EX Prime Minister : पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की मृत्यु पर जिस तरह मोदी सरकार ने मौत पर भी राजनीति की है वह उन की पौराणिकता को दर्शाती है. हमारे यहां जन्म से ज्यादा मौत को बदला लेने का हथियार माना गया है. मृत्यु के कर्मकांडों में तरहतरह के विघ्न डाले जाते रहे हैं ताकि यह कहा जा सके कि सद्गति नहीं मिली तो आत्मा भटकती रहेगी और सद्गति अगर पानी है तो वह करो जो पंडितों का समाज कहता है. मनमोहन सिंह का प्रधानमंत्रित्व काल और वित्त मंत्री के तौर पर 1991 से 1996 का समय अभूतपूर्व रहे हैं. मनमोहन सिंह ने जिस तरह यूपीए गठबंधन को 10 साल बांधे रखा और एक शिखंडी की सहायता से उन की सरकार पर तरहतरह के आरोप लगाए गए (जिन में से एक भी 11 सालों में साबित हुआ ही नहीं) पर तब भी मनमोहन सिंह विचलित नहीं हुए, यह अचंभा था. सीधेसादे, मृदुभावी सरदार मनमोहन सिंह न केवल अर्थशास्त्री थे बल्कि वे लगभग सर्वज्ञाता थे और बहुत से ऐसे मामले जानते थे जिन के बारे में एक आम प्रधानमंत्री को जानना आवश्यक नहीं है.

उन की मृत्यु वृद्धावस्था के कारण हुई. जब वे राजनीति से रिटायर हो चुके थे तो यह कहना गलत होगा कि भारत ने एक कोहेनूर खो दिया है पर जब तक वे प्रधानमंत्री थे वे एक कोहेनूर से ज्यादा कीमती थे और पिछले 11 सालों का अलगाव, तनाव, बढ़ता भेदभाव, बढ़ती शंका इस बात का सुबूत है कि कम सांसदों के वावजूद उन्होंने वह किया जो अधिक सांसदों वाली सरकारें नहीं कर सकीं.

1993 में किए गए बाबरी मसजिद के विध्वंस और 2002 में हुए गुजरात के दंगों, 2001 में अमेरिका के न्यूयौर्क पर किए गए आतंकी हमले के बाद का हमारे पड़ोस इराक, लीबिया, अफगानिस्तान पर कब्जा, 2008 का वैश्विक आर्थिक संकट और इंफोटैक कंपनियों की बढ़ती ताकत के बावजूद आम नागरिक अपने हकों के बारे में उन के काल में ज्यादा आश्वस्त रहा बजाय आज के कि जब वह एक भारी संख्या के सांसदों वाली मजबूत कई राज्यों में एक पार्टी वाली सरकारों के माहौल में है.

आज हर रोज भय बना रहता है. मनमोहन सिंह की सरकार के दिनों में जनता खतरे में कभी नहीं थी, सरकार चाहे खतरे में रही हो क्योंकि कांग्रेस के पास अपना बहुमत नहीं था और उस ने दूसरे दलों के साथ मिल कर चुनाव नहीं लड़ा था. फिर भी मनमोहन सिंह ने संसद में, देशभर में, विश्वभर में कभी यह एहसास नहीं होने दिया कि उन की सरकार ढुलमुल है.

ऐसे प्रधानमंत्री के अंतिम दिन राजनीति करना असल में देश के पंडितों का सदियों पुराना तौरतरीका रहा है और मृत्यु को हमेशा अपने हिसाबकिताब निकालने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है.

मोदी सरकार ने जैसा भी सम्मान दिया उस पर अगर सवाल उठ रहे हैं तो यह हमारी संस्कृति ही है. यह ही हमारे संस्कार हैं, यह ही हमारे पूर्वज सिखा गए हैं. इस पर आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है कि मरने वाले महान व्यक्ति को आदर देते समय अड़ंगा डाले गए.

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