Marriage Goal : भले ही इंटरस्टेट मैरिज का विरोध होता हो लेकिन आज के दौर में ज्यादातर ऐसी शादियां सफल होते दिख रहीं हैं. यह समाज में आ रहा एक छोटा सा ही सही सुखद बदलाव है जिस के सामने कट्टरवाद और सामाजिक धार्मिक पूर्वाग्रह अपने घुटने टेकते नजर आ रहे हैं.

साल 1981 में प्रदर्शित फिल्म ‘एक दूजे के लिए’ वक्त से पहले बन गई फिल्म थी जिस ने एक संवेदनशील सामाजिक समस्या के प्रति आगाह किया था. आज के युवाओं ने सुना भर है कि हां ऐसी कोई फिल्म सालों पहले बनी थी जिस में एक दक्षिण भारतीय युवक और एक हिंदी भाषी युवती एकदूसरे से प्यार कर बैठते हैं. लेकिन उसे अपनी मंजिल तक पहुंचाने के पहले ही आत्महत्या कर लेते हैं.
उन की राह में परिवार, समाज और धर्म इतने जहरीले कांटे बो देता है कि नायिका सपना और नायक बासु रूढ़ियों, रीतिरिवाजों और अपनों की ही साजिश का मुकाबला नहीं कर पाते.मौजूदा दौर का युवा एकदूजे के लिए दुखद और अवसादपूर्ण द एंड से इत्तफाक नहीं रखता क्योंकि वह लड़ना और लड़ कर जीतना जानता है. अब हर साल लाखों शादियां ऐसी होने लगी हैं जिन्हें इंटरस्टेट कहा जाता है. इन शादियों में दूल्हा या दुल्हन में से कोई एक दक्षिण या उत्तर भारत का होता है. इन्हें छिप कर प्यार करने और मिलनेजुलने की जरूरत नहीं पड़ती और न ही लंबे वक्त तक दुनिया या घर वालों से प्यार छिपाने की कोई मजबूरी होती.
यह समाज में आ रहा एक छोटा सा ही सही सुखद बदलाव है जिस के सामने कट्टरवाद और सामाजिक धार्मिक पूर्वाग्रह असहाय नजर आने लगे हैं. देश में पिछले 4 – 5 दशकों में जो भारी बदलाव आए हैं उन में से एक है युवाओं का रोजगार के लिए दूसरे राज्यों में जाना. अव्वल तो देश के कोनेकोने से युवा इधरउधर जा रहे हैं लेकिन दक्षिणी राज्यों में हिंदी भाषी राज्यों के युवाओं की भरमार है जो किसी न किसी सौफ्टवेयर या कम्प्यूटर से ताल्लुक रखती दूसरी कंपनी में नौकरी कर रहे हैं.

