने में जरा सी भी देरी हो तो एक मैसेज फ्लेश होने लगता है ‘फोरगेट पासवर्ड’?

प्रिंट की यह खूबी है कि उस का प्रभाव लम्बे समय तक रहता है जबकि स्क्रीन के पढ़े की मियाद अल्पकालिक होती है. इस पर एक बार पढ़ा या देखा हुआ कोई दोबारा ढूंढना चाहे तो वह स्ट्रेस का शिकार हो जाता है और अपनेआप पर झल्लाता है. सोशल मीडिया के भूसे में सुई ढूंढना कोई आसान बात नहीं है.

इस नशे की एक खूबी यह भी है कि इस की खुमारी जिसे हेंगओवर भी कहा जा सकता है चौबीसों घंटे दिल दिमाग पर छाई रहती है. ऐसे लोगों की तादाद भी लगातार बढ़ रही है जो सुबह उठ कर पेट हल्का करने टौयलेट का रुख बाद में करते हैं पहले फोन खोल कर तमाम सोशल मीडिया प्लेटफौर्म चेक करते हैं मानो कोई ट्रेन छूट रही हो. कुछ से तो इतना भी सब्र नहीं होता कि जितनी देर टौयलेट में रहें कम से कम उतनी देर तो स्मार्ट फोन को चैन की सांस ले लेने दें.

आंकड़ों की जुबानी देखें तो दुनिया भर में कोई 65 फीसदी लोग वाशरूम में मोबाइल फोन ले कर जाते हैं. यह खुलासा वर्चुअल प्राइवेट नेटवर्क सर्विस प्रोवाइडर ने अपने एक सर्वे में किया है. इन में भी ज्यादातर युवा शामिल हैं. इलैक्ट्रौनिक्स ट्रेड-इन वेबसाइट बैंक माय सैल के मुताबिक अमेरिका में तो 90 फीसदी लोग टौयलेट में स्मार्ट फोन का इस्तेमाल करते हैं. तमाम डाक्टरों के मुताबिक ऐसे लोग बबासीर नामक तकलीफदेह बीमारी को न्योता दे रहे होते हैं. क्योंकि ये लोग फ्रेश होने यानी मल त्याग करने में 15 मिनिट से ज्यादा का वक्त लेते हैं जबकि यह 5 – 7 मिनट में हो जाता है.

ज्यादा देर टौयलेट शीट पर बैठने से मलद्वार यानी एनस पर दबाब बढ़ता है जिस से पाइल्स बाहर निकलने लगते हैं. पाचन संबंधी समस्याएं भी पैदा होती हैं और संक्रमण का खतरा भी बढ़ता है क्योंकि मोबाइल फोन में टौयलेट शीट के मुकाबले दस गुना ज्यादा बैक्टीरिया पाए जाते हैं. अमेरिका की एरिजोना यूनिवर्सिटी की एक स्टडी में यह तथ्य बताया गया है.

इस लत पर बना एक जोक आएदिन वायरल भी होता रहता है. एक मुसाफिर ने स्टेशन पर उतरते सहयात्री से कहा यह व्हाट्सऐप वाकई में हमें आगे ले जा रहा है. सहयात्री के पूछने पर कि कैसे, तो वह बोला अब मुझे ही देख लीजिए 2 स्टेशन आगे आ गया हूं. लेकिन हकीकत में लोग आगे नहीं बढ़ रहे हैं बल्कि जिंदगी और दुनिया की रेस में पीछे खिसकते जा रहे हैं. आगे वे लोग बढ़ रहे हैं जो सोशल मीडिया का इस्तेमाल ज्ञान व जानकारी बढ़ाने के लिए कर रहे हैं पर इन की तादाद 10 फीसदी भी नहीं है.

यह निश्चित ही पहला वैज्ञानिक अविष्कार है जिस का दुरूपयोग दुनिया भर में बड़े पैमाने पर किया जा रहा है. बंदर के हाथ में उस्तरा वाली कहावत सोशल मीडिया के नशैड़ियों पर पूरी तरह लागू होती है. खुद का नुकसान तो ये नशेड़ी करते ही हैं लेकिन साथ ही परिवार का समाज का और देश का भी कम नुकसान नहीं करते. कैसेकैसे करते हैं यह मीडिया इफरात से बताता रहता है. इस लत के लक्षण और छुटकारा पाने कि टिप्स से पत्र पत्रिकाएं और वेबसाइट्स भरी पड़ी हैं. यह सब बेअसर साबित हो रहा है. हैरत तो इस बात की भी है कि खुद इस के लती इस के नुकसान जानते हैं और ईमानदारी से मान भी लेते हैं कि क्या करें… अब पड़ गई आदत तो पड़ गई.

