केंद्र सरकार के कहने पर राष्ट्रपति द्वारा कुछ राज्यों में राज्यपाल नियुक्त किए गए हैं. कैसी विडंबना है कि इन सभी पर भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं संघ की छाप है. जबकि संविधान में भावना यह थी कि राज्यपाल केंद्र और राज्य के बीच सेतु का काम करेंगे, समन्वय का काम करेंगे. मगर अब हो रहा है कि केंद्र का, उस से भी बढ़ कर केंद्र में बैठी सत्ता की विचारधारा की लाठी ले कर राज्यपाल राज्य की सरकार को हांकने का प्रयास रहे हैं.

यह देश और संवैधानिक संस्थाओं के लिए विचारणीय पहलू है कि अचानक "राज्यपाल" नामक संस्था में यह निम्न स्तरीय बदलाव क्यों और किस कारण आया है कि वह केंद्र द्वारा भेजे जाने के बाद संविधान के नियमों को दरकिनार करते हुए स्वयंभू बन गए हैं और सबसे मजेदार बात है कि जहांजहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार नहीं है वहां राज्यपाल कुछ इस तरह का बर्ताव कर रहे हैं जैसे वे ही सत्ता के प्रमुख हैं.जबकि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत चुने हुए जनप्रतिनिधि विधायकों के नेता मुख्यमंत्री के रूप में मौजूद है.

लंबे समय से यह विवाद की स्थिति बनी हुई है और इस का सीधा सा कारण यह है कि राज्यपाल नामक इन चेहरों को केंद्र का संरक्षण मिला हुआ है. इसलिए चाहे पश्चिम बंगाल हो या दक्षिण के कुछ राज्य जहांजहां भाजपा सत्ता में नहीं है दूसरे दलों की सरकार है वह राज्यपाल से संघर्ष करते हुए दिखाई दे रही है. अब मामला पहुंच गया है देश की सबसे बड़े न्यायालय में. सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और दो राज्यों पश्चिम बंगाल व केरल के राज्यपालों को नोटिस जारी कर उनसे जवाब मांग लिया है.दरअसल क्या यह सोचने और चिंतन की बात नहीं है कि पश्चिम बंगाल और केरल की सरकारों की तरफ से दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए प्रधान न्यायाधीश धनंजय यशवंत चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने केंद्रीय गृह मंत्रालय और दोनों राज्यपालों के सचिवों को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है.
देश के सबसे बड़े न्यायालय में यह मामला पहुंच गया, इससे पता चलता है कि केंद्र सरकार गृह मंत्रालय हाथ पैर हाथ बंधे बैठा हुआ है अन्यथा ऐसा कदापि नहीं होता.

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