एक कहानी आज के सपना और बासु की

बड़ीबड़ी आंखों वाली 26 वर्षीय रुक्मणी ( बदला हुआ नाम) सांवली लेकिन आकर्षक युवती है. तीखे नैननक्श वाली यह युवती कट्टर और परंपरावादी एक हद तक रूढ़िवादी तमिल ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखती है. चैन्नई से करीब 250 किलोमीटर दूर एक कसबे की रुक्मणी को एमसीए का कोर्स करने के बाद ही एक अच्छी कंपनी में नौकरी मिल गई तो वह चैन्नई में किराए के मकान में सहेलियों के साथ रहने लगी.
यहां उस की मुलाकात अपनी ही कंपनी के अक्षत (बदला नाम) से हुई जो मध्य प्रदेश के इंदौर का रहने वाला है. खातेपीते कायस्थ परिवार का अक्षत भी मिलनसार स्मार्ट और हंसमुख है. उस का परिवार रुक्मणी के परिवार जितना रूढ़िवादी भले ही न हो लेकिन बहुत ज्यादा उदार भी नहीं कहा जा सकता.
दोनों हर कभी मिलने लगे और मिलतेमिलते ही कब प्यार में पड़ गए इस का एहसास उन्हें तब हुआ जब वे शादी के बारे में सोचने लगे. इस के पहले उन्होंने रोमांस के संविधान के पूरे सिलेबस पर अमल किया जिस में गिफ्ट्स का आदानप्रदान, सोशल मीडिया पर खतोकिताबत शेरों शायरी, आंहे, बाहें, सांसे, जुदाईमिलन और कसमें वादे जैसे चैप्टर शामिल थे.
2 साल एक दूसरे को डेट करतेकरते उन्हें समझ आ गया था कि वाकई में दोनों एकदूसरे के लिए ही बने हैं. लिहाजा उन्होंने तय कर लिया कि शादी कर लेते हैं. लेकिन यह चैन्नई के किसी कैफे में हौट चौकलेट पी लेने, डोसा खा लेने या एक्सप्रेस एवेन्यू मौल में घंटो हाथों में हाथ डाले घूमते रहने जैसा आसान काम नहीं था. इन्होंने इसे आसान बनाने के लिए क्याक्या नहीं किया और कैसे एक दूजे के सपना और बासु के दुखद अंत को धता बताते सुखद अंत में बदला इसे उन की जुबानी जाननेसुनने से पहले फिल्म एक दूजे का जिक्र अहम है जो यह बताता है कि 4 – 5 दशकों बाद युवा कितने आत्मविश्वासी और जुझारू हो गए हैं.

सक्‍सेसफुल इंटरस्‍टेट मैरिज

कहानी गोवा की है जहां एक तमिल और एक हिंदी भाषी परिवार पड़ोसी हैं. तमिल युवक बासु (कमल हासन) को हिंदी भाषी सपना (रति अग्निहोत्री) से प्यार हो जाता है और जैसा कि आमतौर पर होता है प्यार में पड़े युवा अकसर यह भूल जाते हैं कि उन की एक फैमिली और उस का एक बैकग्राउंड भी है जिस में पेरैंट्स को अपने बच्चों से ज्यादा प्रिय और प्यारे उन की सामाजिक प्रतिष्ठा, धर्म, जाति और रीति रिवाज होते हैं. इन खोखले उसूलों पर वे अपनी संतानों की बलि चढ़ाने से भी नहीं चूकते.
निर्देशक के बालाचंदर युवाओं का यह द्वंद उकरेने में बेहद कामयाब रहे थे कि जब दो अलगअलग प्रांतों के युवाओं को प्यार हो जाता है तो उन्हें कैसीकैसी दुश्वारियों का सामना करना पड़ता है. दोनों के परिवार जब विकट के पूजापाठी हों तो ये दुश्वारियां चुनौतियों और इम्तिहान में तब्दील हो जाती हैं.
क्षेत्र, भाषा, खानपान और पहनावे वगैरह के बैरियर तो कदमकदम पर अड़े ही रहते हैं लेकिन सगे मांबाप तक की कोशिश युवाओं को हताश करने की होती है. सपना और बासु इन के छलकपट और साजिशों के आगे घुटने टेकने को मजबूर हो जाते हैं और आखिर में समुद्र किनारे की रेत पर अपने नाम और आई लव यू लिख कर खुदकुशी कर लेते हैं. समुद्र की लहरें उन का लिखा बहा कर अपने साथ ले जाती हैं. विषय अनूठा दिलचस्प और वास्तविकता के नजदीक होने के चलते 80 के दशक के युवाओं ने हालांकि बारबार यह फिल्म देखी थी. लेकिन इस का अंत उन्हें रास नहीं आया था. वे चाहते थे कि जैसे भी हो सपना और बासु की लव स्टोरी सक्सेसफुल दिखाई जाती तो यह एक बेहतर प्रोत्साहन युवाओं के नजरिए से होता. तब फिल्म में भले ही न हुआ हो लेकिन अब हकीकत में प्रेमी जोड़े कामयाब हो रहे हैं तो इस की अपनी वजहें भी हैं जिन्हें रुक्मणी और अक्षत की लव स्टोरी से आसानी से समझा जा सकता है.