ईमानदारी से अपनी इस लत को स्वीकारने वाले यह भी स्वीकारते हैं कि अब लिखने की प्रेक्टिस तो रही ही नहीं मुद्दत से किसी को चिट्ठी पत्री नहीं लिखी. लोगों की भाषा का तो सत्यानाश हो ही चुका है साथ ही वे व्याकरण की संज्ञा सर्वनाम जैसे शुरुआती पाठ भी नहीं जानतेसमझते. 40 साल या उस से ज्यादा की उम्र के लोगों में गनीमत है भाषा की समझ है लेकिन उस की अहमियत अब नहीं रही. स्कूलों के हाल तो कहना क्या. भोपाल के एक प्राइवेट स्कूल में हिंदी की शिक्षिका सपना शुक्ला बताती हैं कि छोटेछोटे बच्चे अपनी भाषा न ढंग से बोल पाते और न ही लिख पाते. वजह घरों का माहौल है जहां भाषा में भी शौर्टकट चलने लगा है.

सपना के मुताबिक हिंदी की जितनी दुर्दशा पिछले 20 सालों में हुई है उतनी पहले कभी नहीं हुई होगी. बच्चे आवेदन पत्र और निबंध में भी अंगरेजी का इस्तेमाल कर रहे हैं. पर वह कचरा इंग्लिश है जिसे आप न हिंदी कह सकते न ही अंगरेजी कह सकते. हिंदी शिक्षिका होने के नाते मेरे लिए यह चिंता के साथ साथ तनाव का भी विषय बच्चों के भविष्य के मद्देनजर है कि इन का व्यक्तित्व ही दोहरापन लिए विकसित हो रहा है जिस में आत्मविश्वास नाम की चीज ही नहीं चिंता की बड़ी बात यह भी है कि बच्चे अपने विचार व्यक्त नहीं कर पाते. अच्छी हिंदी के लिए मैं बच्चों को और उन के अभिभावकों को चम्पक पढ़ने की सलाह देती हूं जो बचपन में मैं ने भी पढ़ी है और मम्मी और सासु मां ने भी पढ़ी है.

सोशल मीडिया दरअसल में वन वे ट्रैफिक की तरह है जिस में इस लत के शिकार लोग सिर्फ पोस्ट ग्रहण करते हैं कोई प्रतिक्रिया नहीं दे पाते क्योंकि वे कमअक्ल होते हैं उन के पास कोई तर्क विचार या राय भी नहीं होती. लोचा यह है कि जो लोग, संगठन या राजनैतिक दल किसी खास मकसद से पोस्ट बना कर उसे पोस्ट करते हैं उन्हें फोरवर्ड कर खुद को अक्लमंद समझने वाले लालबुझक्कड़ों की तादाद कम नहीं.

विचारधारा के पैमाने पर देखें तो इन में दक्षिणपंथियों की तादाद वामपंथियों या तटस्थ यूजर्स से लगभग 10 गुनी है. यही वे लोग हैं जिन्होंने आसमान सर पर उठा रखा है. इन का खाना बगैर अपनी विचारधारा का प्रचार किए नहीं पचता. यही वे लोग हैं जो सुबह उठ कर कुल्ला ब्रश बाद में करते हैं पहले स्मार्ट फोन में पासवर्ड डालते हैं.

इन नासमझ फुरसतियों में से 90 फीसदी को भी नहीं मालूम रहता कि वे किस के इशारो पर नाच रहे हैं . यही लोग विकट के धर्मांध और अंधविश्वासी भी होते हैं जब तक ये सौ पचास लोगों को दिन के हिसाब से शंकर, राम, कृष्ण या हनुमान की फोटो नहीं भेज देते इन के पेट में मरोड़ तब तक उठती ही रहती है. इस रोग का कोई इलाज नहीं है. इन मरीजों का नोटिफिकेशन हमेशा अलर्ट मोड पर रहता है.

दिक्कत तो यह है कि इन्हें हतोत्साहित करने वाला कोई नहीं बल्कि प्रोत्साहित करने वालों की कमी नहीं. इन्हीं में से एक थे आजतक के एंकर सुधीर चौधरी जो अपनी स्टोरी, शो या रिपोर्ट कुछ भी कह लें बनाते ही सोशल मीडिया कंटेंट्स से चुराकर थे. उन का ब्लैक एंड व्हाइट नाम का शो फ्लौप इसीलिए जा रहा था कि उस में कोई नवीनता या विविधता नहीं थी. टीआरपी गिरते देख आजतक के कर्ताधर्ताओं ने फुर्ती दिखाते उन से यह शो छीन कर अंजना ओम कश्यप नाम की एंकर को थमा दिया. यह और बात है कि वे भी भाजपाई और संघी एजेंडों से खुद को पूरी तरह मुक्त नहीं रख पा रही हैं.

