Bihar Elections : बिहार के चुनाव पर देशभर की नजर लगी है. कांग्रेस लालू प्रसाद के साथ तालमेल करेगी या फिर उन के साथ केजरीवाल जैसा व्यवहार करेगी?
बिहार विधानसभा के लिए चुनाव होने वाले हैं. लोकसभा चुनाव 2029 के दृष्टिकोण से ये चुनाव देश की राजनीति को बदलने वाले साबित हो सकते हैं. सेहत और राजनीति दोनों हिसाब से नीतीश कुमार अपने सब से कमजोर दौर में हैं. कांग्रेस दिल्ली जैसा फैसला बिहार में लेने की दिशा में आगे बढ़ रही है. पार्टी को मजबूत करने के लिए कांग्रेस ने कर्नाटक के कृष्णा अल्लावुरु को बिहार कांग्रेस का प्रभारी बनाया है. दो दशक से बिहार कांग्रेस लालू प्रसाद यादव के अनुसार चली है. ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि क्या कृष्णा अल्लावुरु लालू प्रसाद यादव के साथ तालमेल बैठा पाएंगे?
बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव 2020 में हुए थे. उस में जदयू और भाजपा व अन्य दलों का गठबंधन था. वह गठबंधन 243 सीटों पर चुनाव लड़ा. उन में से जदयू 115 सीटों पर लड़ा और
43 सीटें जीतीं, भाजपा 110 पर लड़ी जिन में 74 जीतीं, वीआईपी और हम ने मिला कर 18 सीटों पर चुनाव लड़े और वे 8 सीटें जीते.
कुल 243 में से 128 सीटें जीत कर एनडीए ने सरकार बनाई. नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने. उसी चुनाव में कांग्रेस और राजद ने कुल 110 सीटें जीतीं. राजद 144 पर लड़ा और 75 सीटें जीता, कांग्रेस 70 पर लड़ी मगर 19 सीटें ही जीत सकी. राजद खेमे का कहना है कि अगर कांग्रेस बेहतर लड़ी होती तो नतीजे अलग होते. इस नजर से राजद और कांग्रेस के फैसले पर 2025 का विधानसभा चुनाव टिका है.
बिहार से पलटती है राजनीति
देश की राजनीति में उत्तर प्रदेश के बाद सब से प्रमुख चुनाव बिहार के होते हैं. उस से देश की राजनीति का अंदाजा लगाना स्वाभाविक हो जाता है. एक दौर में राजनीतिक और सामाजिक क्रांति बिहार से ही शुरू होती थी. कांग्रेस की सब से मजबूत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का किला ध्वस्त करने का काम जेपी आंदोलन से ही हुआ था, जो बिहार से शुरू हुआ था. 1990 में बिहार ने एससी और ओबीसी की ताकत को एकजुट कर के सामंतशाही को उखाड़ फेंका था. इस के बाद ऊंची जातियों ने ओबीसी और एससी को अलगथलग कर के वापस अपनी सत्ता बना ली.
20 साल से बिहार पर नीतीश कुमार का राज है. शराबबंदी के अलावा उन की कोई उपलब्धि नहीं है. नीतीश के जरिए सत्ता भाजपा के हाथ है. कांग्रेस और राजद वहां एकसाथ हैं. राहुल गांधी की मजबूरी है कि उन के पास ओबीसी के लोग तो हैं पर ओबीसी के बड़े नेता उन के साथ नहीं हैं. जब तक कांग्रेस ओबीसी नेताओं को आगे नहीं लाएगी तब तक वह बिहार में केवल राजद को ही नुकसान करेगी. 2020 के चुनाव में कांग्रेस को गठबंधन की ज्यादा सीटें दी गई थीं जिस के कारण राजद बहुमत के आंकड़ों तक नहीं पहुंच पाई थी.