इन दोनों की बातों से साफ लगता है कि अगर यह लड़ाई थी तो उतनी आसान भी नहीं थी जितनी कि आजकल का तथाकथित खुला और उदार माहौल देख कर लगती है. यह ठीक है कि अब चुनौतियां बाहर और बाहरी लोगों से कम खुद के अंदर से ज्यादा मिलती हैं.

प्यार से बड़ा कुछ नहीं

रुक्मणी बताती है कि हमें एक पल को लगता था कि मम्मीपापा आसानी से मान जाएंगे लेकिन दूसरे ही पल यह खटका भी दिमाग पर कब्जा कर लेता था कि वे आसानी तो क्या मुश्किल से भी नहीं मानने वाले. खासतौर से मेरे मम्मीपापा जिन के लिए उन का ब्राह्मणत्व किसी भी उपलब्धि से ज्यादा अहम था.
यही हाल अक्षत का भी था, लेकिन उस के मन में एक उम्मीद भी थी क्योंकि उन के खानदान में एक लव मैरिज हो चुकी थी. यह और बात है कि उस शादी को कोई 10 साल बाद भी पारिवारिक मान्यता नहीं मिली है और शादी करने वाले अभी भी बहिष्कृत सा जीवन जी रहे हैं. फिर भी यह अंधेरे में टिमटिमाते दिए से रात काटने जैसी बात तो थी, अक्षत कहता है, ‘मैं भी बहुत श्योर नहीं था क्योंकि छोटी बहन की कालेज की पढ़ाई पूरी होने को थी और मेरे इस फैसले को उस की शादी में रोड़ा ही माना जाता.’

कई बार तो दिल में आया कि हम किसी को बताएं ही क्यों, चुपचाप कोर्ट मैरिज कर चैन और सुकून से क्यों न रहें बाद में जो होगा देखा जाएगा. घर वाले ज्यादा से ज्यादा हमें बहिष्कृत ही तो करेंगे. इस बाबत हम अपने आसपास के उदाहरणों को देखा करते थे कि देखो उन्होंने भी तो यही किया था और कुछ नहीं हुआ धीरेधीरे सब ठीक हो जाता है.
लेकिन यह ख्याल ज्यादा नहीं टिक पाता था, दोनों एकसाथ बताते हैं, ‘क्योंकि हम पेरैंट्स और परिवार को उतना ही चाहते हैं जितना कि वे हमे चाहते हैं. अकसर हम सपना सा देखा करते थे कि पेरैंट्स राजीखुशी मान गए हैं और हमारी शादी चैन्नई या इंदौर में धूमधाम से हो रही है. जब यह सपना टूटता था तो लगता यह भी था कि छोड़ो ये प्यारव्यार जज्बात वगैरह और जैसे परिवार और समाज चाहे वैसे ही रहें.
‘इस में भी हर्ज क्या है आखिर कहीं और शादी कर लेने से हमारा प्यार मर तो नहीं जाएगा.’ इन क्षणों में दोनों यूट्यूब पर एक पुराना गाना भी अकसर सुनने लगे थे- ‘छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए ये मुनासिब नहीं आदमी के लिए…प्यार से भी जरूरी कई काम हैं प्यार सब कुछ नहीं आदमी के लिए.’
लेकिन कुछ दिनों के द्वंद और उलझन के बाद यह ज्ञान प्राप्त हो गया कि प्यार ही सब कुछ है तो दोनों ने तय कर लिया कि पहले अपना पक्ष तो रखें फिर घर वालों का रिएक्शन देख आगे का तय करेंगे. दोनों ने अपनेअपने तरीके से मन की बात कही तो फिल्मों जितना भूचाल तो नहीं मचा लेकिन दोनों के घरवालों की त्योरियां जरुर चढ़ गईं. खासतौर से रुक्मणी उस वक्त दिक्कत और उलझन में पड़ गई जब पापा ने यह पूछ डाला कि क्या कायस्थ हम तमिल, ब्राह्मणों से बड़े और श्रेष्ठ होते हैं.
यह एक जटिल सवाल था जिस का जवाब मेरे पास नहीं था रुक्मणी उत्साहपूर्वक बताती है ‘लेकिन मुझे जाने क्यों लगा था कि इस सवाल के बहाने पापा सहमति की तरफ बढ़ रहे हैं आखिर उन्हें भी तो अपने कट्टर और रूढ़िवादी समाज का सामना करने के लिए कोई प्वाइंट चाहिए था. मैं ने हिम्मत करते मम्मी के जरिए जवाब भेजा कि ब्राह्मण कायस्थ की श्रेष्ठता के पैरामीटर तो मुझे पता नहीं लेकिन मेरे लिए अक्षत से ज्यादा श्रेष्ठ कोई और लड़का नहीं. अनजाने में मुंह से निकले इस जवाब ने स्वयंवर जैसा काम किया और मम्मीपापा इंदौर जा कर अक्षत के पेरैंट्स से मिलने के लिए तैयार हो गए.’
‘उधर मेरे मम्मीपापा का भी यही हाल था’ अक्षत कहता है, ‘साउथ को ले कर वे आशंकित तो थे ही कि वे लोग अपने सिद्धांतों के प्रति बेहद कट्टर होते हैं लेकिन इस से भी ज्यादा दिक्कत वाली बात उन का यह सोचना था कि इन अन्ना लोगों ने हमारे सीधेसादे लड़के को फंसा लिया है. चूंकि शादी के बाद उसे चैन्नई में ही रहना है इसलिए कल को वह लुंगी कुर्ता में नजर न आने लगे. पोहे, समोसे, कचौरी और रोटीसब्जी छोड़ इडलीडोसा, बड़ासांभर और चावल ही न खाने लगे वह भी केले के पत्ते पर रख कर.’

