दिल्ली शराब घोटाले में आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया को सुप्रीम कोर्ट ने 17 माह के बाद जमानत दी. जमानत देते कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत स्वतंत्रता के पहलू को सामने रखते निचली अदालतों को तमाम नसीहत भी दी. सवाल उठता है कि तमाम फैसलों में इस तरह दी जाने वाली नसीहतों को निचली अदालतें किस तरह से लेती हैं? जमानत देने में अदालतों को इतनी दिक्कत क्यों होती है? आरोपी देश छोड़ कर भाग नहीं रहा होता है. जमानत आरोपी का अधिकार है. अदालतें जमानत देने में संकोच क्यों करती हैं?

मनीष सिसोदिया जैसे लोगों पर तो हो हल्ला खूब मचता है. इन के पास अच्छे वकीलों की कमी नहीं होती है. पैसा कोई समस्या नहीं है तब यह हालत है. देश की जेलों में तमाम लोग जमानत मिलने की प्रतीक्षा में रह रहे हैं. इन की बात सुनने वाला कोई नहीं है. हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक जाना इन की आर्थिक क्षमता से बाहर होता है. जब नेता सत्ता में होते हैं तो उन को यह परेशानी क्यों नहीं पता चलती कि जमानत के लिए आरोपी का घर द्वार बिक जाता है. जमानत का इंतजार कर रहे हर आदमी के पास नेताओं की तरह मंहगे वकील और पैसा नहीं होता है. वह जमानत को ले कर समाज सुधार का कोई कानून क्यों नहीं बनाते?

‘जेल नहीं, जमानत ही नियम है’

हाई कोर्ट से जमानत के लिए जाने का कम से कम खर्च 3 से 5 लाख के बीच आता है. सुप्रीम कोर्ट में यह 5 से 10 लाख कम से कम हो जाता है. आम आदमी किस तरह से अपना मुकदमा वहां ले कर जाए. खासतौर पर तब जब घर का कमाने वाला ही जेल में जमानत की राह देख रहा हो. जमानत के अधिकार पर केवल सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से काम नहीं चलने वाला. इस को ले कर न्याय प्रणाली में एक स्पष्ट व्यवस्था होनी चाहिए जिस से कम से कम समय जमानत के इंतजार में लोगों को जेल में रहना पड़े.

सुप्रीम कोर्ट ने मनीष सिसोदिया को जमानत देते वक्त कहा कि जमानत को सजा के तौर पर नहीं रोका जा सकता. निचली अदालतों को यह समझने का समय आ गया है कि ‘जेल नहीं, जमानत ही नियम है’. मुकदमे के समय पर पूरा होने की कोई संभावना नहीं है. सिसोदिया को लंबे दस्तावेजों की जांच करने का अधिकार है.

अदालत ने यह देखने के बाद याचिका मंजूर की कि मुकदमे में लंबी देरी ने मनीष सिसोदिया के शीघ्र सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन किया है. कोर्ट ने कहा कि शीघ्र सुनवाई का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत स्वतंत्रता का एक पहलू है. बेंच ने कहा कि मनीष सिसोदिया को शीघ्र सुनवाई के अधिकार से वंचित किया गया है.

हाल ही में जावेद गुलाम नबी शेख मामले में भी हम ऐसे ही निपटे थे. हम ने देखा कि जब अदालत, राज्य या एजेंसी शीघ्र सुनवाई के अधिकार की रक्षा नहीं कर सकती हैं तो अपराध गंभीर होने का हवाला दे कर जमानत का विरोध नहीं किया जा सकता है. अनुच्छेद 21 अपराध की प्रकृति के बावजूद लागू होता है.

कानून बना कर समाज सुधार से भागती सरकारें

मनीष सिसोदिया की जमानत पर सांसद संजय सिंह ने कहा कि “दिल्ली का नागरिक खुश है. सब मानते थे कि हमारे नेताओं के साथ जोर जबरदस्ती और ज्यादती हुई है. हमारे मुखिया अरविंद केजरीवाल और सत्येंद्र जैन को जेल में रखा है. वो भी बाहर आएंगे. केंद्र की सरकार की तानाशाही के खिलाफ जोरदार तमाचा है. ईडी ने कोई न कोई जवाब दाखिल करने का बहाना बनाया. एक पैसा मनीष सिसोदिया के घर, बैंक खाते से नहीं मिला. सोना और प्रौपर्टी नहीं मिला. दिल्ली के विधानसभा चुनाव के लिए और आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता के लिए खुशखबरी है. हमें ताकत मिलेगी.”