कांग्रेस में ऊंची जाति के नेता चाहते हैं कि कांग्रेस बिहार में भी दिल्ली की तर्ज पर अपने बल पर चुनाव लड़े, जिस का प्रभाव लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद पर पड़ेगा, वह सत्ता से दूर रह जाएगी. बड़ी संख्या में पिछड़े नेता भाजपा के साथ खड़े हैं. पिछड़ों को देख एससी नेता चिराग पासवान को लगता है कि जब ओबीसी भाजपा से नहीं लड़ पा रहे तो एससी कैसे लड़ेंगे? एससी में जो जागरूकता रामविलास पासवान ने जगाई थी, वह अब खत्म हो गई है.
सामंतशाही के खिलाफ जो लड़ाई लालू प्रसाद यादव ने लड़ी वह नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ मिल कर खत्म कर दी है. कांग्रेस को बहुत समझदारी से अपना फैसला करना होगा, जहां पूरे देश के राज्य आगे बढ़ रहे हैं वहां बिहार अपनी पहचान खोता जा रहा है. पहले बिहार की जो बौद्धिक छवि बनी थी, पिछले 20 सालों में अब वह बदल चुकी है. आज बिहारी के नाम पर लोग उस से बचना चाहते हैं. बिहारी शब्द गरीबी और गुरबत की पहचान बन कर रह गया है. जो सामाजिक बदलाव 1990 से शुरू हुआ वह नीतीश कुमार की पौराणिक नीतियों का शिकार हो कर खत्म हो गया.
बिहार की राजनीति में अगड़ों की ताकत
बिहार की राजनीति में पिछड़ी जातियों की भूमिका को देखने के लिए इस के 2 हिस्से करने होंगे. पहला हिस्सा 1947 से ले कर 1989 तक और दूसरा हिस्सा 1990 से आज तक का है. बिहार में पहले हिस्से की राजनीति में ऊंची जातियों का दबदबा रहा है. बिहार विधानसभा का पहला चुनाव 1952 में हुआ था. श्रीकृष्ण सिंह बिहार के पहले मुख्यमंत्री बने. उस समय बिहार में राजनीति की रणनीति ऊंची जातियों द्वारा तय की जाती थी. उस समय मुख्यमंत्री पद के लिए श्रीकृष्ण सिंह और अनुग्रह नारायण सिन्हा दो प्रबल दावेदार थे. तब कायस्थ लौबी ने श्रीकृष्ण सिंह का साथ दिया जिस से वे मुख्यमंत्री बन गए.
1957 में द्वितीय विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद के लिए अनुग्रह नारायण सिन्हा ने अपनी दावेदारी पेश की. वोटिंग द्वारा मुख्यमंत्री पद के लिए चुनाव हुआ और श्रीकृष्ण सिंह दोबारा मुख्यमंत्री चुन लिए गए. श्रीकृष्ण सिंह भूमिहार जाति से आते थे. इस के बाद राजपूत जाति से दीप नारायण सिंह, ब्राह्मण जाति के विनोदानंद ?ा, कायस्थ जाति के कृष्ण वल्लभ सहाय, महामाया प्रसाद सिन्हा, कुशवाहा जाति के सतीश प्रसाद सिंह, यादव जाति के विंदेश्वरी प्रसाद मंडल, एससी से भोला पासवान शास्त्री, राजपूत जाति के सरदार हरिहर सिंह, यादव जाति के दरोगा प्रसाद राय, नाई जाति के कर्पूरी ठाकुर, ब्राह्मण जाति के केदार पांडेय, मुसलिम समुदाय से अब्दुल गफूर, ब्राह्मण जग्गनाथ मिश्रा, एससी रामसुंदर दास, राजपूत जाति के चंद्रशेखर सिंह, ब्राह्मण जाति के विंदेश्वरी दूबे, भागवत झा आजाद और राजपूत सत्येंद्र नारायण सिंह बिहार के मुख्यमंत्री बने.