ऐसे टूटी बेड़ियां

लेकिन यह असल बात नहीं थी. असल बात थी मन में बंधी सदियों पुरानी धार्मिक जकड़न और गठाने जिन्हें खोलने नई रोशनी की जरूरत थी. दोनों के पेरैंट्स मिले और अखाड़े के पहलवानों की तरह एकदूसरे को परखा. कई दौर मीटिंगों के चले जिन में कई बार ही बात बनतेबनते बिगड़ती नजर आती तो अक्षत और रुक्मणी की सांस हलक में ही रुकने लगती. मुद्दा रीतिरिवाज और विवाह स्थल का था लेकिन इस में परोक्ष रूप से लेनदेन और खर्चे भी शामिल थे कि कौन कितना करेगा. इन दोनों प्रेमियों को यह गलत नहीं लग रहा था कि वे धीरेधीरे ही सही जीत की तरफ बढ़ रहे हैं.
चार दौर की मीटिंगों में दोनों पक्ष खुद को दूसरे से श्रेष्ठ साबित करने में जुटे रहे थे और इस के लिए वे तरहतरह के पौराणिक रिफरेन्स और सहीगलत दलीलें भी दे रहे थे. ऐसे मौकों पर माहौल तनावपूर्ण हो जाता था जबकि रुक्मणी और अक्षत की निगाह में ये बातें फिजूल थीं. रीतिरिवाजों, जातियों, धर्म और परंपराओं की जो दीवारें खड़ी करने की कोशिश उन के पेरैंट्स कर रहे थे उन्हें तोड़ कर ही तो वे प्यार कर पाए थे लेकिन यह बात उन के पेरैंट्स शायद समझते हुए भी समझना नहीं चाह रहे थे कि हरेक प्यार शारीरिक आकर्षण महज नहीं होता. उस के आगे भी बहुत कुछ है जिसे शब्दों तो दूर भावनाओं के जरिए भी व्यक्त नहीं किया जा सकता.
बहुत सी जगह दोनों पक्ष अड़े और झुके भी, लेकिन इस दौरान जो शंकाएं, धारणाएं और कुंठाएं भी उन के दिलोदिमाग में उत्तरदक्षिण को ले कर थीं वे एक हद तक दूर हो चली थीं. सब से बड़ी समस्या भाषा की थी जिसे अंगरेजी हल कर रही थी जिसे दोनों ही पक्ष जानतेसमझते और बोलते थे.
छहसात महीने में स्पष्ट हो गया था कि दोनों के पेरैंट्स लगभग राजी हो चुके हैं लेकिन आखिर में बात इस जिद पर आ कर अड़ गई कि शादी इंदौर में हो या चैन्नई में हो. अक्षत के मातापिता की जिद यह थी कि वे लोग इंदौर आ कर शादी करें जबकि रुक्मणी के मांबाप चाहते थे कि शादी उन के कसबे से हो. यानी बारात इंदौर से चैन्नई होते उन के कसबे में पहुंचे.