सोशल मीडिया के लती लोगों को यह ज्ञान दे दिया गया है कि जो जागरूकता दिख रही है वह सोशल मीडिया की मेहरबानी है. इस से पहले हम इतिहास जानते ही नहीं थे जिस से कांग्रेसी पाप उजागर नहीं हो पाते थे. मसलन यह कि अकबर महान था राणाप्रताप नहीं क्योंकि यह इतिहास वामपंथियों ने लिखा. सच भी है कि दक्षिणपंथियों ने तो कभी इतिहास लिखा ही नहीं उन्हें तो इस की तमीज ही नहीं थी. उन्हें आज भी पूजापाठ से ही फुर्सत नहीं मिलती जो उन की रोजीरोटी का बड़ा जरिया हमेशा से रहा है. अब नए सिरे से इतिहास गढ़ा जा रहा है जिस में सब जायज है

कोई भी धार्मिक या एतिहासिक विवाद होता है तो भक्त लोग आयातित ज्ञान को प्रवाहित करने लगते हैं. ताजा चर्चित उदहारण वक्फ का लें तो ये कहते हैं कि देखो मुसलमानों ने देश भर की जमीनों पर बेजा कब्जा कर रखा है. नेहरु ने वक्फ बोर्ड को शह इसलिए दी कि भारत को मुसलिम राष्ट्र बनाया जा सके. देश हम सनातनियों का है और उन्हीं का रहेगा. देखते जाओ मोदीजी अभी कैसेकैसे कांग्रेसी और वामपंथी कचरा साफ करते हैं. असली हिंदू हो तो इस पोस्ट को कम से कम इतने या उतने लोगों और ग्रुपों में भेजो.

यहां मकसद वक्फ के पचड़े में न पड़ कर यह जताना है कि ऐसे मसलों जिन से किसी को कुछ मिलता जाता नहीं उन के बारे में यह बताना है कि लत कैसे और क्यों पड़ती है. ये चूंकि तर्क नहीं हैं जूनून है इसलिए इन का जवाब देते कांग्रेसियों से देते नहीं बनता. एवज में वे यह बताने बैठ जाते हैं कि मोदीजी कैसेकैसे देश का नुकसान कर रहे हैं. उन का मकसद सिर्फ मुसलमानों को परेशान करना है. इस के बाद दलितों का नम्बर लगेगा. यह `स्क्रीन वार` थमता नहीं है जवाब में भाजपाई अपने दलित प्रेम के किस्सेकहानियां गिनाने लगते हैं. शबरी के बेर वाला प्रसंग इन का प्रमुख हथियार होता है.

इन से इतर भी यह रोग कुछ अलग ढंग से फैला है किसी को पोर्न फिल्मों की लत पड़ चुकी है तो कोई रील बनाने की बीमारी की गिरफ्त में आ चुका है. अपनी रील को वायरल करने के लिए ये तथाकथित क्रिएटर किसी भी हद तक जा सकते हैं. फेसबुक और इंस्टाग्राम पर लड़कियां कूल्हे स्तन और नितम्ब तरहतरह से मटका कर लाइक्स और व्यूज इकट्ठा कर रही हैं. जाहिर है इन का कोई भविष्य नहीं है क्योंकि ये अपने वर्तमान से खिलवाड़ कर उसे बरबाद कर रही हैं.

इस जनून का एक बेहतर उदाहरण राजस्थान के जोधपुर का है जहां मीम्स और रील्स से तंग आ कर ठेले पर भंगार का कारोबार करने वाले रामप्रताप जो भंगार वाले बाबा के नाम से मशहूर हो गए थे. उन्होंने फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली थी. यह मामला दिलचस्प भी है और चिंतनीय भी जो यह बताता है कि सोशल मीडिया के एडिक्ट लोग किस कदर क्रूर और संवेदनहींन होते जा रहे हैं. जब यह बाबा उस पर वीडियो बनाने वालों से परेशान हो कर सरेआम फांसी लगा रहा था तब भी लोग उस के वीडियो ही बना रहे थे जिस से ज्यादा लाइक्स और व्यूज मिलें

सोशल मीडिया को टू वे की तरह इस्तेमाल करने वाले जहां जरूरत हो प्रतिक्रिया भी देते हैं और गलत बात पर एतराज भी जताते हैं. क्योंकि ये किसी के गुलाम नहीं होते और न ही इन का कोई दृश्य अदृश्य बौस होता. ये वाकई में रियल क्रिएटर होते हैं जो सृजन करते हैं तुक की बात करते हैं. क्रिएटर विध्वंसक भी होते हैं जिन्हें मालूम होता है कि उन की बनाई पोस्ट करोड़ों लोगों तक पहुंचेगी. मूर्खो की फ़ौज स्क्रौल करने, टैग और फोरवर्ड करने मंदिर के सामने बैठे भिखारियों की तरह तैयार बैठी है. यह तबका पोस्ट या क्रिएशन के सच झूठ या तथ्यों की जांच नहीं करता. कई बार तो पूरी तरह से पढ़ता भी नहीं, इन्हें देख भेड़ों की ही याद आती है या फिर उस कुए की जिस में भंग पड़ी हो.

इन्हें लताड़ने वाला तो कोई नहीं लेकिन उकसाने और हांकने वाले कम नहीं जिन का एक खास मकसद होता है पर इन का नहीं होता ठीक वैसे ही जैसे दंगाई भीड़ का नहीं होता. यह उन्मादी भीड़ हिंसा और तोड़फोड़ करती है तो सोशल मीडिया वाली भीड़ जानेअनजाने में दंगों का माहौल बनाती है. दोनों ही गुनाह कर रहे हैं लेकिन अपने घरों में बैठे फुरसतियों यानी नशैलों का कुछ नहीं बिगड़ता.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...