1952 से 1989 तक 14 बार उच्च जाति, 5 बार ओबीसी और 4 बार एससी और 1 बार मुसलिम जाति के नेता बिहार के मुख्यमंत्री बने. ऊंची जातियों के कई नेता 2 से
3 बार मुख्यमंत्री रहे हैं. भले ही 10 बार ओबीसी, एससी और मुसलिम मुख्यमंत्री रहे हों पर बिहार की राजनीति में ऊंची जातियों का वर्चस्व कायम रहा है. ऊंची जातियों के नेता ही बिहार की राजनीति की बागडोर अपने हाथों में रखे रहे.
इस दौर में एससी और ओबीसी जातियों के नेता भी मुख्यमंत्री बने लेकिन न तो वे अपने जाति के लोगों को संगठित कर सके, न ही जातिगत वर्चस्व स्थापित कर सके और न ही बिहार स्तर पर अपनी छवि को उभार सके. वे ऊंची जातियों के नेताओं की कठपुतली बन कर ही रह गए. इस का मुख्य कारण था कि उस समय ओबीसी व एससी जातियों की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक हालत बेहद पिछड़ी थी.
पिछड़े वर्ग की प्रमुख जातियों में यादव, कोइरी और कुर्मी थे, जो पूरी तरह से खेती पर निर्भर थे. जिस के कारण पिछड़ी जातियां चाह कर भी उभर नहीं पाईं. बिहार में पहली बार पिछड़ी कुशवाहा जाति के सतीश प्रसाद सिंह कार्यकारी मुख्यमंत्री बने थे. उस के बाद 1968 में पिछड़ी जाति के विंदेश्वरी प्रसाद मंडल मुख्यमंत्री बने. वे भी कम समय के लिए ही बने. उस के बाद 1970 में यादव जाति के दरोगा प्रसाद राय मुख्यमंत्री बने. वे 16 फरवरी, 1970 से 22 दिसंबर, 1970 तक मुख्यमंत्री रहे.
कर्पूरी ठाकुर ने जगाई ओबीसी राजनीति
1970 में नाई जाति के कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने. वे 22 दिसंबर, 1970 से 2 जून, 1971 तथा 24 जून 1977 से 21 अप्रैल, 1979 तक 2 बार मुख्यमंत्री रहे. बिहार में एससी जाति से सब से पहले मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्री बने. वे 23 मार्च, 1968 से 29 जून, 1968 तक, 22 जून, 1969 से 4 जुलाई, 1969 तक तथा 2 जून, 1971 से 9 जनवरी, 1972 तक 3 बार मुख्यमंत्री और कार्यकारी मुख्यमंत्री रहे. उस के बाद एससी जाति से रामसुंदर दास मुख्यमंत्री बने. वे अप्रैल 1979 से 17 फरवरी, 1980 तक मुख्यमंत्री रहे.
बिहार की राजनीति उथलपुथल से भरी रही. श्रीकृष्ण सिंह के बाद 1989 तक कोई भी मुख्यमंत्री अपना 5 साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया. उस कालखंड में बिहार की राजनीति को देखें तो एससी और ओबीसी मुख्यमंत्रियों का कार्यकाल बेहद कम रहा है. उन को कभी अपना कार्यकाल पूरा ही नहीं करने दिया गया. इस के उलट, ऊंची जातियों के मुख्यमंत्रियों श्रीकृष्ण सिंह, दीप नारायण सिंह, विनोदानंद झा, कृष्ण वल्लभ सहाय, महामाया प्रसाद सिंह, सरदार हरिहर सिंह, केदार पांडेय, जग्गनाथ मिश्र, चंद्रशेखर सिंह, विंदेश्वरी दूबे, भागवत झा आजाद, सत्येंद्र नारायण सिंह में से कई नेताओं को जितना समय मिला था, उसे पूरा किया था.
बिहार में वर्ष 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी. जनता पार्टी के विधायक दल के नेता कर्पूरी ठाकुर चुने गए. वे बिहार के मुख्यमंत्री बने.