अपनीअपनी बात कह कर जो कि एक तरह से फैसला ही था दोनों के पेरैंट्स खामोश हो गए तो आफत फिर इन दोनों की हो आई कि अब क्या करें. दोनों ने कुछ कौमन दोस्तों को परेशानी बताई तो एक तजुर्बेकार ने हल भी बता दिया कि आमतौर पर शादी लड़की के घर से होती है लेकिन चूंकि इंदौर से चैन्नई की दूरी कोई 1444 किलोमीटर है और वहां से रुक्मणी का कस्बा 250 किलोमीटर दूर है.
इसलिए शादी चैन्नई में होना ही ठीक रहेगी और बारात के आनेजाने का खर्च रुक्मणी या फिर उस के पेरैंट्स उठाएंगे. हिंदी भाषी राज्यों में भी यही होता है. यानी असल मुद्दा इंदौर चैन्नई लगभग 45 लोगों के आनेजाने का किराया तकरीबन 3 लाख रुपए था जिसे रुक्मणी के पिता ने उठाना स्वीकार कर लिया क्योंकि उन से दहेज नहीं मांगा जा रहा था.

कुछ और हकीकतें

जाहिर है रुक्मणी के पिता तमिल ब्राह्मण समुदाय का वर खोजते तो उन्हें तगड़ा दहेज देना पड़ता. तब यह दलील कोई माने नहीं रखती कि हमारी बेटी भी डेढ़ लाख रुपए कमाती है जो शादी के बाद ससुराल का होने लगेगा. पूरा दक्षिण भारत कुछ सालों से एक अजीब सी परेशानी से जूझ रहा है जिस के बारे में न रुक्मणी ज्यादा जानती और न ही अक्षत जानता. समस्या यह है कि तमिल ब्राह्मणों में सजातीय वरवधू का मिलना अब काफी मुश्किल हो चला है.
एक आंकड़े के मुताबिक लगभग 40 हजार ब्राह्मण युवक ब्राह्मण पत्नी को तरस रहे हैं. यही हाल शिक्षित और कमाऊ होती जा रही युवतियों का भी है जिन्हें आसानी से जाति में जीवनसाथी नहीं मिल रहीं और मिलती भी हैं तो दहेज के लिए सुरसा सा मुंह फाड़ते हैं. इस के बाद भी सुखी वैवाहिक जीवन की कोई गारंटी नहीं. हैरानी की बात यह कि लड़की जितनी ज्यादा पढ़ीलिखी होगी उसे उतना ही ज्यादा दहेज देना पड़ेगा.
ऐसे में अगर हिंदी भाषी राज्य का अपरकास्ट का लड़का सस्ते में मिल रहा है तो सौदा घाटे का नहीं इसलिए किसी रुक्मणी का पिता ज्यादा धरमकरम नहीं दिखाता. उस का मकसद सिर्फ अपनी जाति और खानदान का वैभवशाली अतीत बताना भर होता है. यही हाल हिंदी भाषी राज्यों मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और दिल्ली सहित बिहार आदि का है कि टैक्निकल पढ़ाई कर बाहर नौकरी करने युवकयुवतियों को अपनी जाति और क्षेत्र का उम्मीदवार जिसे वैवाहिक विज्ञापनों की भाषा में समकक्ष कहा जाता है नहीं मिलता तो वे दक्षिण में प्यार कर बैठते हैं.