संजय सिंह का बयान राजनीतिक है. प्रधानमंत्री के साथसाथ उन को न्याय प्रणाली से सवाल करना चाहिए कि जमानत देने में हिचक क्यों होती है ? संजय सिह और आम आदमी पार्टी सत्ता में हैं जहां कानून बनते हैं. उन को राज्यसभा में यह बात उठानी चाहिए कि जमानत के अधिकार में रोड़ा न लगाया जा सके. असल में सरकारों के साथ यह दिक्कत होती है कि वह शोषक होती है. कानून के जरिए समाज सुधार के काम नहीं करती. संजय सिंह और आम आदमी पार्टी आज भी दूसरे आरोपियों की चिंता नहीं कर रही जो जमानत के इंतजार में जेल में हैं. वह केवल अपनी पार्टी के लोगों के लिए आवाज उठा रहे हैं.

आम आदमी पार्टी जब विपक्ष में थी तब उस के नेता अरविंद केजरीवाल कहते थे कि ‘दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को पहले जेल में डालो फिर मुकदमा चलाओ. सब कबूल कर देंगी. कहां कैसे भ्रष्टाचार और घोटाले हुए हैं.’ अब जब उन कर यही हथियार चल पड़ा तो समझ में आ रहा कि जेल, जमानत, सुनवाई में देरी, ईडी और सीबीआई क्या करती है उस का क्या प्रभाव पड़ता है. जो पार्टी सत्ता में हो तो उसे इस तरह के कानून बनाने चाहिए कि समाज सुधार हो सके. जनता को राहत मिले.

जमानत का अधिकार एक बड़ा मुद्दा है. सुप्रीम कोर्ट बारबार निचली अदालतों को प्रवचन देती है लेकिन निचली अदालतें कहानी की तरह सुन कर भूल जाती है. ऐसे में कानून बनाने वाली सरकारों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह कि ‘जेल नहीं, जमानत ही नियम है’ के सिद्वांत को लागू कराए. जिस से जमानत के लिए लोगों को अपना घर द्वार न बेचना पड़े. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक पंहुच सकने वाले आरोपियों को भी जल्दी जमानत मिल सके.

17 माह बाद मिली जमानत

सुप्रीम कोर्ट ने कथित दिल्ली शराब घोटाले में मनीष सिसोदिया की जमानत पर फैसला सुना दिया. मनीष सिसोदिया को सुप्रीम कोर्ट ने जमानत दे दी है. 17 माह के बाद वह जेल से बाहर आ रहे हैं. उन्हें 10 लाख के निजी मुचलके पर जमानत मिल गई है. मनीष सिसोदिया पर दिल्ली आबकारी नीति में गड़बड़ी के आरोप हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने कुछ शर्तों के साथ जमानत दी है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, सिसोदिया को अपना पासपोर्ट जमा करना होगा, इस का मतलब सिसोदिया देश छोड़ कर बाहर नहीं जा सकते. मनीष सिसोदिया को हर सोमवार को थाने में हाजिरी देनी होगी.

आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह ने इस फैसले का स्वागत करते कहा है कि “यह सत्य की जीत हुई है. पहले से कह रहे थे इस मामले में कोई भी तथ्य और सत्यता नहीं थी. जबरदस्ती हमारे नेताओं को जेल में रखा गया. क्या भारत के प्रधानमंत्री इस 17 महीने का जवाब देंगे

जिंदगी के 17 महीने जेल में डाल कर बर्बाद किया ? जब ‘जेल नहीं, जमानत ही नियम है’ का सिद्वांत लागू होगा तो किसी के जीवन का कीमती समय जमानत के इंतजार में जेल में नहीं कटेगा.”

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