1978 में केंद्र सरकार ने पिछड़ी जातियों के आरक्षण के लिए बिहार के ही बीपी मंडल की अध्यक्षता में मंडल कमीशन की नियुक्ति की. इस समय तक बिहार में जयप्रकाश नारायण ने जाति छोड़ो अभियान शुरू कर दिया था. अब ऊंची जातियों को खतरा महसूस होने लगा था. 1980 में मंडल कमीशन ने अपनी रिपोर्ट दी तब तक केंद्र में सरकार बदल चुकी थी. 1980 में कांग्रेस केंद्र में सरकार बना चुकी थी. मंडल कमीशन की रिपोर्ट को 1990 तक ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. 1989 में जनता दल की सरकार बनी तब प्रधानमंत्री बने विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू किया.
लालू प्रसाद यादव ने तोड़ा सामंती ढांचा
कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़ी जातियों को आगे बढ़ाने का काम किया था. 1990 के दशक से बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव का प्रभाव बढ़ना शुरू हुआ. नीतीश कुमार ने लालू के साथ ही अपनी राजनीति शुरू की थी. लालू यादव और नीतीश कुमार दोनों ही जेपी आंदोलन की उपज हैं. दोनों छात्र राजनीति से चुनावी राजनीति में आए. 1990 से ले कर आज तक बिहार की राजनीति इन्हीं दोनों के ही इर्दगिर्द घूम रही है. 1990 में लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री बन गए. इस में भी अगड़ेपिछड़ों का संघर्ष देखने को मिला.
बिहार में कांग्रेस की राजनीति को चुनौती जेपी आंदोलन से ही मिली थी और इसी आंदोलन ने लालू प्रसाद यादव को बड़ा नेता भी बनाया. लालू यादव 1977 में लोकसभा सांसद का चुनाव जीत गए थे. 1989 में बिहार के भागलुपर में दंगों के बाद बिहार से कांग्रेस की सत्ता का अंत हुआ.
1990 में लालू यादव जनता दल से बिहार के मुख्यमंत्री बने. वे कोई डमी मुख्यमंत्री नहीं थे. लालू राज से ही बिहार में ऊंची जातियों का वर्चस्व खत्म होने लगा. लालू यादव केवल बिहार ही नहीं, देश की राजनीति में भी अपना प्रभाव बढ़ा चुके थे. इंदर कुमार गुजराल और देवगौड़ा को प्रधानमंत्री बनाने में सब से बड़ा योगदान लालू प्रसाद का था.
यह बात कांग्रेस को हजम नहीं हो रही थी. इस के बाद लालू प्रसाद यादव को चारा घोटाला और दूसरे कई आरोपों में घेर दिया गया. उन के पीछे सीबीआई लगा दी गई. लालू को जेल जाना पड़ा. तब लालू प्रसाद यादव ने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना दिया. लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार अच्छे साथी थे.
नीतीश कुमार लालू यादव की तरक्की में ही अपनी तरक्की सम?ाते थे. पुराने समाजवादी नेता लालू और नीतीश को जगह देने के लिए तैयार नहीं थे. नीतीश कुमार जिस कुर्मी जाति के हैं उस की तादाद बिहार में कम है जबकि यादव 18 फीसदी हैं. नीतीश कुमार को लगता था कि उन्होंने लालू को सीएम बनाने में जिस तरह की मदद की, उस के बाद लालू उन की हर बात सुनेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और दोनों की राह अलग हो गई. नीतीश कुमार पहली बार विधानसभा का चुनाव 1985 में जीते. लालू नीतीश से बड़े नेता बन चुके थे.
नीतीश कुमार अपनी अलग राह देखने लगे थे. दूसरी तरफ ऊंची जातियां लालू और नीतीश को अलग करना चाहती थीं. 1994 में नीतीश कुमार ने जौर्ज फर्नांडिस के साथ मिल कर समता पार्टी बनाई और 1995 के बिहार विधानसभा चुनाव में लालू यादव और नीतीश कुमार अलग हो गए. इस चुनाव में नीतीश कुमार कुछ खास नहीं कर पाए. समता पार्टी केवल 7 सीटों तक ही सीमित रही. लालू यादव एक बार फिर राज्य के मुख्यमंत्री बने.