कम लेकिन स्‍वागतयोग्‍य

ऐसी इंटरस्टेट शादियां अभी बहुत धड़ल्ले से भले ही न हो रही हों लेकिन होने लगी हैं जो आमतौर पर सफल ही रहती हैं. एक आंकड़े के मुताबिक इंटरस्टेट शादियों की संख्या तकरीबन 5 फीसदी ही है ये भी इसलिए हो रही हैं क्योंकि इन में युवा लंबा टाइम साथ गुजारते एकदूसरे को समझ चुके होते हैं. उन्हें एक सहूलियत भरी जिंदगी की गारंटी और वारंटी मिलती है तो वे धर्म, जाति, भाषा और रीतिरिवाज नहीं देखते और न ही पेरैंट्स को ज्यादा देखने देते जिन्हें बेहतर मालूम है कि अगर ज्यादा सख्ती करेंगे तो उन की रहीसही भूमिका भी खत्म हो जाएगी.
बच्चे आर्थिक रूप से सक्षम हैं और अब अपने कानूनी अधिकार भी जाननेसमझने लगे हैं. ऐसे में हम मना करेंगे तो स्पैशल मैरिज एक्ट के तहत वे शादी कर लेंगे फिर हमारे हाथ कुछ नहीं रह जाएगा. वह बदनामी ज्यादा बुरी और वास्तविक होगी इसलिए क्यों न बचने के लिए उसपर उदारता और बच्चों के समझदार और आधुनिक होने का ठप्पा लगा दिया जाए. वैसे भी यह सच तो है ही जो रोजरोज दिखता है. इसलिए अजी हमारा क्या है, हम तो अपनी जिंदगी जी चुके जमाना इन बच्चों का है ये अपने हिसाब से जिएं इसलिए हम ने हां कर दी.
यह और बात है कि जिंदगीभर यह बात दिल में कसकती रहेगी कि हम अपनी जाति में बच्चों की शादी नहीं कर पाए. लेकिन ये लोग शायद ही यह समझ पाएं कि क्षेत्र और भाषा की दीवार जो खासतौर से दक्षिण भारत में धर्म और राजनीति ने खड़ी कर रखी हैं उन्हें ये युवा ही तोड़ पाएंगे और तोड़ भी रहे हैं लेकिन इस के लिए जिस प्रोत्साहन की जरूरत है वह उम्मीद और जरूरत के मुताबिक नहीं मिल रहा है. इस के बाद भी अच्छा और सुखद यह है कि प्रेमियों का हश्र कम से कम सपना और बासु सरीखा तो नहीं हो रहा.
रही बात आने वाले वैवाहिक जीवन में टकराव की तो रुक्मणी और अक्षत पूरे आत्मविश्वास से कहते हैं, ‘भाषा, क्षेत्र, जाति वगैरह पर टकराव या विवाद की सारी वजहें हम पहले ही खत्म कर चुके हैं. पूजापाठ बेहद व्यक्तिगत मामला है जिसे जैसे करना हो करे और न करना हो तो न करे लेकिन हम इसे एकदूसरे पर थोपे जाने के खिलाफ हैं.’
बात इस लिहाज से सच भी लगती है कि बड़े शहरों में महंगे होते मकानों में भगवान की जगह दीवार के छोटे से हिस्से में सिमटती जा रही है. युवाओं के अपने रहने के लिए एकएक फुट के लाले पड़ रहे हैं तो वे भगवान का कमरा कहां से बनाएं.

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