अगड़ों के पैरोकार बने नीतीश कुमार
1995 के विधानसभा चुनाव में हार के बाद नीतीश कुमार को लगा कि वे बिहार में लालू यादव से अकेले नहीं लड़ सकते जिस के कारण 1996 के लोकसभा चुनाव में नीतीश ने भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन कर लिया. वे उसी पार्टी के साथ आ गए जिसे कभी वे मंदिर आंदोलन के दौरान आड़े हाथों लेते थे और सांप्रदायिक पार्टी बताते थे.
2000 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार और बीजेपी को 121 सीटों पर कामयाबी मिली. नीतीश कुमार बिना बहुमत के मुख्यमंत्री बने. अक्तूबर 2005 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 55 और जनता दल यूनाइटेड को 88 सीटों पर जीत मिली और पूर्ण बहुमत के साथ गठबंधन की सरकार बनी. इस के बाद से नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री हैं.
2010 और 2015 के विधानसभा चुनाव में भी नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने. इस बीच नीतीश कुमार ने भाजपा का साथ छोड़ा. फिर वे लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद के सहयोग से मुख्यमंत्री बने. इस के बाद राजद का साथ छोड़ कर वापस भाजपा के साथ आए. अब 2025 में नीतीश कुमार क्या पलटी मारेंगे, यह पता नहीं है.
1990 के बाद बिहार में राजनीति की बागडोर पिछड़ी जाति के नेताओं के हाथों में रही है. नीतीश कुमार ने भाजपा से हाथ मिला कर बिहार में ऊंची जातियों के वर्चस्व को वापस ला दिया. नीतीश कुमार ने सब से लंबे समय तक बिहार में मुख्यमंत्री बनने का रिकौर्ड बनाया. इस के बाद भी बिहार के लिए वे कुछ खास कर नहीं पाए. 20 साल से बिहार के मुख्यमंत्री होने के बाद भी वे बिहार को कुछ नहीं दे पाए. नीतीश कुमार के चलते ही बिहार में सामंती राजनीति ने अपना प्रभाव वापस स्थापित कर लिया है.
बिहार में क्या करेगी कांग्रेस
सत्ता हासिल करने के लिए क्षेत्रीय दलों और कांग्रेस को मिलजुल कर चलना होगा, जैसे कांग्रेस से लड़ने के लिए भारतीय जनता पार्टी ने 13 दलों को मिला कर एनडीए तैयार किया था. दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के आमनेसामने चुनाव लड़ने से भाजपा को 27 साल के बाद सरकार बनाने का मौका मिला. कांग्रेस में एक गुट यह कहता है कि पार्टी को अपने बलबूते प्रदेशों में चुनाव लड़ना चाहिए. क्षेत्रीय दलों की बैसाखी छोड़ देनी चाहिए. दूसरे गुट का कहना है कि भाजपा को रोकने के लिए क्षेत्रीय दलों को साथ लेना जरूरी है नहीं तो भाजपा ताकतवर हो जाएगी.
गुजरात में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा कि आधी गुजरात कांग्रेस वैचारिक रूप से भाजपाई मानसिकता की हो गई है. असल में यह बात पूरे देश पर लागू होती है. यह केवल आज की बात नहीं है. कांग्रेस अपने जन्म के समय से ही 2 तरह के विचारों से घिरी रही है. राहुल की कांग्रेस भी इस का अपवाद नहीं है. कांग्रेस के ‘थिंक टैंक’ के लोग कभी राहुल गांधी को मंदिरमंदिर भटकने के लिए तैयार करते हैं तो कभी उन को कुंभ स्नान करने और राममंदिर जाने से रोकते हैं. परेशानी इस बात की है कि राहुल गांधी अपनी खुद की स्पष्ट सोच नहीं बना पा रहे.
अब राहुल गांधी को तय करना है कि वे क्षेत्रीय दलों के साथ चलेंगे या अलग. राहुल गांधी के फैसले चुनाव के समय आते हैं. उस से पार्टी को लाभ नहीं होता है. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस लोकसभा चुनाव में साथ थे. विधानसभा उपचुनाव में अलगअलग हो गए. बिहार में कांग्रेस ने अपना नया ढांचा तैयार करना शुरू किया है. इस से कांग्रेस के सहयोगी राजद को दिक्कत है. बिहार में 2025 के विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. कांग्रेस और राजद के बीच अभी कोई रणनीति तैयार नहीं की गई.
राहुल गांधी ने कृष्णा अल्लावुरु को बिहार कांग्रेस का नया प्रभारी बनाया है. अभी तक कांग्रेस का जो भी बड़ा पदाधिकारी बिहार में बनता था वह राजद नेता लालू यादव से मिलने जाता था. कृष्णा अल्लावुरु के मामले में ऐसा नहीं हुआ. कर्नाटक के रहने वाले कृष्णा अल्लावुरु बिहार को कितना समझते हैं, यह समय आने पर पता चलेगा.
कृष्णा अल्लावुरु के लालू यादव से कैसे संबंध रहते हैं, इस बात पर कांग्रेस और राजद का चुनावी गठबंधन निर्भर करेगा. अभी बिहार विधानसभा के चुनाव होने में 6 माह का समय बाकी है. ऐसे में दोनों दलों के बीच की रणनीति साफ होनी चाहिए. कृष्णा अल्लावुरु के सामने कांग्रेस को एकजुट करने की बड़ी चुनौती है. कांग्रेस के कई नेता राजद, लालू और तेजस्वी के समर्थक माने जाते हैं. पिछले 20 सालों से आलाकमान ने बिहार कांग्रेस की कमान लगभग राजद के हाथों में ही छोड़ रखी है.
दिल्ली चुनाव के बाद राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे नई रणनीति पर काम कर रहे हैं. नए नेताओं को पार्टी की कमान सौंपी जा रही है. कृष्णा अल्लावुरु, अलका लांबा और कन्हैया कुमार जैसे नेता बिहार विधानसभा चुनाव को ले कर पार्टी की संभावनाओं को देख रहे हैं. वे पार्टी कार्यकर्ताओं से मिल रहे हैं. अल्लावुरु नेताओं को यह समझना चाहते हैं कि सभी नेता पार्टीलाइन पर चलें और एकजुट हो कर काम करें.
पिछले दो दशकों में बिहार कांग्रेस में महासचिव और प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए लालू प्रसाद यादव की सहमति जरूरी होती थी. यहां तक कि विधानसभा और लोकसभा चुनाव के टिकट भी राजद के इशारे पर ही बंटते थे. पप्पू यादव और कन्हैया कुमार इस का बड़ा उदाहरण हैं. लालू के विरोध को दरकिनार कर कांग्रेस चाह कर भी पप्पू यादव को पूर्णिया और कन्हैया कुमार को बेगूसराय से चुनाव नहीं लड़ा पाई थी.
दिल्ली चुनाव के नतीजों के बाद कांग्रेस नई रणनीति पर चल रही है. जैसेजैसे विधानसभा चुनाव करीब आएंगे, टिकट के बंटवारे होंगे, वैसेवैसे साफ होगा कि कांग्रेस क्या करती है. कृष्णा अल्लावुरु राहुल गांधी के करीबी हैं और युवा कांग्रेस के प्रभारी भी हैं. वे बिहार कांग्रेस के इंचार्ज भी हैं. कृष्णा अल्लावुरु अपने तरीके से काम करते हैं. उन की नियुक्ति को कांग्रेस का बड़ा दावं माना जा रहा है. इस से पार्टी कार्यकर्ताओं को संदेश गया है कि कांग्रेस युवाओं को आगे बढ़ाना चाहती है. कांग्रेस को उम्मीद है कि कृष्णा अल्लावुरु बिहार में पार्टी को मजबूत करेंगे. बिहार में कांग्रेस की स्थिति कमजोर है. ऐसे में कृष्णा अल्लावुरु के सामने बड़ी चुनौती है. वे इस चुनौती से कैसे निबटते हैं, यह बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे बताएंगे.